आत्मदर्शन
हम सब जानते हैं कि मनुष्य जन्म बहुत ही
दुर्लभ है ओर
लाखों योनियों के
पश्चात् हमे यह
मनुष्य जन्म मिला है। मनुष्य जन्म हमें ईश्वर ने
कृपा करके एक
उद्देश्य की पूर्ति हेतु दिया है।
देवता भी स्वर्ग में अपना समय
पूरा होने पर
एक ही इच्छा करते हैं कि
हमे उत्तरी भारत में मनुष्य जन्म मिले जहा भगवान राम और कृष्ण ने जन्म लिया और बहुत सी
लीलाए की। लेकिन बहुत ही आश्चर्य की बात है
कि जब हम
गर्भ में होते हैं तब ईश्वर की स्तुति करते हैं, उसे याद
करते हैं, बचन
देते हैं कि
तुम्हारी भक्ति करूंगा, लेकिन जैसे ही जन्म लेते हैं संसार की
माया हमें घेर
लेती है और
उसमें ऐसे फॅस
जाते हैं कि
अपने प्रमुख उद्देश्य को ही भुल
जाते हैं और
फिर मृत्यु के
पश्चात् याद आती
है कि हमने किया क्या। कभी-कभी ईश्वर फिर
दया करके एक
मौका और देते हैं अन्यथा फिर
हम लाखों योनियों में भटकते रहते हैं, और यही
क्रम चलता रहता है।
जरा सोचिए, कि
हम जन्म से
पहले कहां थे,
मृत्यु के पश्चात् कहां होंगे और इन कुछ
सालों में
हमें क्या करना था और क्या सही कर रहें हैं। हमें ऐसा
कुछ नहीं करना चाहिए कि मृत्यु के समय और
उसके पश्चात् पछताना पडे। आज हम
गृहस्थ घर के
कामों में इतने उलझे हुए हैं
कि अपने स्वरूप को ही भूल
गये हैं। रात
नींद या स्त्री प्रसंग में बीत
जाती है और
दिन, धन की
हाय-हाय या
कुटुम्बियों के भरण-पोषण में बीत
जाता है। संसार में जिन्हे अपना घनिष्ठ संबंधी कहा
जाता है वे
शरीर स्त्री, पुत्र आदि कुछ नहीं है, असत है।
परंतु जीव उनके मोह में ऐसा
पागल सा हो
जाता है कि
रात-दिन उनको मृत्यु का ग्रास होता देखकर भी
चेतता नहीं।
मनुष्य मन,वाणी और शरीर से
पाप करता है।
यदि वह उन
पापों का इस
जन्म में प्रायश्चित न
कर ले तो
मरने के बाद
उसे अवश्य ही
भयंकर यातना पूर्ण नरकों में जाना पडता है। इसलिए बडी सावधानी से
और सजगता के
साथ रोग और
मृत्यु के पहले ही शीघ्र से
शीघ्र पापो की
गुरूता और लघुता पर विचार करके उनका प्रायश्चित कर
डालना चाहिए जैसे मर्मज्ञ चिकित्सक रोगो का कारण और
उनकी गुरूता लघुता जानकर झटपट उनकी चिकित्सा कर डालता है।
अभी वक्त है
कि जरा अपने विषय में सोचिए। आप स्वंय ईश्वर के अॅश हैं
ईश्वर को कहीं बाहर खोजने की
जरूरत नहीं है
वह आपके अंदर है बस जरा
अपने अंदर देखने की जरूरत है।
चौबिस घण्टों में से रोज एक
घण्टा केवल अपने लिए निकालिए जहां केवल आप हो
और कोई न
हो तब धीरे-धीरे अभ्यास करके अपने अन्तःकरण में
देखिए जहां असीम शांति है, शक्ति है, गहराई है
कि आप उतरते चले जायें बाहर आने का मन ही नहीं करेगा। अपने आप में
खो जाएं अपने मन से फालतू विचारों को दूर
करें और शांत रहें और कुछ
समय के लिए
केवल मौन रहें, अपना आहार बिल्कुल शुद्ध रखें ताकि विचार ठीक रहें। शांत बैठकर कुछ देर
अपने सांस पर
ध्यान दें उसके आने और जाने पर ध्यान केन्द्रित करें, यही प्राण वायु है। जो यदि
ठीक प्रकार से
चल रही है
तो स्वास्थ्य आदि
भी ठीक रहेगा। हमारे शरीर रूपी नगरी में जिसमें नौ द्धार हैं
प्राणवायु ही राजा है। प्राण को
प्रत्यक्ष मानकर उसका अभिनंदन किया गया
है। वापोत्वं प्रत्यक्षं ब्रम्हासि (ऋगवेद) अर्थात् प्राणवायु। आप
प्रत्यक्ष ब्रम्हा हैं। मानव शरीर में
इस प्राणवायु को
मुख्यतया दस भिन्न-भिन्न नामों से
विभक्त किया गया
है। जैसे पाण,अपान,समान,उदान,व्यान,नाग,कुर्म,कृकर,देवत और
धनंजय। स्वस्थ मनुष्य का स्वर पतिदिन प्रातःकाल सूर्योदय के
समय से एक-एक घण्टे के
हिसाब से क्रमशः एक-एक नथुने से चला करता है। इस प्रकार एक दिन रात
में बारह बार
बायें से और
बारह बार दायें नथुने से क्रमानुसार सांस चलता है। शारीरिक विकार और रोग की अवस्था में स्वर अनियमित चलने लगता है।
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से तीन-तीन दिन बारी से सूर्यनाडी अर्थात् दांयी नासिका से
पहले सांस प्रवाहित होता है। यह
प्रातःकाल सूर्योदय से
शुरू होता है।
और एक-एक घण्टे बाद बदलता रहता है। इस श्वास-प्रश्वास की गति
को समझकर कार्य करने पर शरीर स्वस्थ रहता है
मनुष्य दीर्घ जीवी रहता है और
सुःख पुर्वक संसार यात्रा पूरी होती है। जिस समय
इडा नाडि अर्थात् बांई नासिका से
सांस चलता है
उस समय स्थिर कार्य करने चाहिए एवं शुभ कार्यो में सिद्धिमिलती है।
जिस समय पिंगला नाडी अर्थात् दाहिने नासिका से सांस चलती हो उस
समय कठिन कार्य करने चाहिए। दोनो नासपुटो से सांस चलने के समय
किसी प्रकार का
शुभ या अशुभ कार्य नहीं करना चाहिए, हो सके
तब भागवत स्मरण करना उचित है।
जो
मनुष्य केवल सुपथ्य का ही सेवन करता है उसे
रोग अपने वश
में नहीं कर
सकते। वैसे ही
जो मनुष्य नियमों का पालन करते हैं वह धीरे-धीरे पाप वासनाओं से मुक्त हो
कल्याण पर आत्मज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है। जैसे बांसों के झुरमुट में लगी आग
बांसों को जला
देती है वैसे ही धर्मज्ञ और
श्रद्धावान पुरूष तपस्या,ब्रम्हचर्य, इन्द्रिय दमन, मन की
स्थिरता,दान,सत्य बाहर भीतर की
पवित्रता तथा यम
एवं नियम इन
नौ साधनों से
मन, वाणी ओर
शरीर द्धारा किये गये बडे से
बडे पापों को
भी नष्ट कर
देते हैं। भगवान की शरण
में रहने वाले भक्तजन केवल भक्ति के द्धारा अपने सौ पापों को उसी प्रकार भस्म कर देते हैं जैसे सूर्य कोहरे को। यमराज जी ने श्रीमदभगवत महापुराण के छठे स्कंध के तृतीय अध्याय के 29 वें श्लोक में
यमदूतों से कहा
है-
जिहा न वक्ति भगवदुणनामधेयं
चेतक्ष न स्मरति तच्चरणारविन्दम
कृष्णाय नो नमति यध्छिर एकदापि
तानानयध्वमसतोऽकृत विष्णुकृत्यान्न
कि जिनकी जीभ
भगवान के गुणों और नामों का
उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके चरण विन्दों का
चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर
एक बार भी
भगवान श्री कृष्ण के चरणों में
नहीं झुकता उन
भगवत्सेवा विमुख पापियों को ही मेरे पास लाया करो।
गोस्वामी तुलसीदास जी
श्री रामचरित मानस के बालकांड में
भगवान के नाम
की महिमा बताते हुए कहते हैं।
नाम प्रसार संभु अविनासी।
साजु अमंगल मंगल रासी।।
सुक सनकादि सिद्धमुनि जोगी।
नाम प्रसाद ब्रह सुख भोगी।।
नाम ही के
प्रसाद से शिवजी अविनाशी है,
और अमंगल वेश
होने पर भी
मंगल की राशि है। शुकदेव जी और सनकादि सिद्ध मुनि योगी गण
नाम के ही
प्रसाद से ब्रहानंद को भोगते हैं।
तुलसीदास जी आगे कहते हैः
श्रीरामचंद के भजन बिनु जो यह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूंछ विषान।।(उत्तरकाण्ड 78/क)
श्रीरामचंद के भजन
बिना जो मोक्ष पद चाहता है
वह मनुष्य ज्ञानवान होने पर भी
बिना पूछ और
सींग का पशु
है।
भगवान राम ने काकभुशुण्डि जी
से कहा है
कि भक्ति हीन
ब्रम्हा ही क्यों न हो वह
मुझ सब जीवों के समान ही
प्रिय हैं परंतु भक्तिवाद अत्यंत नीच
भी मुझे प्राणो के समान प्रिय हैं, यह मेरी घोषण है।
भगति हीन बिरंचि किन होई।
सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।।
भगतिवं अति नीचउ प्रानी।
मोहि प्रानप्रिय असि ममवानी।। (उत्तरकाण्ड 88ख/5)
श्रीमदभागवत महापुराण के
द्धितीय स्कंध के
प्रथम अध्याय में
श्री शुकदेव जी
महाराज कहते हैं:
एतावान सांख्योगभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठय।
जन्मलाभः परः पुंसामन्ते नारायण स्मृतिः।।
अर्थात् मनुष्य का
यही इतना ही
लाभ है कि
चाहे जैसे है-ज्ञान से,भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को
ऐसा बना लिया जाये कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे।
अतः इस दुर्लभ नर देह को
पाकर और ऐसा
पुरूषत्व पाकर भी
जो मुढबुद्धि अपने आत्मा की
मुक्ति के लिए
प्रयत्न नहीं करता वह निश्चय ही
आत्मघाती है। श्रीरामचरित मानस में आया है
किः
कालिजुग सम जुग आन नहीं जौ नर कर विस्वास।
गाइ राम गुन गन विमल भव तर बिनही प्रयास।।
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैः
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेंकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
(गीता
18/66)
कि सम्पूर्ण धर्मो का आश्रय छोडकर तू केवल मेरी शरण में आजा
मै तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा। चिंता मत कर। अतः
अंत में मेरी सभी से विनीत प्रार्थना है कुछ
समय अपने लिए
निकाले, जिसमें संसार का चिन्तन छोडकर केवल आत्म चिन्तन करें और संसार दर्शन छोडकर केवल आत्म दर्शन करें और बाकी अपने आपको ईश्वर को
सौपकर, उसी प्रकार निश्चिंत हो जाएं, जैसे एक छोटा बच्चा मेले में
अपने पिता की
अंगुली पकडकर आराम से बिना चिंता के मेले में
घूमता है। ठीक
उसी प्रकार आप
ईश्वर का आश्रय लेकर आप इस
संसार में अपनी यात्रा पूरी करें।
डा बी के शर्मा
11/440, वसुन्धरा (गाजियाबाद)
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