Wednesday, January 13, 2016

आत्मचिन्तन(2)
डा0 बी0 के0 शर्मा

आज अधिकांश मनुष्य अशान्त हैं, चिन्ताओं से ग्रस्त है, जिस शान्ति और परमात्मा को बाहर जगह-जगह ढूँढ़ते हैं, वे परमदेव परब्रम्ह परमात्मा अपने ही भीतर हृदय में अन्तर्यामीरूप से स्थित हैं। इनको जानने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। अपने ही भीतर स्थित परमात्मा को जानने की चेष्टा करनी चाहिए, क्योंकि इनसे बढ़कर जानने योग्य दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं। इन एक को जानने से ही सबका ज्ञान हो जाता है, ये ही सबके कारण और परमाधार हैं। गीता में भगवान कहते हैं:
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।(18/61)
                हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मो के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।

                श्वेताश्वतरोपनिषद् में आया है कि जिस प्रकार तिलों में तेल, दहीं में घी, ऊपर से सूखी हुई नदी के भीतरी स्रोतो  में जल तथा अरणियों में अग्नि छिपी रहती है, उसी प्रकार परमात्मा हमारे हृदयरूप गुफा में छिपे हैं। जिस प्रकार अपने-अपने स्थान में छिपे हुए तेल आदि उनके लिए बताए हुए उपायों से उपलब्ध किये जा सकते हैं, उसी प्रकार जो कोई साधक विषयों से विरक्त होकर सदाचार, सत्यभाषण तथा संयमरूप तपस्या के द्धारा साधन करता हुआ उनका निरन्तर ध्यान करता रहता है, उनके  द्धारा वे परब्रम्ह परमात्मा भी प्राप्त किये जा सकते हैं।

                मनुष्य रूपी शरीर में जीवात्मा और परमात्मा दोनों मौजूद हैं लेकिन अनेक जन्मों के कर्मो के संस्कार स्वरूप हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गये हैं। जैसे बहुत किमती रत्न मिट्टी में सन जाने पर अपने वास्तविक रूप से विमुख हो जाता है और उसकी धूल मिट्टी हटाने पर उसमें चमक जाती है उसी प्रकार ध्यान- योग के द्धारा हम अपने वास्तविक रूप को पहचान पाते हैं और जैसे ही हम भोग विलास, कामनाओं, आसक्ति आदि को छोडकर ईश्वर की तरफ देखते हैं अर्थात् जीवात्मा, परमात्मा की तरफ मुँह कर लेता है, तब तत्काल ही वह शोक रहित हो जाता है। 

         जीवन में सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक है किंतु जो सुख और  दु:ख  दोनों की ही चिंता छोड देता है वह अक्षय ब्रम्ह को प्राप्त हो जाता है। मनुष्य धन का संग्रह करते -करते पहले की अपेक्षा उंची स्थिति को प्राप्त होकर भी कभी तृप्त नहीं होतेवे और अधिक की आशा लिए ही मर जाते हैं, इसलिए विद्धान पुरूष सदा संतुष्ट रहते हैं। संग्रह का अन्त है विनाश, ऊंचे चढने का अन्त है नीचे गिरना, संयोग का अन्त है वियोग और जीवन का अन्त है मरण। तृष्णा का कभी अंत नहीं होता। संतोष ही परम सुख है। अतः विवेकी पुरूष इस लोक में संतोष को ही परम धन मानते हैं।

                                सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्याः।
                                संयोगा विप्रयोगान्ता  मरणान्तं हि जीवितम्।।
                                अन्तो नारित पिपासायास्तुष्टिस्तु परमं सुखम्।
                                तस्मात् संतोषमेवेह धनं पश्यन्ति पण्डिताः।।
                                                                                                (महाभारत शान्तिपर्व 330 20.21)

                आयु लगातार बीत रही है, वह कभी विश्राम नहीं लेती। जब अपना शरीर ही अनित्य है तो दूसरी किस वस्तु को नित्य समझा जाए। जो मनुष्य सब प्राणियों के भीतर मन से परे परमात्मा की स्थिति जानकर उन्हीं का चिन्तन करते हैं, वे संसार-यात्रा समाप्त होने पर परमपद का साक्षात्कार करते हुए शोक के पार हो जाते हैं।        
                गीता के अन्तिम अध्याय में भगवान अर्जुन से कहते हैं कि सम्पूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर सुन-

                                मन्मना भव मदक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू।
                                मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।। (18/65)
                हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन मेरा पूजन करने वाला हो, और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता  हॅू  क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। अतः संसार में रहकर हमें अपने शरीर द्धारा सभी कर्मों को करते हुए अपने मन से ईश्वर का चिन्तन करते रहना चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए कि मैं ईश्वर द्धारा दिए गये कार्य को उन्हीं के द्धारा दी गयी शक्ति और सामर्थ्‍य  से केवल माध्यम बनकर बिना किसी कर्ता भाव और अहं से मुक्त होकर कर रहा हॅू भगवान के इस परम रहस्य युक्त वचन को, जो कि उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा करके कहा है, हमें उसका अक्षरतः पालन करते हुए इस मनुष्य जन्म को सफल बनाने का प्रयास  करना चाहिए, ताकि हम इस संसार के आवागमन से मुक्त हो सकें और हमारा यही जन्म, एक अन्तिम जन्म हो सके। प्रत्येक पल सतर्क रहने की जरूरत है, कौन सा सांस अन्तिम सांस होगा यह तो हम नहीं जानते, अतः हमें प्रत्येक सांस/पल का सदुपयोग करते रहना चाहिए।
डा0 बी0 के0 शर्मा

       11/440, वसुन्धरा गाजियाबाद(0प्र0)