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Sunday, June 1, 2025

स्वर्ग और नरक की प्राप्ति कराने वाले कर्मों का वर्णन



महाभारत के अनुशासन पर्व में माता पार्वती भगवान महेश्वर से पूछती है कि किस प्रकार के शील, आचरण, कर्म और दान के द्वारा मनुष्य स्वर्ग में जाता है।

भगवान महेश्वर ने कहा-देवी, जो मनुष्य ब्राह्मणों का सम्मान और दान करता है, दीन दुखी और दरिद्र मनुष्यों को भक्ष्य-भोज्य, अन्न दान और वस्त्र प्रदान करता है, ठहरने के स्थान, धर्मशाला, कुँआ, प्याऊ और बावड़ी आदि बनवाता है, लेने वाले लोगों की इच्छा पूछ पूछकर नित्य देने योग्य वस्तुएं दान करता है, आसन, शय्या, सवारी, गृह, रत्न, धन-धान्य, गौ, खेत और कन्याओं का प्रसन्नतापूर्वक दान करता है, वह देवलोक में निवास करता है। और पुण्यकर्मों का भोग समाप्त होने पर वहां से मनुष्यलोक में आकर सुख-सामग्रियों से संपन्न उत्तम कुल में जन्म लेता है। उसके पास धन-धान्य की कमी नहीं रहती। दान देने वाले प्राणी ही ऐसे महान सौभाग्य से युक्त होते हैं-यह बात ब्रह्मा जी ने बहुत पहले से ही बता रखी है। दाता पुरुष सबके प्रिय होते हैं।

इनके सिवा बहुत से मनुष्य ऐसे होते हैं जो किसी को कुछ देने में कंजूसी करते हैं। वे मन्दबुद्धि पुरुष ब्राह्मणों के मांगने पर अपने पास धन होते हुए भी कुछ नहीं देते। दीनों, अंधें, दरिद्रों, भिखमंगों और अतिथियों को देखते ही हट जाते हैं। उनके याचना करने पर भी जिह्वा की लोलुपता के कारण अन्न नहीं देते। कभी भी धन, वस्त्र, सुवर्ण, गौ और अन्न की बनी हुई नाना प्रकार की खाद्य वस्तुओं का दान नहीं करते। इस प्रकार के अधर्मी, लोभी, नास्तिक एवं दान से जी चुराने वाले मुर्ख लोग नरक में पड़ते हैं। यदि कालचक्र के फेर से पुनः मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं तो निर्धन कुल में ही जन्म लेते हैं। वे हमेशा भूख प्यास का कष्ट सहते हैं, सब लोग उन्हें अपने समाज से बाहर कर देते हैं तथा वे सब प्रकार के भोगों से निराश होकर पापाचार से जीविका चलाते हैं अथवा वे थोड़े से वैभव वाले कुल में उत्पन्न होते और थोड़े से ही भोग भोगते हैं।

इनके सिवा, दूसरे भी ऐसे मनुष्य हैं जो सदा गर्व और अभिमान में फूले और पाप में परायण रहते हैं। जो मूर्ख मार्ग देने योग्य पुरुषों को जाने के लिए मार्ग नहीं देते, गुरु के आने पर प्रेमपूर्वक उनकी पूजा नहीं करते तथा अभिमान और लोभ के वशीभूत होकर सम्माननीय पुरुषों का अपमान एवं वृद्धजनों का तिरस्कार करते हैं, इस प्रकार के आचरण करने वाले सभी लोग नरकगामी होते हैं और जब वे नरक से छुटकारा पाते हैं तो बहुत वर्षों के बाद अत्यन्त निन्दित कुल में जन्म लेते हैं। गुरु और बड़े बूढ़ों का अपमान करने वाले मनुष्यों का मूर्ख और घृणित चाण्डालों के कुल में जन्म होता है।

जिनमें गर्व और अभिमान का नाम नहीं होता, जो देवता और ब्राह्मणों की पूजा करता है, संसार के लोग जिसे पूज्य मानते हैं, जो बड़ो को प्रणाम करने वाला, विनयी, मीठे वचन बोलने वाला, सब वर्णों का प्रिय, और सम्पूर्ण प्राणियों का हित करने वाला है, जिसका किसी के साथ द्वेष नहीं है, जिसका मुख प्रसन्न और स्वभाव कोमल है जो स्वागतपूर्वक स्नेहभरी वाणी बोलता है, किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता तथा सबका सत्कार और पूजन करता है, जो मार्ग देने योग्य पुरुष को मार्ग देता है, गुरु का यथोचित सत्कार करता और अतिथियों को आमन्त्रित करके उनकी पूजा करता है- ऐसा मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त करता है। फिर वहां का भोग समाप्त होने पर मनुष्य योनि में आकर वह उत्तम कुल में उत्पन्न होता है। वहां सब प्राणी उसका आदर करते हैं और सब लोग उसके सामने मस्तक झुकाते हैं।

इस प्रकार मनुष्य अपने कर्मों का फल सदा स्वयं ही भोगता है। धर्मात्मा मनुष्य सर्वदा उत्तम कुल, उत्तम जाति और उत्तम स्थान में जन्म लेता है। यह साक्षात ब्रह्मा जी के बताये हुए धर्म का वर्णन किया है। जिस मनुष्य का आचरण क्रूरता से भरा हुआ है, जो समस्त जीवों के लिए भयंकर है, जो हाथ, पैर, रस्सी, डंडे और ढेले से मारकर, खंभे में बांधकर तथा घातक शस्त्रों का प्रहार करके जीव जन्तुओं को सताता और भयावह रूप धरण करके उन पर आक्रमण करता है, ऐसे स्वभाव वाले मनुष्य को नरक में गिरना पड़ता है। और कालचक्र में पड़कर यदि वो मनुष्य योनि में आता है तो अनेकों प्रकार की विघ्न बाधाओं से कष्ट उठाने वाले अधम कुल में उत्पन्न होता है। ऐसा मनुष्य अपने किये हुए कर्मों के अनुसार जगत में नीच समझा जाता है और सब लोग उससे द्वेष रखते हैं।

इसके विपरीत जो मनुष्य सब प्राणियों के प्रति दयादृष्टि रखता है, सबको मित्र समझता है, सबके ऊपर पिता के समान स्नेह रखता है, किसी के साथ वैर नहीं करता और इन्द्रियों को वश में किये रहता है, जो हाथ पैर आदि को अपने अधीन रखकर किसी भी जीव को ना उद्वेग में डालता और ना मारता ही है, सब प्राणी जिस पर विश्वास करते हैं, जिसका कर्म मृदु होता है तथा जो सदा ही दयाभाव से युक्त रहता है, ऐसे स्वभाव और आचरण वाला पुरुष स्वर्गलोक के दिव्य भवन में देवताओं की भाँति आनन्दपूर्वक निवास करता है। फिर पुण्यकर्मों के क्षीण होने पर यदि वह मृत्युलोक में जन्म लेता है तो उसके ऊपर बाधाओें का आक्रमण कम होता है। वह निर्भय, सुखी और उद्वेग से रहित जीवन व्यतीत करता है। देवि, यह सज्जन पुरुष का मार्ग है, जहां किसी प्रकार की विघ्न बाधा नहीं आने पाती।

जो मनुष्य धर्म से उपार्जित किये हुए धन को भोगते और सत्यधर्म में परायण रहते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं। जिनके सब प्रकार के संदेह दूर हो गये हैं, जो प्रलय और उत्पत्ति के तत्व को जानने वाले सर्वज्ञ और सर्वदृष्टा है, जिनकी आसक्ति दूर हो गयी है तथा जो मन, वाणी और कर्म से किसी जीव की हिंसा नहीं करते, वे ही पुरुष कर्म-बंधनों से मुक्त होते हैं। उन्हें न धर्म बांधता है न अधर्म। जो कहीं आसक्त नहीं होते, किसी के प्राणों की हत्या से दूर रहते हैं तथा जो सुशील और दयालु हैं, वे भी कर्मों के बन्धन में नहीं पड़ते। जो शत्रु और मित्र को समान समझने वाले हैं, वे जितेन्द्रिय पुरुष कर्मबन्धन से मुक्त हो जाते हैं। जो सब प्राणियों पर दया करने वाले, सबके विश्वासपात्र तथा हिंसामय आचरणों को त्याग देने वाले हैं वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो दूसरों के धन पर ममता नहीं रखते, परायी स्त्री से सदा दूर रहते और धर्म के द्वारा प्राप्त किये हुये अन्न का ही भोजन करते हैं, जिनका दूसरों की स्त्रियों के प्रति माता, बहन और बेटी के समान भाव रहता है, जो सदा अपने ही धन से संतुष्ट रहकर चोरी आदि से दूर रहते हैं, जिन्हें सदा अपने भाग्य का ही भरोसा रहता है, जिनकी इन्द्रियाँ काबू में रहती है तथा जो शील को ही श्रेष्ठ समझकर उसमें स्थित रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं। यह देवताओं का बनाया हुआ मार्ग है। विद्वान पुरुष को सदा ही इसका सेवन करना चाहिए।

जो मनुष्य अपने या दूसरे के लिए हँसी-परिहास में भी झूठ नहीं बोलते, आजीविका, धर्म अथवा किसी कामना के लिए असत्य भाषण नहीं करते, जिनकी वाणी मन को प्रिय लगने वाली, किसी को दुख न पहुँचाने वाली, पापपूर्ण विचारों से रहित तथा स्वागत-सत्कार के भाव से युक्त रहती है तथा जो कभी रुखी, कड़वी और निष्ठुरतापूर्ण बात मुँह से नहीं निकालते, वे सज्जन पुरुष स्वर्ग में जाते हैं। मनुष्यों को इस वाणी के धर्म का सदा सेवन करना चाहिए। विद्वानों को सर्वदा शुभ और सत्य वचन बोलना तथा मिथ्या का त्याग करना उचित है। उपुर्यक्त कर्मों का निष्काम भाव से आचरण करने वाले पुरुष को परमात्मपद की प्राप्ति हो जाती है।

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