Friday, August 18, 2023

जो योग युक्त है , वही मुक्त है

प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में सुख की ही प्राप्ति करना चाहता है, कोई भी दुःख नहीं चाहता। वेदों में सुख के श्रेय और प्रेय दो साधन बतलायें हैं। श्रेय अर्थात सब प्रकार के दुखों से छुटकर परमात्मा को अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करने का उपाय जिससे जन्म-मृत्यु के चक्र से हमेशा के लिए मुक्त होकर नित्य सुख की प्राप्ति। तथा प्रेय अर्थात लौकिक एवं स्वर्गलोक के भोगों की प्राप्ति के उपाय के रूप में अनित्य या प्राकृत सुख की प्राप्ति। महाभारत के युद्ध के प्रारम्भ होने से ठीक पहले अर्जुन की दृष्टि श्रेय मार्ग अर्थात युद्ध के समय में भी अपने कल्याण पर ही थी। अर्जुन कहते हैं कि मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही चाहता हूँ अर्थात प्राकृत सुख या प्रेय की उपेक्षा करके उनकी दृष्टि श्रेय को ही ग्रहण करना चाहती है।

अर्जुन भगवान से कहते हैं कि धर्म के विषय में मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो उस श्रेय साधन को मेरे लिए कहिए, मैं आपकी शरण में हूँ, मुझको शिक्षा दीजिए। भगवान के द्वारा गीता के दूसरे अध्यान में सांख्ययोग तथा संक्षेप में कर्मयोग के उपदेश के पश्चात पुनः अर्जुन कहते हैं कि आप मिले हुए से बचनों से मेरी बुद्धि को मानों मोहित कर रहे हैं, इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण अर्थात श्रेय को प्राप्त हो जाऊँ। इसके बाद जब भगवान कर्मों के सन्यास और कर्म योग के विषय में अर्जुन को बतलाते हैं तब फिर से अर्जुन कहते हैं कि इन दोनों में से जो एक मेरे लिए भली-भांति निश्चित कल्याणकारक अर्थात श्रेय की प्राप्ति कराने वाला है उसको कहिए। इस प्रकार अर्जुन की दृष्टि केवल श्रेय अर्थात जिस साधन के द्वारा उन का कल्याण हो सके उसी पर स्थिर है। अतः भगवान अर्जुन को जितने भी कल्याण या श्रेय प्राप्ति के साधन है जैसे कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग एवं भक्तियोग आदि सभी साधनों को गीता में विस्तारपूर्वक समझाते हैं और अपने उपदेश की समाप्ति तभी करते हैं जब अर्जुन यह कह देते हैं कि हे अच्युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। अतः गीता सभी मनुष्यों का चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम एवं संप्रदाय के हो उनके सब संशयों और अज्ञान को नष्ट करके उनको अपने वास्तविक स्वरूप का बोध करा देती है और फिर ऐसा मनुष्य अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए संसार में शास्त्रविहित व्यवहार करते हुए भी सब बंधनों से मुक्त रहता है।

अर्जुन के द्वारा बार-बार अपने कल्याणकारक साधन पूछने पर भगवान गीता में कहते हैं कि तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है ‘नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।’ तथा उदाहरण देते हैं कि जनक आदि ज्ञानी पुरुष भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे, और मुझे भी इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ। इस सृष्टि की रचना आदि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान क्योंकि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। अब प्रश्न उठता है कि किस प्रकार से हम कर्म करें कि हम कर्म करते हुए भी कर्म बंधन से मुक्त रहें। तब भगवान अर्जुन से जो कि शोक से उद्विग्न मनवाले होकर बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए थे कहते हैं कि अर्जुन तू अपने सब संशयों को विवेकज्ञान के द्वारा दूर करके योग में स्थित होकर खड़ा हो जा और अपना युद्ध रूपी कर्तव्य कर्म कर ‘छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।’ इसी तरह से भगवान कहते हैं ‘संङ्गम् त्यक्त्वा सिद्धयसिद्धयोः समः भूत्वा योगस्थः कर्माणि कुरु’ अर्थात आसक्ति को त्यागकर सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्यकर्मों को कर।

योग शब्द का अर्थ है संबंध। आत्मज्ञान न होने की स्थिति में मनुष्य का संबंध या तादात्म्य शरीर, मन, बुद्धि आदि तथा बाहरी संसार के साथ रहता है। रजोगुण तथा तमोगुण की अधिकता के कारण वह बहिर्मुखी बना रहता है और संसार के साथ संबंध बनाए रखते हुए कर्म या अन्य साधनों के द्वारा अनित्य सुख की प्राप्ति भी करता रहता है। परंतु मनुष्य की इच्छा नित्य या अखंड सुख को प्राप्त करने की बनी रहती है क्योंकि वह सुख स्वरूप है।लेकिन जब हमारा संयोग या संबंध तो अनित्य शरीर, संसार, पदार्थ, परिस्थिति आदि के साथ बना रहता है, जो कि प्रत्येक क्षण परिवर्तनशील है और हमारा वास्तविक स्वरूप परिवर्तनरहित एवं नित्य है, तब हम अनित्य के साथ संबंध रखते हुए नित्य सुख की प्राप्ति कैसे कर सकते हैं। भगवान ने गीता में कहा है ‘तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्।’ अर्थात दुखरूप संसार के संयोग के वियोग का नाम योग है। जब हम संसार के संयोग या संबंध का वियोग अर्थात उससे संबंध विच्छेद कर लेते हैं, तब हमारी स्थिति अपने स्वरूप में ही होती है जो कि सम है अर्थात हम समभाव या योग में स्थित रहते हैं। ऐसे ही योग में स्थित रहते हुए कर्म करने के लिए भगवान हमें आज्ञा देते हैं। ऐसी स्थिति में हमारे द्वारा किया गया कर्म, ध्यान, ज्ञान, भक्ति भी कर्मयोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग बन जाते हैं और हम भोगी के स्थान पर योगी बन जाते हैं, जो हमें परमात्मा प्राप्ति में सहायक होती है। भगवान गीता में कहते हैं

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानवस्थितचेतस: |
यज्ञयाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते ||


कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवतप्राप्तिरूप शांति को प्राप्त होता है और सकाम पुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंधता है। इसलिए तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलाभाँति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है, ऐसा केवल यज्ञ संपादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।

इस प्रकार यदि हम अपने समस्त कार्यों को योग अर्थात समभाव में स्थित होकर करते हैं तब हम कर्म करते हुए भी कर्म बंधन अर्थात पाप-पुण्य से रहित रहते हैं। समबुद्धियुक्त अर्थात योगयुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ अर्थात कर्मबंधन से छूटने का उपाय है। भगवान गीता में कहते हैं

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ।।


अर्थात समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्मरूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परमपद को प्राप्त हो जाते हैं। इसलिए भगवान कहते हैं कि अर्जुन तू सब काल में समबुद्धिरूप योग से युक्त हो अर्थात निरन्तर मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाला हो ‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।’ क्योंकि सकाम भाव से कर्म करने वाले, सकाम भाव से तप करने वाले, सकाम शब्द ज्ञानियों से योगी श्रेष्ठ है। और संपूर्ण योगियों में भी जो सर्वश्रेष्ठ योगी है उसके विषय में भगवान कहते हैं

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ।।


सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरन्तर भजता है वह योगी मुझे परमश्रेष्ठ मान्य है। अतः जब आत्मज्ञान या ब्रह्मविचार के द्वारा हमारी अविद्या या अज्ञान का नाश हो जाता है, तब हमारी वासनओं का नाश होता है और वासनाओं के न रहने पर हमारे राग-द्वेष का नाश होता है। फलस्वरूप हम अपनी मिथ्या उपाधियों जैसे शरीर, मन, बुद्धि आदि के साथ अपने तादात्म्य का त्याग कर देते हैं। ऐसे समय में हमारी स्थिति अपने स्वरूप में होती है। इसी नित्ययोग या समभाव में स्थित रहते हुए ही यदि हम अपना जीवन-यापन करते हैं, तब हम अत्यान्तिक शांति, श्रेय या नित्य सुख और जीवन मुक्ति का अनुभव करते हैं।

B.K.Sharma