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Saturday, March 6, 2021

जिससे सबका हित सधे, वही कर्म मानव का परम धर्म है

 

हम अकसर अपनी कामना की पूर्ति के लिए ही कार्य शुरु करते हैं, अन्यथा अपने स्वाभाविक या नियत कर्म की तरफ से एक उदासीन भाव रखते हैं। जिन क्रियाओं के साथ हम शारीरिक या मानसिक आधार पर कामना या स्वार्थ पूर्ति के लिए संबंध बना लेते हैं, वे कार्य हमें बंधन में डालने वाले बन जाते हैं। लेकिन कर्मयोगी निस्वार्थ भाव से और दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए अपने स्वभाविक और नियत कर्तव्य पूरी तत्परता और ईमानदारी से करते हुए कर्मबन्धन से मुक्त रहता है। कर्मयोग में दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए कर्म किए जाते हैं और कर्मयोगी का संबंध या योग परमात्मा के साथ हो जाता है।

गीता में भगवान अर्जुन से कहते हैं, ‘तू शास्त्रविधि से नियत किए हुए कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।’ यानी कि जो कर्म शास्त्रों में निषेध हैं या जिन्हें करने से मना किया गया है, जैसे हिंसा करना, किसी को कष्ट पहुँचाना, चोरी करना, झूठ बोलना, किसी को धोखा देना या अहित करना, वे हमें नहीं करने चाहिए। हमें ऐसे कर्मों का पूर्ण त्याग कर देना चाहिए। जब हम शास्त्र निषिद्ध कर्म करेंगें ही नहीं, तब हमसे केवल शास्त्रविहित कर्म ही होंगे। इन कर्मों से हमारा स्वयं ही कल्याण हो जाएगा। इस प्रकार जितने भी शास्त्रविहित कर्तव्य हमारे सामने करने के लिए आ जाएं, उन्हें पूर्ण निष्काम मन से अहंकार रहित होकर करने पर हम कर्मबन्धन से मुक्त रह सकते हैं।

        गीता में शास्त्रविहित नियत कर्म को यज्ञ कहा गया है। दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए या दूसरों को सुख पहुँचाने के लिए जो कर्म किए जाते हैं, वे सब स्वधर्म या यज्ञार्थ कर्म हैं। इसलिए जब हम स्वधर्मानुसार अपने नियत कर्तव्य करते हैं तब उन कर्मों के माध्यम से ही अनवरत यज्ञकर्म होते रहते हैं। परिणामस्वरूप हम संसार में रहते हुए भी संसार के बन्धन से मुक्त रहते हैं। जब हम स्वधर्म का पालन नहीं करते, तब बुरे कर्मों में हमारी आसक्ति हो जाती है और हम संसार बन्धन में पड़कर बार-बार जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। गीता में भगवान कहते हैं, ‘यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्म कर।’

        कर्मों की गति बड़ी ही सूक्ष्म होती है। इसलिए भलीभांति विचार करके ही कर्म करने चाहिए। शुभ कर्म और अशुभ कर्म के फल उसके अनुसार अवश्य मिलते हैं। अशुभ कर्म करने से दुख या प्रतिकूल परिस्थिति और शुभ या यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्म करने से सुख या अनुकूल परिस्थिति की प्राप्ति होती है। इसलिए सदाचारी पुरुष सदा शुभ कार्य ही करते है और शरीर, मन, वाणी से सभी प्राणियों का कल्याण ही करते हैं। कर्म अपना असर अवश्य छोड़ता है। कर्म शुभ हो या अशुभ वह कभी मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता, कर्म के अनुसार उसका फल उसी को भोगना पड़ता है, दूसरा व्यक्ति उसे नहीं भोग सकता। निर्धारित कर्मफल उसे कर्म के अनुरुप भोगना पड़ता है। इसलिए प्रत्येक कर्म दूसरों के हित का भाव अपने अंदर रखते हुए बड़ी सावधानी के साथ पूरे निष्काम भाव से करना चाहिए।

डॉ. बी. के. शर्मा

 

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 4 मार्च 2021 को प्रकाशित हुआ है)

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