Tuesday, June 30, 2020

कर्मफल के त्याग से लाभ - 30.06.2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान


भगवान गीता के अध्याय 18 के श्लोक 12 में कर्मफल के त्याग से होने वाले लाभ को बताते हैं:

 

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधिं कर्मण: फलम् ।

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्यासिनां कव्चित् ।।


       कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा-बुरा और मिला हुआ ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है ,किंतु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्य के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता। 

       हम शरीरमन और वाणी द्वारा जो क्रिया करते हैं- वह कर्म कहलाता है। पांच महाभूतों (आकाशवायु ,अग्निजल ,पृथ्वी )से बना हुआ कर्मजन्य सुख -दुखादि भोगों के आयतन को स्थूल शरीर कहते हैं। अस्ति (व्यवहार योग्य होना)उत्पन्न होता हैबढ़ता है ,रूपांतर को प्राप्त होता है ,घटता है और नष्ट हो जाता है । ऐसे छः विकारों से युक्त  स्थूल शरीर है। यह जन्म से मृत्यु तक परिवर्तनशील है। शरीर का संबंध प्रकृति के साथ है जबकि हमारा संबंध ईश्वर के साथ है। हमारा स्वरूप (आत्मा) परिवर्तन रहित हैजबकि प्रकृति सदा परिवर्तनशील है। जब प्रकृति (शरीर ,मन ,बुद्धि )आदि में होने वाली क्रिया को हम अपने में मान लेते हैं अर्थात उनके साथ अपना संबंध स्थापित कर लेते हैं तब हम कर्म के साथ बंध जाते हैं और उसका फल भी हमें ही भुगतना पड़ता है।  पांच ज्ञानेंद्रियां ,पांच कर्मेंद्रियां,  पांच प्राण ,मन और बुद्धि ऐसे 17 कलाओं के सहित जो रहता है वह सूक्ष्म शरीर है ।

भगवान ने गीता के श्लोक (13/20) में कहा है कि कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख दुखों के भोगने में हेतु कहा जाता है। पांच महाभूत और उनके विषय (शब्दस्पर्शरूपरस और गंध) का नाम कार्य हैऔर पांच ज्ञानेंद्रियां ,पांच कर्मेंद्रियां और मनबुद्धिअहंकार (अंत:करण) इन 13 का नाम करण है। अत: कार्य और उनके करने के साधन (करण) सब प्रकृति के ही अंश हैं। हम उनके साथ अपना संबंध रखकर उनसे बंध जाते हैं। यदि हम अपने कर्तव्यकर्म भगवान की आज्ञानुसार अर्थात जैसा कि भगवान ने हमें गीता में और अन्य शास्त्रों में कर्म करने की विधि बताई हैआसक्ति और फल की इक्छा का त्याग करते हुए करें उसमें कर्तापन का अभिमान न रखेंपूर्ण निष्काम भाव से दूसरों के हित की दृष्टि रखते हुए करें तब हम कर्म बंधन से मुक्त हो जाते हैं।

भगवान ने गीता के श्लोक (18 /11 )में कहा है कि शरीरधारी किसी भी मनुष्य के द्वारा संपूर्णाता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं हैइसलिए जो कर्मफल का त्यागी है वही त्यागी है - यह कहा जाता है । श्लोक (12/12) में भगवान कहते हैं कि मर्म को न जानकर किए हुए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है ,ज्ञान से मुझ परमेश्वर के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है  क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शाँति होती है। जो शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्विक त्याग कहा जाता है। भगवान ने गीता के अनेकों श्लोकों में कर्मफल के त्याग के विषय में हमें बताया है।

कर्म तीन प्रकार के होते हैं- क्रियमाणसंचित और प्रारब्ध। जो कर्म हम अभी वर्तमान समय में करते हैं वह क्रियमाण कर्म है और वर्तमान से पहले इस जन्म में और पूर्व जन्म में हमारे द्वारा किए गए कर्म संचित कर्म कहलाते हैं और संचित कर्म में से जो कर्म हमारे सामने फल देने के लिए सामने आते हैं वह प्रारब्ध कर्म हैं। हमारे द्वारा तीन तरह से कर्म होते हैं (1) शुभ (पुण्य) कर्मजिनका फल सुख या अनुकूल परिस्थिति होती है जो हमें अच्छी लगती है अर्थात् इनका अच्छा फल मिलता है। (2) बुरे (पाप) कर्म जिनका फल दुख या प्रतिकूल परिस्थिति जो हमें बुरी लगती है अर्थात बुरा फल मिलता है। (3) मिश्रित (पुण्य-पाप) कर्म जिनका फल कभी अच्छा और कभी बुरा अर्थात अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का आना-जाना जैसा कि मनुष्य जन्म में होता रहता है। हम शुभ कर्म के कारण उच्च लोकों में जाते हैं और अशुभ कर्म के कारण पशु पक्षी योनियों में जाते हैं तथा मिश्रित कर्म के कारण मनुष्य जन्म लेकर सुख-दुख प्राप्त करते रहते हैं। अर्थात कोई भी कर्म करने से पहले हम स्वतंत्र हैं उसे करने के लिए अतः विचारपूर्वक ही कर्म करने चाहिए यह नहीं जो मन में आया कर लिया। कर्म करने के बाद वह हमारे अंतःकरण में संचित हो जाता है और फल रूप में हमारे सामने आता है। और इन्हीं कर्मों के कारण हमारे संस्कार बनते हैं और स्वभाव बनता है और हमारा जीवन भी वैसा ही बन जाता है।

यदि हम अपने कर्म, फल की इच्छा न रखते हुए अर्थात फल का त्याग करके करें अर्थात कामनाआसक्तिममता आदि  न रखकर भगवान को ही अर्पण करके और भगवान को ही संसार का मालिक मानकर लोकहित की दृष्टि से करें तब जैसा भगवान ने कहा है कि ऐसे मनुष्यों को कर्म का फल किसी काल में भी नहीं होता अर्थात वह कर्मबंधन से मुक्त हो जाती हैं। भगवान ने गीता में इस शरीर को क्षेत्र अर्थात खेत कहा हैजैसे खेत में हम जो भी बीज डालते हैं वह समय आने पर वृक्ष बनकर फल देता है लेकिन हम यदि उस बीज को अग्नि में भून लें और खेत में डालें तब वह न तो वृक्ष बनेगा और न फल देगा। इसी प्रकार हम यदि अपने कर्म ज्ञान के साथ करें जैसा कि शास्त्रों में भगवान ने कहा है तब हमारे कर्म भी ज्ञान की अग्नि में भस्म होकर कोई अच्छाबुरा या मिश्रित फल किसी भी काल में नहीं देंगे और हम कर्म करते हुए कर्म बंधन से मुक्त होकर इस जन्म मृत्यु के आवागमन से मुक्त होकर परमपद की प्राप्ति कर लेंगे। यह केवल मनुष्य जन्म में ही ज्ञान द्वारा संभव हैबाकी सभी तो केवल भोग योनियाँ हैं। अतः हमें अभी सचेत हो जाना चाहिएजो समय हमारे जीवन का व्यतीत हो गया है वह तो अब वापस  नहीं आ सकता लेकिन अभी भी जो बचा है उसका तो हम आज से ही सदुपयोग करके अपना उद्धार कर सकते हैं ताकि हमारा मनुष्य जन्म लेना सफल हो सके।

                                      धन्यवाद

                                     डॉ. बी. के. शर्मा


Friday, June 26, 2020

ईश्वर अर्पण बुद्धि से कर्म करना - 26.06.2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान


भगवान ने गीता के अध्याय 11 के श्लोक 55 में ईश्वर अर्पण बुद्धि से कर्म करते हुएअनन्यभक्ति द्वारा किस प्रकार मनुष्य परमात्मा को प्राप्त होता है के विषय में बताया है।


मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सग्ङवर्जितः।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।

हे अर्जुन! जो पुरुष मेरे ही लिए संपूर्ण कर्तव्यकर्मों को करने वाला हैमेरे परायण हैमेरा भक्त हैआसक्तिरहित है और संपूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित हैवह अनन्यभक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।

इस श्लोक में भगवान को प्राप्त पुरुष के पांच लक्षण बताएं हैं।


(1)    जो अपने समस्त शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म केवल ईश्वर अर्पण बुद्धि से ही करता हो। उदाहरण के लिए हम शरीरमन और वाणी द्वारा जो क्रिया करते हैं वह कर्म कहलाता है। पंच  महाभूतों (पृथ्वीजलअग्निवायुआकाश) से बना यह स्थूल शरीर और मनबुद्धि और अहंकार इस प्रकार यह आठ प्रकार के भेद वाली प्रकृति को भगवान ने अपरा अर्थात जड़ प्रकृति  कहा है। और इससे दूसरी को जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है वह जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति है। जैसे किसी यंत्र को काम करने के लिए बिजली रूपी शक्ति की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जड़ प्रकृति के अंश शरीर को कार्य करने के लिए चेतन (प्राण) शक्ति की आवश्यकता है। जब तक प्राण शक्ति हमारे अंदर हैं तब तक ही हमारा शरीर कार्य करता है उसके निकल जाने के बाद यह हिल भी नहीं सकता। अर्थात हमारा वास्तविक स्वरूप (आत्मा) जो ईश्वर का अंश है उसी की शक्ति के द्वारा हमारा शरीरबुद्धिइंद्रियाँ आदि कार्य करती हैं। तब यदि हम यह मान लें कि इस सबका कर्ता मैं ही हूँ तब यह हमारा अज्ञान ही है। अतः हम अपना शास्त्रविहित  नियत कर्म स्वार्थ रहित होकरनिर्लिप्त और  निष्काम भाव से अपने अंतःकरण द्वारा ईश्वर को अर्पण बुद्धि से संसार की सेवा या लोकहित के लिए करते रहे। भगवान ने गीता के श्लोक 5/10 कहा है कि जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होता 

(2)    जो भगवान के परायण हो अर्थात भगवान को ही परम आश्रय या एकमात्र शरण लेने योग्य मानता हो। अर्थात जो संसार का आश्रय ना लेकर केवल एकमात्र भगवान का ही आश्रय लेता हो जिसका वह अंश है और अंत में उसी में मिल जाना हैवह तो उससे अनन्त जन्मों से बिछड़ने के कारण उसे भूल गया है और अपने को शरीर मानकर उससे बँधकर बार-बार अनेकों शरीरों में आता जाता रहता है। श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में भगवान श्री कृष्ण उद्धव जी से कहते हैं कि शरीर एक वृक्ष हैइसमें हृदय का घोंसला बनाकर जीव और ईश्वर नाम के दो पक्षी रहते हैं। वे दोनों चेतन होने के कारण समान है और कभी ना बिछड़ने के कारण सखा है। इनके निवास करने का कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होने पर भी जीव तो शरीर रूपी वृक्ष के फल सुख दुख आदि भोगता है परंतु ईश्वर उन्हें न  भोगकर कर्मफल सुख-दुख आदि से असंग और उनका साक्षी मात्र रहता है। अभोक्ता होने पर भी ईश्वर की यह विलक्षणता है कि वह ज्ञानऐश्वर्यआनंद और सामर्थ्य आदि में भोक्ता जीव से बढ़कर है। साथ ही एक विलक्षणता यह भी है कि  अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक स्वरूप और इसके अतिरिक्त जगत को भी जानता है परंतु भोक्ता जीव  न अपने वास्तविक स्वरूप को जानता है और न अपने से अतिरिक्त को। इन दोनों में जीव तो अविद्या से युक्त होने के कारण नित्यबद्ध  है और ईश्वर विद्यास्वरूप होने के कारण नित्यमुक्त हैं। ज्ञान संपन्न पुरुष भी मुक्त ही है जैसे स्वप्न टूट जाने पर जगा हुआ पुरुष स्वप्न के शरीर से कोई संबंध नहीं रखता वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म और स्थूल शरीर में रहने पर भी उनसे किसी प्रकार का संबंध नहीं रखता। परंतु अज्ञानी पुरुष वास्तव में शरीर से कोई संबंध न रखने पर भी अज्ञान के कारण शरीर में ही स्थित रहता है जैसे स्वप्न देखने वाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वप्न के शरीर से बँध जाता है। व्यवहारादि इंद्रियां शब्दस्पर्श आदि विषयों को ग्रहण करती है क्योंकि यह तो नियम ही है कि गुण ही गुणों को ग्रहण करते हैंआत्मा नहीं। इसलिए जिसने अपने निर्विकार आत्मस्वरूप को समझ लिया है वह उन विषयों के ग्रहण त्याग में किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता। यह शरीर प्रारब्ध के अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं सब गुणों की प्रेरणा से ही होते हैं। अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपने को उन ग्रहण त्याग आदि कर्मों का कर्ता मान बैठता है। और इसी अभिमान के कारण वह बँध जाता है। जिनके प्राणइंद्रियांमन और बुद्धि की समस्त चेष्टाएं बिना संकल्प के होती है वे देह  में स्थित रहकर भी उसके गुणों से मुक्त है।

(3)    जो भगवान का भक्त होअर्थात भगवान के अलावा किसी अन्य का चिंतन न करता हो। भगवान के गीता के श्लोक 12/13 में भक्त के लक्षण बताये हैं कि जो पुरुष सब भूतों में द्वेषभाव से रहितस्वार्थरहितसबका प्रेमीऔर हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहितसुख-दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है तथा जो योगी निरंतर संतुष्ट होमन, इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किये हुए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।(4)    जो आसक्ति से रहित हो अर्थात् निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा अपने कर्त्तव्यकर्म को करता हो। क्योंकि भगवान ने गीता के श्लोक 3/19 में कहा है कि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

(5) जो किसी भी प्राणी के साथ वैरभाव न रखता हो अर्थात् सभी में परमात्मा को ही दर्शन करता हो और सभी के साथ द्वेषभाव से रहित हो। हम देखते हैं कि यदि कोई हमारा अहित करता है या हमें दुख पहुँचाता है उसके साथ हम द्वेषभाव रखने लग जाता है, वह हमें बुरा लगता है।

 

अध्यात्मरामायण में आता है

सुखस्य दुखस्य न कोअपि दाता

परो ददातिती कुबुद्धिरेषा।

अहं करोमीति वृथाभिमानः

स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः।।

    सुख या दुख को देने वाला कोई और नहीं है। कोई दूसरा सुख-दुख देता है यह समझना कुबुद्धि है। मैं करता हूँ- यह वृथा अभिमान है, क्योंकि लोग अपने-अपने कर्मों की डोरी से बँधें हुए हैं।

    इसलिए हमें यह समझना चाहिए कि हमारे द्वारा पूर्व में किये हुए ही संचित कर्म हमारे सामने प्रारब्ध (सुख-दुख) के फल रुप में आ रहे हैं, दूसरा तो केवल उसमें निमित्त बन कर आ गया है। अतः उससे हम क्यों द्वेष या वैरभाव रखें।

    उपर्युक्त लक्षणों से युक्त पुरुष भगवान को प्राप्त हो जाता हैऐसा भगवान ने कहा है। हमें भी भगवान द्वारा बतलाये गए मार्ग पर चलने का प्रयास करते रहना चाहिएअपने सभी कर्म भगवान को अर्पण बुद्धि से करने का प्रयास करें उनमें आसक्ति न रखेंभगवान के द्वारा दिये गये कर्म को उन्हीं के द्वारा दिये गये शरीर और इन्द्रियों द्वारा, उन्हीं की प्रसन्नता के लिए, पूर्ण निष्काम भाव से, कर्तापन के अभिमान से रहित होकरकोई फल की इच्छा या कामना न रखते हुएलोकहित की दृष्टि से करते रहें उससे हमारा अन्तःकरण शुद्ध होकर हमें आत्मज्ञान प्राप्त होगाजिससे हम संसार के आवागमन से मुक्त हो जायेंगें।

 

                                                                             धन्यवाद

  डॉ. बी. के. शर्मा

Monday, June 22, 2020

शांति प्राप्त पुरुष के लक्षण - 22.06.2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान


भगवान ने गीता के अध्याय चार के श्लोक 39 में भगवतप्राप्त रुप शांत पुरुष के लक्षण बताये हैं।


श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।

ज्ञानं लब्ध्वा परां शांन्तिमचिरेणाधिगच्छति।।


जितेन्द्रिय, साधन परायण ओर श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है। तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरुप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।


भगवान ने भगवत्प्राप्तरुप परम शांति को प्राप्त पुरुष के तीन प्रमुख लक्षण बताये हैं (1) वह जितेन्द्रिय हो, अर्थात् जिसने अपनी इन्द्रियों पर संयम प्राप्त कर लिया है (2) साधन परायण हो, अर्थात् अपने साधन में तत्परता से लगा रहता है (3) श्रद्धावान हो, अर्थात् उसे गुरु, शास्त्रों एवं वेदान्त वाक्यों में पूर्ण विश्वास है। इन तीनों के प्राप्त होने पर उस मनुष्य को आत्मतत्व का ज्ञान हो जाता है, उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है और वह उसी क्षण भगवत्प्राप्तिरुप परम शांति को प्राप्त हो जाता है।


भगवान ने इस श्लोक में सर्वप्रथम हमें इन्द्रिय संयम के  विषय में कहा है। जैसा की हम जानते हैं कि हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है, श्रोत्र(कान), त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण (नासिका)। श्रोत्र का विषय शब्द ग्रहण, त्वचा का विषय स्पर्श ग्रहण, नेत्र का विषय रुप ग्रहण, रसना या जीभ का विषय रसग्रहण तथा नासिका का विषय गन्ध ग्रहण है। अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच विषय शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध है। जैसा कि उपनिषद में आता है कि हमारे शरीर रुपी रथ में हमारी इन्द्रियाँ ही घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है और जीव (स्वयं) ही इस रथ में सवार होकर इस संसार की यात्रा कर रहा है। यदि इस रथ का सारथी (बुद्धि), लगाम (मन) द्वारा घोड़ों (इन्द्रियाँ) को वश में नहीं रखेगा। तब यह इन्द्रियाँ रुपी घोड़े बेकाबू होकर रथ(हमें) को ही कहीं गड्डे में गिरा देगें। हम देखते हैं कि हमारी इन्द्रियाँ विषयों की तरफ भागती रहती हैं यदि हम मन और बुद्धि द्वारा अपनी इन्द्रियों पर संयम नहीं रखेंगें तब यह हमें शांति से बैठने भी नहीं देगी। भगवान ने गीता के श्लोक (3/42) में इन्द्रियों को स्थूल शरीर से बलवान और सूक्ष्म कहा है, इन इन्द्रियों से श्रेष्ठ (बलवान) मन है और मन से भी श्रेष्ठ बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्पन्त श्रेष्ठ है वह आत्मा है। अर्थात हमें आत्मा में स्थित होकर अपनी बुद्धि से मन को वश में करके, फिर मन द्वारा इन्द्रियों को संयम में रखना चाहिए।


महाभारत के शांतिपर्व में आता है कि भगवान वेदव्यास जी शुकदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते हुए कहते हैं कि जैसे पिता अपने छोटे बच्चे को काबू में रखना है उसी प्रकार मनुष्य को बुद्धि के बल से अपनी इन्द्रियों का यत्नपूर्वक संयम करना चाहिए। मन और इन्द्रियों की एकाग्रता ही सबसे बड़ी तपस्या है यही सबसेश्रेष्ठ धर्म है। मनसहित इन्द्रियों को बुद्धि में स्थापित करके अपने आप में ही सन्तुष्ट रहे, नाना प्रकार के चिन्तनीय विषयों का चिन्तन न करें। जिस समय ये इन्द्रियाँ अपने विषयों से हटकर बुद्धि में स्थित हो जायेगी उसी समय तुम्हे सनातन परमात्मा का दर्शन होगा।


दूसरी बात भगवान साधन परायण के विषय में कहते हैं, अर्थात जब मनुष्य अपनी इन्द्रियों पर संयम प्राप्त कर लेता है और उन्हें विषयों या भोगों से हटा कर अपने वश में रखता है, तब वह अपने साधन में तत्परता से लग जाता है। उदाहरण के लिए जब मनुष्य कोई व्यापार आदि करता है और उसमें धन कमाता है, तब वह व्यापार में पूरी तत्परता से लग जाता है उसे भूख-व्यास या अपने आराम की भी चिन्ता नहीं रहती, उसकी दृष्टि केवल धन कमाने में ही लगी रहती है।


तीसरी बात भगवान ने श्रद्धा के विषय में बताई है। तत्वबोध में भगवान शंकराचार्य श्रद्धा के बारे में कहते हैं ‘‘श्रद्धा का? गुरुवेदान्तवाक्येषु विश्वासः’’। अर्थात गुरु (महापुरुष) ओर वेदान्त (शास्त्रों) वाक्यों में दृढ़ विश्वास श्रद्धा है। जब साधक शास्त्रों में बताये गये सिद्धान्तों पर अपनी पूरी श्रद्धा या विश्वास रखकर उनका पालन करते हुए अपनी इन्द्रिय संयम करके अपने साधन में तत्परता से लग जाता है तब उसे वह आत्मज्ञान प्राप्त होता है जिससे उसे परम शान्ति प्राप्त होती है। जिस शान्ति को वह बाहर संसार में अनेक स्थानों पर या पदार्थों (विषयों) में खोजता है और कभी –कभी उसे क्षणिक रुप से वह मिल भी जाती है लेकिन कुछ समय के बाद फिर वह अशांत हो जाता है। ज्ञान होने पर उसे वह शान्ति अपने अंदर ही प्राप्त होती है, चूँकि संसार तो परिवर्तनशील है, हर क्षण बदल रहा है, जबकि हमारा वास्तविक स्वरुप तो परमशांत और सदा एकसा रहता है। जन्म और मृत्यु तो शरीर की होती है, यह जन्म से लेकर आजतक कितना बदल गया है लेकिन इसको देखने वाले हम स्वयं वहीं रहते हैं। भगवान गीता के श्लोक (2/20) में कहते हैं कि यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है, तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। ऐसा ज्ञान होने पर मनुष्य शान्ति को प्राप्त होता है।


जब साधक (मनुष्य) शास्त्रों और महापुरुष के वाक्यों पर पूरी श्रद्धा रखते हुए, अपनी इन्द्रिय संयम द्वारा पूरी तत्परता से अपने साधन (कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग) में लग जाता है तब भगवान गीता के श्लोक (10/11) में कहते हैं कि उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अन्तःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रुप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ। अर्थात ऐसा मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होकर तत्काल ही भगवत्प्राप्ति रुप परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है।

                                                            

धन्यवाद

                                                      डॉ. बी. के. शर्मा

Thursday, June 18, 2020

कर्मयोग के द्वारा अन्तःकरण का शुद्ध होना - 19.6.2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

 

भगवान ने गीता के अध्याय चार के श्लोक 38 में कर्मयोग के महत्व के विषय में कहा है -

        हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

      तत्स्वयं योगसंसिद्ध कालेनात्मनि विन्दति।।

इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है।

कर्म करने में तीन प्रकार से प्रेरणा मिलती हैपहले तो मन में नाना प्रकार के भाव उठते हैं, फिर बुद्धि निश्चय करती हैउसके पश्चात हृदय उनकी अनुकूलता और प्रतिकूलता का विचार करता है। इसके बाद हमारी कर्म में प्रवृत्ति होती है। गीता के श्लोक 6 /1 में भगवान कहते हैं कि जो पुरुष कर्मफल का आश्रय ना लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह सन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है। जब हम अपने अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) में समत्व (समता) भाव रखकर कर्म करते हैं तब यह कर्म योग हो जाता है। समत्व ही योग कहलाता है “ समत्व योग उच्यते ”। यह समत्वरुप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबंधन से छूटने का उपाय है। कर्मयोग में त्याग मुख्य है, अर्थात् कर्म करते हुए फल की इच्छा का त्याग, कामना और ममता का त्याग, राग-द्वेग का त्याग, कर्तापन के अभिमान का त्याग आदि। भगवान ने गीता के श्लोक 2/51 कहा है कि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बन्धन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते हैं।

इस प्रकार कर्म करने से अर्थात् कर्मयोग द्वारा हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त आदि) शुद्ध हो जाता है, और हमारा अज्ञान कि मैं शरीर हूँ, मैं ही कर्म कर रहा हूँ, आदि दूर हो जाता है, और आत्मा जो कि ईश्वर का अंश है, ज्ञान स्वरूप है, सत्य है, अनन्त है, हमारा वास्तविक स्वरुप है, वह ज्ञान (विवेक) हमारे अंदर प्रकट हो जाता है। भगवान गीता के श्लोक 4/37 में कहते हैं कि जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देती है, अर्थात् ऐसा मनुष्य संसार में रहता हुआ कर्म करता हुआ भी कर्मबन्धन से मुक्त रहता है और उसे तत्वज्ञान प्राप्त हो जाता है जिससे वह जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाता है।

महाभारत के शांतिपर्व में भगवान वेदव्यास जी, शुकदेव जी को आध्यात्मज्ञान का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मनुष्य के शरीर में पाँच इन्द्रियाँ हैं (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण), छठा तत्व मन है, सातवां तत्व बुद्धि है और आठवां क्षेत्रज्ञ (आत्मा) है। आँख देखने का काम करती है, मन संदेह करता है, और बुद्धि उसका निश्चय करती है किंतु क्षेत्रज्ञ (आत्मा) उन सब का साक्षी कहलाता है। मनुष्य जब किसी बात की इच्छा करता है तो उसकी बुद्धि मन के रूप में परिणत हो जाती है। नेत्र आदि इन्द्रियाँ अलग-अलग प्रतीत होने पर भी बुद्धि में ही स्थित है, इन सबको अपने अधीन रखना चाहिए, क्योंकि जब मनुष्य अपनी इन्द्रियों को अच्छी तरह से वश में कर लेता है तो जिस प्रकार दीपक के प्रकाश में किसी वस्तु का आकार स्पष्ट दिखाई देता है उसी प्रकार उसे ज्ञानलोक में आत्मा का साक्षात दर्शन होता है। जैसे अन्धकार नष्ट होने पर सबको प्रकाश दिखलाई देता है उसी प्रकार अज्ञान का नाश होने पर ज्ञान स्वरूप आत्मा का साक्षात्कार होने लगता है। जैसे जल में रहने वाला पक्षी जल में विचरता हुआ भी उससे निर्लिप्त रहता है उसी प्रकार कर्मयोगी संसार में रहता हुआ भी कर्मदोष से मुक्त ही रहता है। व्यास जी कहते हैं जैसे तैरने की कला न जानने वाला मनुष्य यदि भरी हुई नदी में कूद जाता है तो वह गोते खाते हुए दुख उठाता है उसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य इस संसार सागर में डूबकर कष्ट भोगते रहते हैं किंतु जो तैरना जानता है वह जल में भी स्थल की भांति चलता है, उसी प्रकार ज्ञान स्वरूप आत्मा को प्राप्त हुआ तत्ववेत्ता पुरुष संसार सागर से मुक्त हो जाता है। मन और इन्द्रियों का संयम तथा आत्मा का ज्ञान ये मोक्ष प्राप्ति के लिए पर्याप्त साधन है। कर्मपरायण मनुष्य निष्कामभाव से जिस कर्म का अनुष्ठान करते हैं वह पहले के किए हुए सकाम कर्मों को नष्ट कर देता है, किंतु जो ज्ञानी है उसके इस जन्म या पूर्वजन्म के लिए हुए कर्म उसका भला या बुरा कुछ भी नहीं कर सकते।

अतः निष्कामभाव से कर्म करते हुए हमारा अन्तःकरण शुद्ध होकर हम आत्मभाव में स्थित होकर वह ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं जिसके समान इस संसार में पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं है और उस आत्मज्ञान के द्वारा हमारे सभी कर्म भस्म हो जाते हैं अर्थात् हम कर्मबन्धन से मुक्त होकर इस संसार के अवागमन से छूट जाते हैं।

                 

                                                            धन्यवाद

डॉ. बी. के. शर्मा

Monday, June 15, 2020

कर्म अकर्म और विकर्म - 15 June 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान 

भगवान गीता के अध्याय चार के श्लोक 18 मे बुधिमान मनुष्य जो कर्म और अकर्म को यथार्थ रूप से जानता है के विषय मे कहते है:- 

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुधिमान्मनुषयेषु स युक्त: कृत्सरकर्मकृत ।।

जो मनुष्य कर्म मे अकर्म देखता है और जो अकर्म मे कर्म देखता है, वह मनुष्यो मे बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मो को करने वाला है ।

हम शरीर, इन्द्रिया, मन और वाणी द्वारा जो क्रिया करते है वह कर्म की श्रेणी मे आता है । कर्म का करना और ना करना कर्ता के अधीन है । भगवान ने गीता के श्लोक 18/23 मे कहा है कि जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ हो और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल ना चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो - वह सात्विक कहा जाता है । गीता मे भगवान योग मे स्थित होकर कर्तव्यकर्मों को करने के लिये कहते है "योगस्थ: कुरु कर्माणि" और कहते है समत्व ही योग कहलाता है । "समत्व योग उच्यते" यह समत्वरूप योग ही कर्मो मे कुशलता है "योग: कर्मसु कौशलम"। अत: जब हम समत्वरूप योग मे स्थित होकर कर्म करते है तब ही वह कर्मयोग कहलाता है ।।

जब कर्म करते हुए कर्ता के अन्त:करण मे फल की इच्छा, कामना, ममता और आसक्ति आदि नही होते तब उसके द्वारा शास्त्र विधि से किये गये नियत कर्म 'अकर्म' हो जाते है अर्थात वह बंधनकारी नही होते और ऐसा कर्ता कर्म करते हुए भी मुक्त ही रहता है । अर्थात कर्म से जीव बंधता है लेकिन अकर्म से जीव मुक्त होता है ।  कर्मो मे लिप्तता अर्थात ममता, फल की इच्छा, आसक्ति आदि ही बन्धकारी है और कर्म करते समय उनमे निर्लिप्त भाव रखना अर्थात  कोई कामना या आसक्ति आदि ना रखकर केवल संसार के हित के लिये अपने कर्तव्य कर्म करना ही कर्म करते हुए उनसे मुक्त होता है । निर्लिप्त भाव से कर्म करने से हमारा अन्त:करण शुद्ध हो जाता है और हमे ज्ञान हो जाता है कि सब कर्म तो शरीर और इन्द्रियो से हो रहे है अर्थात प्रकृति के गुणो द्वारा ही हो रहा है, मेरा वास्तविक स्वरूप जो कि ईश्वर का अंश है, वह आत्मा तो निर्गुण है, निर्लिप्त है, उसमे तो कोई कर्म होता ही नही है वह तो साक्षी भाव से केवल देख रहा है और जीव भाव से हम सुख दुख का भोग कर रहे है, जब जीव भाव समाप्त होकर वह आत्मा के साथ एकीकार कर लेता है तब तो वह अकर्ता है । अत: बुद्धिमान पुरुष कर्म मे अकर्म और अकर्म मे कर्म देखता है ।

भगवान शंकराचार्य अपने भाष्य मे कहते है कि जब हम नदी मे नाव द्वारा यात्रा करते है तब नदी के तट पर स्थित वृक्ष विपरीत दिशा मे चलते हुए दिखाई पडते है । ऐसा हमारी गति के कारण होता है कि स्थिर वस्तु भी जिसमे कोई क्रिया नही हो रही है वह भी गतिशील लगती है । इसी प्रकार हम भी अपने शरीर द्वारा कर्म के समय जो चेष्टा करते है उसे अपनी आत्मा मे आरोपित करके उसके द्वारा होते हुए जान लेते है । ज्ञान होने पर यह भ्रान्ति दूर हो जाती है । कर्म का उसके फल का, भोग का आदि और अंत है, लेकिन हमारा अपना वास्तविक स्वरूप अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है । शरीर की मृत्यु के बाद भी यह नही मारा जाता और ना ही इसका जन्म होता है । कर्म के साथ अपना सम्बंध बनाने के कारण ही हम उस से बन्धकर बार बार जन्म- मृत्यु के चक्र मे पडे रह्ते है ।

जो कर्म शास्त्रविरुद्ध हो अर्थात जिसका शास्त्रो मे निषेध कहा गया है वह विकर्म कहलाता है । विकर्म के होने मे मूल कारण कामना का होता है । जब हम कामना रखकर की मुझे इस कर्म से बहुत धन की प्राप्ति होगी और फिर भोग भोगूंगा, कोई व्यापार या नौकरी करते है तब हम अपनी कामना की पूर्ति के लिये कुछ भी गलत काम करते है, यह जानते हुए भी कि यह फल तो कुछ समय के बाद नष्ट हो जायेगा लेकिन यह किया गया विकर्म उसके अंत:करण मे संचित कर्म के रूप मे रह जायेगा और फिर इस जन्म या अगले जनम मे प्रारब्ध रूप से उसे ही भोगना पडेगा । 

भगवान गीता के श्लोक 4/17 मे कहते है कि कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिये, क्यूंकि कर्म की गति गहन है  "गहना कर्मणो गति:"। अत: भगवान ने गीता मे जो हमे कर्म, अकर्म और विकर्म के विषय मे बताया है उस पर भली भान्ति विचार करके हमे अपने कर्तव्यकर्म पुर्ण निष्ठा, इमानदारी के साथ और कामना, ममता और आसक्ति से रहित होकर करने चाहिये ताकि हम कर्म करते हुए उनसे मुक्त हो सके ।


 धन्यवाद
     🎊 बी.के. शर्मा 

Friday, June 12, 2020

बुद्धिमान पुरुष के लक्षण - 11 जून 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

     🌹गीता महात्म में आता है कि जो महाभारत का अमृतोपन सार है तथा जो भगवान श्री कृष्ण के मुख से प्रकट हुआ है, उस गीता रूप गंगाजल को  पी लेने पर पुनः इस संसार में जन्म नहीं देना पड़ता ।  मेरे विचार में गीता रूप गंगा जल को पी लेने का अर्थ है कि भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर जो गीता का उपदेश दिया था उसको यदि हम अपने दैनिक व्यवहार के उपयोग में लाएं और हमारे कर्म भी गीता में बतलाए गए तरीकों के अनुसार हो तब जैसे कमल का पत्ता जल में ही उत्पन्न होकर, जल में ही रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही कर्म योगी भी सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके, और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता हुआ पाप से लिप्त नहीं होता ।(गीता 5/10)

      🌹महाभारत के आदिपर्व में आता है कि ब्रह्मा जी के कहने से महर्श्रि वेदव्यास जी ने भगवान गणेश जी से महाभारत ग्रंथ का लेखक बनने की प्रार्थना की। इस पर गणेश जी ने एक शर्त रखी  कि यदि लिखते समय  क्षण मात्र के लिए भी मेरी लेखनी न रुके तो मैं इस ग्रंथ का लेखक बन सकता हूं । वेदव्यास जी ने भी गणेश जी के सामने यह शर्त रखी कि आप भी बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी ना लिखें। गणेश जी ने इसे स्वीकार कर लिया और महाभारत लिखने बैठ गए। लिखवाते समय बीच-बीच में वेदव्यास जी ऐसे ऐसे गूढ अर्थ वाले श्लोक बोल देते थे, जिन्हें समझने के लिए गणेश जी को थोड़ा रुकना पड़ता था । उतने समय में वेदव्यास जी और बहुत से श्लोकों की रचना कर लेते थे।  गीता भी महाभारत ग्रन्थ के अंतर्गत ही आती है , बाद में उन स्लोको  को महाभारत ग्रंथ से निकालकर अलग से गीता ग्रंथ बनाया गया ताकि सभी मनुष्य गीता का अध्ययन कर सकें और उसे अपने व्यवहार में ला सकें।जरा विचार करें कि गीता जोकि साक्षात कमलनाथ भगवान विष्णु के मुख कमल से महाभारत के युद्ध प्रारंभ होने से पहले प्रगट हुई है । और बाद में महर्षि वेदव्यास जी ने जब महाभारत ग्रंथ की रचना की तो स्वयं  भगवान गणेश जिसके लेखक थे , ऐसा महानतम  गीता ग्रंथ आज हमें प्राप्त है इससे बड़ा हमारा क्या सौभाग्य हो सकता है।

          🌹भगवान गीता के अध्याय 4 के श्लोक 19 में तत्व ज्ञानी या बुद्धिमान पुरुष के लक्षण बताते हैं:-

यस्य सर्वे समारम्भा  कामसंडकल्प वर्जिता: ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा: ।। 🎊

        🌹 जिसके संपूर्ण शास्त्र सम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञान रूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित (बुद्धिमान )कहते हैं। 

       🌹भगवान ने बुद्धिमान पुरुष के 3 लक्षण बताए हैं 

1)  जिसके संपूर्ण कर्म शास्त्र सम्मत हों । अर्थात जैसी कर्म करने की विधि भगवान ने गीता में बताई है और अन्य शास्त्रों में वर्ण , आश्रम , परिस्थिति के अनुसार जीविका और व्यवसाय आदि के विषय में बताई गई हैं उसी के अनुसार वह कर्म करता है। उससे शास्त्रनिषिध कोई भी कर्म नहीं होता। वह केवल शास्त्र सम्मत कर्म ही करता है।

2 ) उसके सभी शास्त्र सम्मत कर्म कामना और संकल्प से रहित ही होते हैं । जैसा कि भगवान ने गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 62 में बताया है कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष को उन विषयों में आसक्ती हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है । अतः यदि हम देखें कि हमारा मन विषयों का चिंतन हमेशा करता है , मन का काम ही संकल्प - विकल्प करना है ।यह तो अभ्यास से ही वश  में किया जा सकता है । जब मन द्वारा हम किसी विषय का बार-बार चिंतन करते हैं तब  यदि हमारी बुद्धि भी उस विषय या संकल्प को पूरा करने का निश्चय कर ले तब उसमें हमारी ममता या आसक्ति के कारण उस कर्म को करने की कामना उत्पन्न हो जाती है । अतः पहले संकल्प पैदा होता है और वहीं  कामना का कारण है ।  कामना तो संकल्प को पूरा करने का कार्य है । अतः सकाम पुरुष केवल संकल्प को पूरा करने के लिए कामना करके कार्य करता है और इसी कारण ओर कर्म अर्थात संकल्प और कामना के बंधन में पड़ जाता है। भगवान ने श्लोक  18/23  में कहा है कि जो कर्म शास्त्र  विधि से नियत  किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-  द्वेष के किया गया हो वह सात्विक कर्म कहा गया है।  और श्लोक  2/71 में भगवान कहते हैं कि जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर, ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है वही शांति को प्राप्त होता है ।अतः बुद्धिमान मनुष्य शास्त्र सम्मत कर्म संकल्प और कामना को त्याग कर लोक हित में करता है उसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं होता वह निर्लिप्त होकर अपने कर्म करता है। 

3)  उसके समस्त कर्म ज्ञान रूप अग्नि के द्वारा भस्म अर्थात समाप्त हो जाते हैं ।  जब मनुष्य को यह ज्ञान हो जाता है कि कर्म तो मन ,बुद्धि,  इंद्रियां अर्थात शरीर द्वारा संसार के लिए हो रहे हैं इनका आरंभ और अंत होता है , लेकिन उसका वास्तविक स्वरूप जो आत्मा है वह तो इस शरीर में रहते हुए भी इस से पृथक और अकर्ता है ,  वह तो सब से निर्लिप्त रहता है ,  वह तो ईश्वर का अंश है। इस प्रकार परमात्मा के ज्ञान होने को यहां पर ज्ञान रूप अग्नि कहा है।  जैसे अग्नि सब को जलाकर भस्म कर देती है इसी प्रकार यह ज्ञान रूपी अग्नि भी समस्त कर्मों को भस्म कर देती है।

  🌹इसलिए बुद्धिमान पुरुष कर्मों में ममता ,आसक्ती,  फल की कामना ,कर्तापन का अभिमान आदि ो न रखते हुए दूसरों के हित या लोकहित के लिए अपने कर्तव्य कर्म निस्वार्थ भाव से एवं उनमें निर्लिप्त और समान भाव रखते हुए इस  संसार में शरीर और इंद्रियों द्वारा करते रहते हैं । उनका अंतःकरण शांत रहता है चूंकि वह अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए संकल्प और कामना से रहित होकर शास्त्र सम्मत कर्म करते हैं।  इस तरह कर्म करने पर उसका अंतःकरण शुद्ध हो जाता है और शुद्ध अंतरण हुआ मनुष्य उस ज्ञान को अपने आप ही आत्मा में पा लेता है ऐसा भगवान ने गीता के श्लोक 4/38 में कहा है।

 धन्यवाद
     🎊 बी.के. शर्मा 🎊

Monday, June 1, 2020

कर्म योग का महत्व - दिनांक 1 जून 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

भगवान गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 40 में कर्म योग का महत्व बताते हुए कहते हैं:-

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। 👑

    🌹इस कर्म योग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है, और उल्टा फल रूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन जन्म मृत्य रूप महान भय से रक्षा कर लेता है।

    🌹भगवान ने गीता का उपदेश अर्जुन को महाभारत के युद्ध शुरू होने से पहले जब अर्जुन को कौरवों की सेना में अपने सगे संबंधियों को देखकर मोह हो गया कि मुझे इन्हें युद्ध में मारना है और युद्ध न करने की इच्छा करने लगा। गीता के उपदेश से और भगवान की कृपा से अर्जुन का मोह नष्ट हो गया और वह संशय रहित होकर अपने कर्तव्य कर्म पर लग गया। अतः भगवान द्वारा गीता में अनेकों  श्लोकों में हम सभी मनुष्यों को अपना शास्त्र विधि से नियत किया हुआ कर्तव्य कर्म बिना आसक्ति के कामना रहित होकर ,निस्वार्थ भाव से  करते रहने का उपदेश दिया है। यदि हम कर्म करते हुए अपने अंतःकरण में समता का भाव अर्थात जय -पराजय , लाभ- हानि , सिद्धि -असिद्धि आदि में समान भाव रखेंगे तब ऐसा कर्म ही कर्म योग हो जाता है। समत्व ही योग कहलाता है- "समत्व योग उच्यते" । गीता में भगवान ने समान भाव (समता ) की बहुत महिमा बताई है।गीता के श्लोक 5/19 में भगवान कहते हैं कि जिसका मन समभाव में स्थित है उसके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वह ब्रह्म में ही स्थित है। सम बुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। समत्व रूप योग ही कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।

    🌹यदि मनुष्य इस कर्म योग अर्थात समता में  स्थित होकर निष्काम भाव से अपना कर्तव्य कर्म आरंभ कर दे और यदि किसी कारणवश उससे इसका त्याग हो गया तब भी उस कर्म योग के संस्कार उसके अंतः करण में संचित हो जाएगें और यदि इस जन्म में नहीं तब अगले जन्म में भी वह फिर अपने संचित कर्म द्वारा उस कर्म योग का आरंभ कर देगा, वह व्यर्थ नहीं जाएगा। इसी प्रकार से उसने जो कर्म योग का आरंभ किया था,  उसमें कोई कामना नहीं थी फल की इच्छा नहीं थी, निस्वार्थ भाव से शुरू किया था, अतः  उसका विपरीत फल भी नहीं होता। चूंकि यदि हम फल की इच्छा से या कामना रखते हुए कोई यज्ञ दान तप आदि करते हैं तब वह यदि विधिपूर्वक न किया हो तब उसका विपरीत फल भी मिल जाता है। लेकिन यदि हमारी कोई कामना हीं ना हो तब हमें विपरीत फल भी नहीं मिलता।भगवान शंकराचार्य अपनी भाष्य में कहते हैं कि जैसे हम खेत में बीज डालकर छोड़ दें, बाद में उसकी देखभाल ना करें तब उसका नाश हो जाता है। उसी प्रकार कभी-कभी रोग नाश के लिए ली गई औषधि अनुकूल ना होने पर रोग को बड़ा देती है और उसका उल्टा फल हो जाता है । लेकिन कर्म योग के आरंभ का बीज की तरह नाश नहीं होता और औषधि की तरह विपरीत फल भी नहीं होता। अर्थात निष्काम कर्म का परिणाम बुरा नहीं होता।

    🌹अतः यदि कर्म योग रूप धर्म का थोड़ा सा भी साधन मनुष्य आरंभ कर दे तब भी जन्म मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है , तब इसके पूर्ण साधन द्वारा तो मनुष्य उसी क्षण परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । सकाम भाव से अर्थात कामना रखते हुए किए गए दान , यज्ञ और अन्य कर्म हमारा संसार से उध्दार नहीं कर सकते, वह अपना फल देकर नष्ट हो जाएंगे और हम उस फल का भोग करके मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे,  इस क्रम का तो कभी अंत ही नहीं होगा। और यदि समभाव में स्थित होकर हम अपने कर्तव्य कर्म निष्काम भाव से करें तब हमारा उद्धार होकर परम गति को प्राप्त हो जाते हैं । अतः  हम भगवान द्वारा बताए गए रास्ते पर चलने का प्रयास तो शुरू करें अपने अंतःकरण में समभाव लाकर , निष्काम भाव और स्वार्थ रहित होकर,  बिना किसी कामना के अपना कर्तव्य कर्म का आरंभ तो करें , शुरू में तो हम इससे विचलित हो सकते हैं लेकिन दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा हम प्रयास करते रहे।  अंत में हम सफल होंगे और स्वयं ही अपना इस संसार सागर से उद्धार कर सकते हैं । भगवान ने गीता में जो हमें मार्ग बताया है उसे केवल पढ़कर ही नहीं छोड़ देना है,  परंतु उस पर चलने का अभ्यास शुरू करना है इसी में हम सब का कल्याण निहित है और हमारा मनुष्य जन्म लेना भी सफल हो जाएगा।

      धन्यवाद🙏
      बी. के. शर्मा