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Monday, June 1, 2020

कर्म योग का महत्व - दिनांक 1 जून 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

भगवान गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 40 में कर्म योग का महत्व बताते हुए कहते हैं:-

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। 👑

    🌹इस कर्म योग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है, और उल्टा फल रूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्य रूप महान भय से रक्षा कर लेता है।

    🌹भगवान ने गीता का उपदेश अर्जुन को महाभारत के युद्ध शुरू होने से पहले जब अर्जुन को कौरवों की सेना में अपने सगे संबंधियों को देखकर मोह हो गया कि मुझे इन्हें युद्ध में मारना है और युद्ध न करने की इच्छा करने लगा। गीता के उपदेश से और भगवान की कृपा से अर्जुन का मोह नष्ट हो गया और वह संशय रहित होकर अपने कर्तव्य कर्म पर लग गया। अतः भगवान द्वारा गीता में अनेकों  श्लोकों में हम सभी मनुष्यों को अपना शास्त्र विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य कर्म बिना आसक्ति के कामना रहित होकर ,निस्वार्थ भाव से  करते रहने का उपदेश दिया है। यदि हम कर्म करते हुए अपने अंतःकरण में समता का भाव अर्थात जय -पराजय , लाभ- हानि , सिद्धि -असिद्धि आदि में समान भाव रखेंगे तब ऐसा कर्म ही कर्म योग हो जाता है। समत्व ही योग कहलाता है- "समत्व योग उच्यते" । गीता में भगवान ने समान भाव (समता ) की बहुत महिमा बताई है।गीता के श्लोक 5/19 में भगवान कहते हैं कि जिसका मन समभाव में स्थित है उसके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वह ब्रह्म में ही स्थित है। सम बुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। समत्व रूप योग ही कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।

    🌹यदि मनुष्य इस कर्म योग अर्थात समता में  स्थित होकर निष्काम भाव से अपना कर्तव्य कर्म आरंभ कर दे और यदि किसी कारणवश उससे इसका त्याग हो गया तब भी उस कर्म योग के संस्कार उसके अंतः करण में संचित हो जाएगें और यदि इस जन्म में नहीं तब अगले जन्म में भी वह फिर अपने संचित कर्म द्वारा उस कर्म योग का आरंभ कर देगा, वह व्यर्थ नहीं जाएगा। इसी प्रकार से उसने जो कर्म योग का आरंभ किया था,  उसमें कोई कामना नहीं थी फल की इच्छा नहीं थी, निस्वार्थ भाव से शुरू किया था, अतः  उसका विपरीत फल भी नहीं होता। चूंकि यदि हम फल की इच्छा से या कामना रखते हुए कोई यज्ञ दान तप आदि करते हैं तब वह यदि विधिपूर्वक न किया हो तब उसका विपरीत फल भी मिल जाता है। लेकिन यदि हमारी कोई कामना हीं ना हो तब हमें विपरीत फल भी नहीं मिलता।भगवान शंकराचार्य अपनी भाष्य में कहते हैं कि जैसे हम खेत में बीज डालकर छोड़ दें, बाद में उसकी देखभाल ना करें तब उसका नाश हो जाता है। उसी प्रकार कभी-कभी रोग नाश के लिए ली गई औषधि अनुकूल ना होने पर रोग को बड़ा देती है और उसका उल्टा फल हो जाता है । लेकिन कर्म योग के आरंभ का बीज की तरह नाश नहीं होता और औषधि की तरह विपरीत फल भी नहीं होता। अर्थात निष्काम कर्म का परिणाम बुरा नहीं होता।

    🌹अतः यदि कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन मनुष्य आरंभ कर दे तब भी जन्म मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है , तब इसके पूर्ण साधन द्वारा तो मनुष्य उसी क्षण परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । सकाम भाव से अर्थात कामना रखते हुए किए गए दान , यज्ञ और अन्य कर्म हमारा संसार से उध्दार नहीं कर सकते, वह अपना फल देकर नष्ट हो जाएंगे और हम उस फल का भोग करके मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे,  इस क्रम का तो कभी अंत ही नहीं होगा। और यदि समभाव में स्थित होकर हम अपने कर्तव्य कर्म निष्काम भाव से करें तब हमारा उद्धार होकर परम गति को प्राप्त हो जाते हैं । अतः  हम भगवान द्वारा बताए गए रास्ते पर चलने का प्रयास तो शुरू करें अपने अंतःकरण में समभाव लाकर , निष्काम भाव और स्वार्थ रहित होकर,  बिना किसी कामना के अपना कर्तव्य कर्म का आरंभ तो करें , शुरू में तो हम इससे विचलित हो सकते हैं लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा हम प्रयास करते रहे।  अंत में हम सफल होंगे और स्वयं ही अपना इस संसार सागर से उद्धार कर सकते हैं । भगवान ने गीता में जो हमें मार्ग बताया है उसे केवल पढ़कर ही नहीं छोड़ देना है,  परंतु उस पर चलने का अभ्यास शुरू करना है इसी में हम सब का कल्याण निहित है और हमारा मनुष्य जन्म लेना भी सफल हो जाएगा।

      धन्यवाद🙏
      बी. के. शर्मा 

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