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मनुष्य का अधिकांशतः यह स्वभाव होता है कि वह अपने गुणों या विशेषताओं को ही देखता है और उनकी चर्चा करता है, अपने दोषों को नहीं देखता। इसके विपरीत वह दूसरों के दोषों को ही देखता है और सबसे कहता रहता है उनके गुणों पर दृष्टि नहीं डालता। इस प्रकार दूसरों के दोषों को देखने पर और उनका चिंतन करते रहने पर वह दोष हमारे अंदर आने शुरू हो जाते हैं। अपने गुणों के कारण हम अभिमान भी करने लग जाते हैं और भूल जाते हैं कि संसार के सभी प्राणियों के अन्दर गुण और दोष दोनों ही अलग अलग मात्रा में होते हैं। किसीमें गुणों की प्रधानता और दोषों की न्यूनता होती है और किसी में इसके विपरीत होता है। यदि हम अपने दोषों पर दृष्टि रखेंगे तब हम उन्हें दूर करने का प्रयास भी करेंगे और दूसरों के गुणों पर दृष्टि रखने पर हम उनको अपने अन्दर भी लाने का प्रयास करेंगे। इससे हमारे स्वभाव में जो दोष हैं वह कम होते चले जाएंगे और गुणों की हमारे अंदर वृद्धि होती रहेगी। शरीर, मन और वाणी द्वारा जितने भी कर्म हम करते हैं वह सब हमारे स्वभाव अर्थात हमारे अंदर जैसे गुण या दोष होते हैं उनकी प्रेरणा से ही होते हैं। अतः दूसरों के अंदर किसी भी प्रकार का कोई गुण या अच्छी विशेषता यदि हमें दिखाई पड़ती है तब हमें उसे खुले दिल और दिमाग से ग्रहण करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।
श्रीमद भागवत महापुराण में ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेय जी राजा यदु से कहते हैं कि मैं 24 गुरुओं से शिक्षा प्राप्त करके इस संसार में मुक्त भाव से स्वछन्द विचरता हूँ। उनके गुरुओं के नाम हैं पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चंद्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंगा, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालने वाला, हरिण, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुआरी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट। उदाहरणार्थ उन्होंने सूर्य से सीखा कि जैसे वह अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं वैसे ही पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है तब समय आने पर उनका त्याग (दान) भी कर देना चाहिए। किसी भी समय उसे इंद्रियों के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होनी चाहिए। समुद्र से उन्होंने सीखा कि जैसे वह वर्षा के दिनों में नदियों के बाढ़ के कारण बढ़ता नहीं और न गर्मी के दिनों में घटता है वैसे ही मनुष्य को भी सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति में हर्षित नहीं होना चाहिए और न उनके घटने से उदास ही होना चाहिए। पतंगे से उन्होंने यह शिक्षा ग्रहण की कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है वैसे ही इंद्रियों को अपने वश में ना रखने वाला पुरुष अंततः अपना अहित ही करता है। मधुमक्खी से उन्होंने सीखा की जैसे वह विभिन्न पुष्पों से चाहें वे छोटे हों या बड़े उनका सार संग्रह करती है इसी प्रकार मनुष्य को छोटे बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार एवं बुद्धिमान या अपने से श्रेष्ठ पुरुषों से उनके अच्छे गुणों को ग्रहण करना चाहिए। मधु निकालने वाले पुरुष से यह शिक्षा ली कि जैसे वह मधुमक्खियों द्वारा संचित रस को निकाल ले जाता है वैसे ही संसार के लोभी मनुष्य बड़ी कठिनाई से धन का संचय तो करते रहते हैं किंतु वे संचित धन न किसी को दान करते हैं और ना स्वयं उसका उपभोग करते हैं और उनके धन को भी उसकी टोह रखने वाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है। मछली से शिक्षा ली जैसे वह कांटे में लगे हुए मांस के टुकड़े के लोभ से अपने प्राण गंवा देती है वैसे ही स्वाद का लोभी पुरुष भी मन को व्याकुल कर देने वाली अपनी जीभ के वश में होकर अपने को अस्वस्थ कर लेता है यदि वह रसेन्द्रिय को वश में कर लें तब तो मानो उसकी सभी इन्द्रियां वश में हो जाए। मकड़ी से उन्होंने शिक्षा ली कि जैसे वह अपने हृदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत को अपने में से उत्पन्न करते हैं उसमें जीव रूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं।