Tuesday, December 24, 2024

शरीर और मन को भी फिट रखती है गीता


प्रत्येक मनुष्य यही चाहता है कि उसका शरीर स्वस्थ रहे और मन शांत एवं प्रसन्नता का अनुभव करे। हमारा शरीर, मन आदि इन्द्रियाँ मूल प्रकृति से उत्पन्न पंच महाभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से निर्मित हुआ है। प्रकृति परिवर्तनशील है, अतः हमारे शरीर में भी जन्म से ही परिवर्तन होता रहता है । बालकपन, जवानी, प्रोढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था में शरीर पूरी तरह से बदलता रहता है, और साथ-साथ हमारा मन, स्वभाव और व्यवहार आदि में भी परिपक्वता आती रहती है। लेकिन इन सभी अवस्थाओं का साक्षी जीव में परिवर्तन नहीं होता ।

शरीर को स्वस्थ बनाये रखने के लिए भगवान श्रीकृष्ण गीता में पाँच सूत्र देते हुए कहते हैं कि जो हम खाते हैं वह आहार अर्थात् अन्न और चलना फिरना रूप जो पैरों की क्रिया है वह विहार यह दोनों जिसके नियमित परिमाण से होते हैं और कर्मों में जिसकी चेष्टा नियमित परिमाण में होती है, जिसका सोना और जागना नियत काल में यथायोग्य होता है, ऐसे योगी का दुखनाशक योग सिद्ध हो जाता है। श्रुति कहती है कि " जो अपनी शक्ति के अनुसार अन्न खाया जाता है, वह रक्षा करता है, वह कष्ट नहीं देता, जो उससे अधिक लेता है वह कष्ट देता है और जो प्रमाण से कम होता है वह रक्षा नहीं करता।" इसलिए मनुष्य को अपने लिए जितना उपयुक्त हो उससे कम या ज्यादा अन्न न खाने । पेट का आधा भाग भोजन से एवं तीसरा हिस्सा जल से पूर्ण करने के लिए तथा चौथा वायु के आने जाने के लिए खाली रखना चाहिए। इससे हमारे शरीर के अंदर जो तंत्र है वह सुचारू रूप से अपना कार्य करते हुए शरीर को स्वस्थ बनाये रखने में मदद करता है, उस पर बिना वजह बोझ नहीं पड़ता।

गीता में वर्णन आता है कि सात्विक या श्रेष्ठ पुरुष को आहार में ऐसे पदार्थ प्रिय होते हैं जिनके लेने से आयु, बुद्धि, बल, आरोग्यता, सुख-शांति और प्रसन्नता आदि बढ़ते हैं। अत: वह आहार लेने से पूर्व भोजन के पदार्थों पर विचार करता है। राजस या मध्यम पुरुष आहार लेने के पश्चात् विचार करते हैं कि जो पदार्थ भोजन में स्वाद या भोग बुद्धि के कारण ग्रहण किये हैं उनसे शरीर में दाह, रोग, दुख और चिन्ता आदि उत्पन्न हो रहे हैं । और कुछ मनुष्य न तो आहार से पूर्व या उसके बाद भी आहार में ग्रहण किये गये पदार्थों के विषय में विचार ही नहीं करते कि शरीर को अस्वस्थ करने में आहार का भी कोई योगदान है, उनकी दृष्टि तो केवल आहार पर ही केन्द्रित रहती है।

श्रुति में आता है कि खाया हुआ अन्न जठराग्नि द्वारा पचाये जाने पर तीन भागों में विभक्त हो जाता है। उसका जो अत्यन्त स्थूल भाग होता है वह मल हो जाता है, जो मध्यम भाग होता है वह रसादि क्रम से परिणत होकर माँस हो जाता है और जो अत्यन्त सूक्ष्म होता है वह मन हो जाता है। जैसे दूध से दही बनता है और मथे हुए दही का जो सूक्ष्म भाग होता है वह ऊपर इकट्ठा होकर मक्खन के रूप में आकर घृत होता है और नीचे छाछ रह जाती है।

इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद श्रुति के अनुसार पीया हुआ जल तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो स्थूलतम भाग होता है वह मूत्र हो जाता है, जो मध्यम भाग होता है वह रक्त हो जाता है और जो सूक्ष्मतम भाग है वह प्राण हो जाता है । इसी तरह खाया हुआ तेज अर्थात् भक्षण किया हुआ तेल- धृत आदि तीन प्रकार का हो जाता है । उसका जो स्थूलतम अंश होता है वह हड्डी हो जाता है, जो मध्यम भाग है वह मज्जा अर्थात् हड्डी के भीतर रहने वाला स्निग्ध पदार्थ हो जाता है और जो सूक्ष्मतम अंश है वह वाक (वाणी) हो जाता है। तेल- धृत आदि के भक्षण से ही वाणी विशद अर्थात् भाषण में समर्थ होती है। इसलिए मन अन्नमय है, प्राण जलमय है, और वाक तेजोमयी है। इस प्रकार हमें निस्वार्थ भाव, पूरी ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता और दूसरों का बिना अहित किये हुए शुद्ध धन अर्जित करके उसे अपने सात्विक भोजन के पदार्थों पर व्यय करना चाहिए।

इसलिए हमारा आहार सात्विक या शुद्ध होना चाहिए, क्योंकि आहार शुद्ध होने पर अन्त:करण अर्थात् मन और बुद्धि भी शुद्ध होते हैं। मन में निर्मलता आती है, राग-द्वेष आदि विकार दूर होने पर मन शांत और प्रसन्न रहता है। उसकी चंचलता कम होती है, अर्थात् मन एकाग्र होने पर बुद्धि निश्चयात्मक होती है उसमें उचित - अनुचित का ठीक-ठीक निर्णय लेने की क्षमता विकसित होती है, वह अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रहती है । मन को एकाग्र और संतुलित बनाये रखने के लिए गीता में आत्मसंयम योग के अंतर्गत ध्यान की विधि का भी भगवान ने विस्तार से वर्णन किया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने स्वरूप में स्थित रहता हुआ संसार में निर्लिप्त भाव से व्यवहार करता हुआ अपना जीवन यापन करता है । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है और जो मनुष्य स्व अर्थात् अपने स्वरूप में स्थित है वही श्रुति के अनुसार स्वस्थ है।

बी. के. शर्मा

Tuesday, December 10, 2024

गीता हमें समता में रहना सिखाती है।


आज गीता जयन्ती है। मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष मोक्षदा एकादशी के दिन कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में दोनों सेनाओं के मध्य में स्थित होकर अर्जुन के मोहरूपी विषाद को दूर करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश संपूर्ण मानव जाति के कल्याण के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व दिया था। हम सभी के अन्दर जो अशान्ति और अज्ञान रूपी जो मोह या विषाद उत्पन्न होता है, उसको दूर करने के लिए गीता का उपदेश विषाद योग से प्रारम्भ होकर मोक्षसन्यास योग पर पूर्ण होता है। गीता माहात्म्य में आता है कि ‘सम्पूर्ण उपनिषदें गौ के समान है, गोपालनन्दन श्रीकृष्ण दूहनेवाले हैं, अर्जुन बछड़ा है तथा महान गीतामृत ही उस गौ का दूग्ध है और शुद्ध बुद्धि वाला श्रेष्ठ मनुष्य की इसका भोक्ता है।

जिस तरह से हम बाजार से कोई उपकरण खरीद कर लाते हैं, तब उसके साथ एक छोटी सी पुस्तिका भी मिलती है, जिसके द्वारा उस उपकरण का ठीक प्रकार से इस्तेमाल करने आदि का हमें ज्ञान प्राप्त होता है। इसी तरह से हमें जो यह मानव शरीर प्राप्त हुआ है उसके द्वारा किस प्रकार से हम अपना दैनिक व्यवहार एवं कर्तव्यकर्म ज्ञानपूर्वक, निष्काम भाव से करते हुए एक तनावरहित एवं शांति पूर्ण जीवन यापन के साथ साथ अपने वास्तविक स्वरूप को भी जानते हुए इस संसार के आवागमन अर्थात बार बार जन्म मृत्यु के चक्र से छूट सकें ऐसा ज्ञान हमें गीता शास्त्र के मात्र 700 श्लोकों से प्राप्त हो जाता है।

गीता में भगवान कहते है कि कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है अर्थात ज्ञान प्राप्ति का कारण है, अतः शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य हैं। जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न तो सिद्धि को अर्थात पुरुषार्थ के साधन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की योग्यता को प्राप्त होता है, न इस लोक में सुख पाता है, और न परम गति अर्थात स्वर्ग या मोक्ष को पाता है।

गीत हमें समबुद्धि के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है, जिसके द्वारा हम अपने जीवन में आने वाली अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में विचलित न हों। ‘समत्वं योग उच्यते’ अर्थात समता को ही योग कहा जाता है यह समता ही गीता की आत्मा है। इस समता रूपी योग में स्थित मनुष्य कभी विचलित या अशांत अथवा तनाव में नहीं आता और धैर्य पूर्वक अपना मानसिक संतुलन बनाये हुए प्रतिकूल या विपरीत परिस्थिति से भी बाहर निकलने का मार्ग निकाल ही लेता है। अन्यथा छोटी छोटी बातों में ही हम विचलित हो जाते हैं, कोई हमे हमारी इच्छा के विपरीत कुछ कह भी दे तब हम भी वैसी ही प्रतिक्रिया करके उसको बढ़ा

कर अपने जीवन में तनाव ले आते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति वही है, जिसकी बुद्धि प्रत्येक अवस्था में सम अर्थात स्थिर रहती है। ऐसे व्यक्ति को गीता में भगवान ने स्थितप्रज्ञ कहा है और उसका 18 श्लोकों में बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। भगवान कहते हैं ‘‘जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरूष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं।’’

हमारी बुद्धि हमारा मार्गदर्शन करती है, उसी के निश्चय के अनुरूप हम अपना प्रत्येक कार्य करते हैं अर्थात बुद्धि हमारी सारथि है जिस प्रकार महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथि भगवान श्रीकृष्ण थे। जब हमारा जीवन गीता में बतलाये हुए मार्ग के अनुसार चलता है तब भगवान हमारी बुद्धि में बैठकर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। भगवान ने गीता में कहा है कि मेरे में मन लगाने वाले और मेरा ध्यान करने वाले भक्तों को में बुद्धियोग देता हूँ, जिससे वे मुझे ही प्राप्त होते हैं। अर्थात बुद्धियोग या समबुद्धि वाला व्यक्ति ही राग-द्वेष से रहित रहता हुआ उचित-अनुचित कार्य का ठीक-ठीक निर्णय ले पाता है और ऐसा व्यक्ति ही राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा सांसारिक विषयों में विचरण करता हुआ भी अतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।

बी. के. शर्मा

Wednesday, November 6, 2024

सुखी जीवन के लिए कर्म के साथ ज्ञान भी आवश्यक है।

कुछ वर्ष पूर्व मनुष्य यदि लोक या शास्त्र मर्यादा के विपरीत जाकर कुछ कार्य कर देता था तब यदि उसे दूसरे व्यक्ति भी कुछ न कहें तब भी उसे अपने अंदर से ही एक प्रकार की लज्जा, संकोच और आत्मग्लानि का अनुभव होता था। तथा वह भविष्य में ऐसे कार्यों को पुनः न करने का संकल्प कर लेता था। लेकिन आज के समय में मनुष्य समाज और शास्त्र की मर्यादा के विपरीत कार्य करके लज्जा या संकोच के स्थान पर अपने को गौरवान्वित अनुभव करता है। थोड़े से लाभ के लिए अनुचित तरीकों को अपनाना, दूसरे जो हम पर विश्वास करते हैं उन्हें ठेस पहुँचाना, झूठ के रूप में अधर्म के मार्ग पर चलना, स्वास्थ्य रक्षक दवाइयाँ और खाद्य पदार्थों में हानिकारक पदार्थों की मिलावट आदि के द्वारा मनुष्य दूसरों का अहित करता है। अज्ञान के कारण वह यह नहीं जानता कि जो बीज हम बोते हैं, उसी की फसल उपयुक्त समय आने पर हमें ही काटनी पड़ती है।

हमारे द्वारा किया गया प्रत्येक शुभ या अशुभ कर्म संस्कार बीज के रूप में हमारे अंदर संचित हो जाता है। और पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्म आदि का संस्कार जब वर्तमान समय में प्रकट होता है तब वैसा ही हमारा स्वभाव या आदत बन जाती है और फिर वैसे ही हम कर्म करने की चेष्टा करते हैं। अतः प्रत्येक कार्य को भलीभाँति विचार कर ही करना चाहिए। कर्मों की गति बड़ी ही सूक्ष्म होती है। जिस जिस अवस्था में जैसा जैसा कर्म किया गया होता है उस उस अवस्था में प्राणी को उसका फल निश्चित ही भोगना पड़ता है। कर्म करने में तो मनुष्य पूरी तरह से स्वतंत्र है, परन्तु कर्मफल हमारी अपनी इच्छा के ही अनुरूप मिलेगा यह हमारे हाथ में नहीं है। कोई भी अपने जीवन में दुख आये ऐसी इच्छा नहीं करता परन्तु फिर भी वह हमारे जीवन में आता है जो हमारे ही द्वारा किये गये किसी पूर्व कर्म का फल है। दूसरा कोई भी व्यक्ति इसके लिए दोषी नहीं है। अतः शुभ-अशुभ कर्म का फल सुख-दुख के रूप में प्राणी को स्वयं ही भोगना पड़ता है, दूसरा कोई उसे नहीं भोग सकता। जिस प्रकार से कर्मफल को भोगना निश्चित होता है, उसे वैसे ही और स्वयं को ही भोगना पड़ता है।

दूसरों का अहित करने पर हमारा हित होगा यह हमारा बहुत बड़ा अज्ञान है। कुछ समय के लिए हमें या दूसरों को लगता है कि अशुभ या पाप कर्म को वर्तमान समय में करने पर भी हमें सुख या लाभ की प्राप्ति हो रही है। तब हमें यह समझना होगा कि यह वर्तमान में प्राप्त सुख, लाभ या अनुकूल परिस्थिति हमारे द्वारा पूर्व में किये गये इस जन्म या पूर्वजन्म के किसी शुभ कर्म का फल है। और वर्तमान में हमारे द्वारा किये जाने वाले अशुभ कर्मों का फल उचित समय आने पर हमें ही भोगना पड़ेगा। सुख और अनुकूल परिस्थिति का हमारे जीवन में आना हमारे द्वारा किये गये पुण्य या शुभ कर्म का फल और दुख या प्रतिकूल परिस्थिति का आना हमारे द्वारा ही किये गये पाप या अशुभ कर्म का फल है। हमारे द्वारा शुभ-अशुभ कर्म करने के कारण हमारे जीवन में सुख-दुख आते जाते रहते हैं। सुख और शान्ति की प्राप्ति के लिए हमें अशुभ कर्म का त्याग करना चाहिए। और शुभ कर्मों को हो करना चाहिए। इससे हमारा अंतःकरण अर्थात मन निर्मल होता है, हमारे भाव, आचरण एवं विचार शुद्ध होते हैं। हमारे जीवन में शांति, सुख और आनन्द स्थायी रूप से निवास करते हैं।

दूसरों के हित के लिए निष्काम भाव से अर्थात अपने स्वार्थ और लोभ की पूर्ति का लक्ष्य न रखते हुए सभी शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म यज्ञ की श्रेणी में ही आते हैं। कर्तव्य और अकर्तव्य में शास्त्र ही प्रमाण हैं। यदि मनुष्य शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करता है तब वह सुख और शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः हमारे जीवन में ज्ञान और कर्म दोनों का ही होना आवश्यक है। बिना ज्ञान के कर्म अन्धा है और बिना कर्म के ज्ञान पंगु है। इसलिए भलीभांति विचार करके कि हमारे द्वारा किये गये कर्म से समाज का कोई अहित तो नहीं होगा, लोकमर्यादा-शास्त्रमर्यादा आदि के विपरीत तो नहीं है, तभी ज्ञानपूर्वक उस कार्य को सम्पन्न करना चाहिए। ऐसे कार्य को करते समय भी हमें सुख और आनन्द की अनुभूति होगी और उसका फल भी श्रेष्ठ ही होगा।

बी. के शर्मा