Wednesday, September 30, 2020

अध्यात्म क्या है? - दिनांक- 30.09.2020

 व्यवहारिक गीता ज्ञान

परमात्मा, जीव, प्रकृति और संसार इन प्रश्नों पर अधिकांश मनुष्य समय - समय पर अपने जीवन में विचार करते रहते हैं। इनका आपस में क्या संबंध है इस पर भी सभी के मन में स्वाभाविक रूप से विचार आते रहते हैं क्योंकि केवल मनुष्य योनि ही विवेक प्रधान है और वह इन सबके विषय में जानने का सतत् प्रयास करता रहता है। परमात्मा का शुद्ध अंश ही आत्मा है, लेकिन वह अविद्या (अज्ञान) के कारण प्रकृति और उसके कार्यों के साथ अपना संबंध कर लेने के कारण ही जीव बन जाता है और स्वरूप से मुक्त होते हुए भी, बंधन में पड़ जाता है।

गीता के श्लोक 13/21 में भगवान कहते हैं-

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भूक्तङे प्रकृतिजान्गुणान।
कारणं गुणसग्ङोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।

प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।

प्रकृति और पुरुष दोनों ही अनादि हैं। इनमें पुरुष तो अनादि और अनन्त है तथा प्रकृति अनादि और सान्त है। पुरुष सर्वव्यापी, चेतन, नित्य तथा आन्नदस्वरुप है और प्रकृति विकारवाली होने के कारण जड़, अनित्य और दुखरूप है। यह समस्त जड़वर्ग संसार प्रकृति का ही विकार है। जब पुरुष (आत्मा) अज्ञान के कारण प्रकृति में स्थित हो जाता है अर्थात अपने आपको शरीरमनबुद्धि आदि मान लेता है तब वह त्रिगुणात्मक प्रकृति के साथ संबंध रखने के कारण सुख-दुख एवं जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ जाता है। इस सुख-दुख की निवृत्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक इस चेतन आत्मा का शरीर के साथ अज्ञानजन्य संबंध नहीं छूट जाता। ज्ञान हो जाने के पश्चात मनुष्य का प्रकृति से संबंध छूट जाता है और वह अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर उस में स्थित हो जाता है। अर्थात प्रकृति और उसके कार्यों में संबंधित आत्मा ही जीवात्मा है, और प्रकृति के साथ संबंध हो जाने के कारणआना-जाना सा प्रतीत होता रहता है।

पांच महाभूत पृथ्वीजलअग्निवायु और आकाश जिनसे हमारा  स्थूल शरीर बना है और मनबुद्धिअहंकार  अर्थात हमारा अंतःकरण इन आठों को भगवान ने अपरा या जड़ प्रकृति कहा है और दूसरी को जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति कहा है। अर्थात चेतन और जड़ या पुरुष और प्रकृति दोनों ही भिन्न है। जब चेतन स्वयं ही जड़ के साथ संबंध बनाकर बंधन में पड़ता है तब ज्ञान के कारण उसे स्वयं ही अपने आपको जड़ से अलग जानना होगा और मुक्त हो जाएगा।

भगवान ने गीता के श्लोक 7/26 में अर्जुन से कहा कि पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूंपरंतु मुझको कोई भी श्रद्धा – भक्ति रहित पुरुष नहीं जानता।” और श्लोक 29-30 में भगवान कहते हैं कि जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैंवे पुरुष उस ब्रह्म कोसंपूर्ण अध्यात्म कोसंपूर्ण कर्म को जानते हैं। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अंतकाल में भी जानते हैं वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं।” इस प्रकार भगवान के समग्र रूप को जानकर अर्जुन ने भगवान से आठवें अध्याय के प्रथम दो श्लोकों में जो सात प्रश्न पूछे उनमें एक प्रश्न है किमध्यात्मं” अर्थात अध्यात्म क्या है?

इस प्रश्न के उत्तर में भगवान अध्यात्म के विषय में कहते हैं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते अर्थात अपना स्वरूप या जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जाता है। अर्थात अपने स्वरूप को जानना ही अध्यात्म है। इस प्रकार जो मनुष्य अपने स्वरूप को जानता है और सब कार्य करते हुए भी अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है वही अध्यात्मिक मनुष्य है। शास्त्रों का अध्ययन या उनका श्रवण ही पर्याप्त नहीं हैबल्कि उनके द्वारा सत और असत वस्तु का विवेक हो जाना आवश्यक है। जीवात्मा परमात्मा से भिन्न नहीं हैवह तो परमात्मा का ही अंश है। भगवान गीता के श्लोक 15/में कहते हैं-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है। मानस में भी आता है - ईश्वर अंश जीव अविनाशीचेतनअमलसहजसुखराशि

गीता के श्लोक 10/20 में भगवान कहते हैं कि मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।’’ सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ जीवनं सर्वभूतेषु” अर्थात मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मनियों के सदृश्य मुझमें गुँथा हुआ है ऐसा भगवान ने श्लोक 7/में कहा है। यह सब जानना ही अध्यात्म है कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। सृष्टि का आदि और अंत तथा मध्य भी परमात्मा ही है। जीव अज्ञान के कारण और शरीर के साथ संबंध रखने के कारण ही शरीर की उत्पत्ति और विनाश में आत्मा का जन्मना-मरना मानता है। भगवान ने गीता के श्लोक 15में कहा है-

शरीरं यदवाप्रोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्र्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।

वायु गंध  के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता हैवैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता हैउससे इन मनसहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस  शरीर को प्राप्त होता है-उसमें जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध में भी श्री शुकदेव जी राजा परीक्षित से कहते हैं कि ‘‘जो गृहस्थ घर के काम धंधों में उलझे हुए हैंअपने स्वरूप को नहीं जानतेउनके लिए हजारों बातें कहने सुनने एवं सोचनेकरने की रहती है। उनकी सारी उम्र यूं ही बीत जाती है। उनकी रात नींद आदि में कटती है। और दिन धन की हाय हाय या कुटिम्बियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है। संसार में जिन्हें अपना अत्यंत घनिष्ठ संबंधी कहा जाता है वे शरीरपुत्रस्त्री आदि कुछ नहीं हैअसत हैपरंतु जीव उनके मोह में ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं। जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है उसे तो सर्वात्मासर्वशक्तिमान भगवान श्री कृष्ण की ही लीलाओं का श्रवणकीर्तन और स्मरण करना चाहिए। मनुष्य जन्म का यही - इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो - ज्ञान सेभक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाए की मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे।

कठोपनिषद के द्वितीय अध्याय के तृतीय वल्ली के मंत्र चार में यमराज नचिकेता से कहते हैं कि यदि शरीर का पतन होने से पहले पहले इस मनुष्य शरीर में ही साधक यदि परमात्मा को साक्षात कर सका तब तो ठीक हैनहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है। मुंडकोपनिषद के तृतीय मुंडक के प्रथम खंड के मंत्र 10 में आता है कि विशुद्ध अंतःकरण वाला मनुष्य जिस लोक को मन से चिंतन करता है तथा जिन भोगों की कामना करता है उन-उन लोकों को जीत लेता है और उन भोगों को भी प्राप्त कर लेता है, इसलिए ऐश्वर्य की कामना वाला मनुष्य शरीर से भिन्न आत्मा को जानने वाले महात्मा की सेवा पूजा करे।’’

क्योंकि विशुद्ध अंतःकरणयुक्त विवेकी पुरुष अपने लिए और दूसरों के लिए भी जो-जो कामना करते हैं वह पूर्ण हो जाती है।

भगवान द्वारा दिए गए गीता का उपदेश पूरा हो जाने पर अर्जुन के द्वारा कहे गए अंतिम श्लोक 18/73 में अर्जुन ने कहा कि ‘‘हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूं अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।’’ अर्थात गीता का उपदेश सुनने के पश्चात् अर्जुन को अपने स्वरूप की स्मृति हो गई जिसको वह मोह के कारण युद्ध के प्रारंभ में विस्मृत कर चुका था। यही स्थिति हमारी भी है हम भी अपने स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं क्योंकि अनन्त जन्मों के अनेकों शरीरों में रहते चले आ रहे हैं और अपने को शरीर ही मानने लगे हैं इसी के साथ-साथ अपना भी जन्म और मृत्यु मानते हैं। जबकि हमारा वास्तविक स्वरूप परमात्मा का अंश हैं और सच्चिदानन्द स्वरूप है। इन समस्त जड़ पदार्थों से हमारा कोई संबंध नहीं है। हमारा शरीर माता के गर्भ में बना है, पृथ्वी पर हमारा शरीर घूमता-फिरता है और अंत में पृथ्वी पर ही हमारा यह शरीर लीन हो जाता है। हम इस शरीर से पहले भी थे और इस शरीर के समाप्त होने के बाद भी हम समाप्त नहीं होंगे जब तक हम मुक्त होकर परमात्मा में लीन नहीं हो जाते। अतः हमें अध्यात्म अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास करना चाहिए जिससे हमारा जीव भाव या अज्ञान का नाश हो जाए और हम भावी आवागमन के चक्र से छूट जायें। 

धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा

Saturday, September 26, 2020

गलत चिंतन के कारण मनुष्य का पतन हो जाता है - दिनांक- 27.09.2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

हमारा मन हमेशा किसी न किसी विषय पर सोचता रहता है। यह विषय उचित या अनुचित, कुछ भी हो सकता है क्योंकि मन का तो काम ही संकल्प-विकल्प करते रहना है। यदि मनुष्य की बुद्धि भी उस समय मन में आए हुए संकल्प के साथ हो जाए, तब मनुष्य वाणी या शरीर से उस क्रिया को कर देता है और परिणाम स्वरूप सुख-दुख का अनुभव करता रहता है। ऐसा भी देखा जाता है कि किसी मनुष्य की समाज में बहुत प्रतिष्ठा थी और अधिकांश मनुष्यों के लिए वह एक आदर्श पुरुष थालेकिन मन में आए हुए कुछ गलत संकल्पों के कारण वह कुछ ऐसा काम कर देता है कि समाज को भी उस पर यकीन करना मुश्किल हो जाता है। वह स्वयं भी उस काम के कारण जीवन भर पछताता है।

गीता में पतन हो जाने के कारण के बारे में कहा है, विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है आसक्ति कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध। क्रोध से मूढ़भाव आता हैमूढ़भाव से स्मृतिभ्रम हो जाता है स्मृतिभ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि का नाश पतन का कारण बनता है।’ यानी अगर मनुष्य का मन गलत दिशा में चिंतन करेगा और मनुष्य अपनी बुद्धि से उस पर नियंत्रण नहीं रखेगा, तो उसका पतन होना निश्चित है। मन सही दिशा में लगा तो मित्र है, गलत दिशा में गया, तो वह मनुष्य का शत्रु है। विषयों का सेवन मनुष्य अपनी इंद्रियों से करता है। अगर इंद्रियों को मन का सहारा न मिले, तब वह विषयों से दूर रह सकती हैं। विषयों में विचरती इंद्रियों में से मन जिस इंद्रिय के साथ रहता है, वही उसकी बुद्धि हर लेती है।

कठोपनिषद में आता है, ‘‘जो सदा विवेकहीन बुद्धिवाला चंचल मन से रहता है, उसकी इंद्रियाँ असावधान सारथी के दुष्ट घोड़ों की तरह वश में न रहने वाली हो जाती है। और जो सदा विवेकयुक्त बुद्धिवाला और वश में किए हुए मन से संपन्न रहता है, उसकी इंद्रियाँ सावधान सारथी के अच्छे घोड़ों की भांति वश में रहते हैं।” इसलिए मनुष्य को सारथी रूपी अपनी विवेकयुक्त बुद्धि से मन रूपी लगाम को अपने वश में रखते हुए इंद्रियों रूपी घोड़ों को सही विषयों की तरफ ही ले जाना चाहिए ताकि शरीर रूपी रथ में सवार जीवात्मा का पतन न हो सके। गीता में कहा है कि निसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परंतु वह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। जिसका मन वश में नहीं किया हुआ है ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है। और जिसने मन वश में किया है, वह आसानी से इसे पा सकता है

इसलिए हमें सतत अभ्यास द्वारा अपने मन को वश में रखते हुए अपना चिंतन ठीक करते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए। यदि कोई गलत संकल्प मन में आ रहा है, तो उसे केवल साक्षी भाव से देखेंवह जैसे आया था- वैसे ही चला भी जाएगा। जब मनुष्य अपने मन में आए हुए गलत विषय से अपना संबंध बनाता हैतब उसकी उसमें आसक्ति हो जाती है। इससे उसमें उसकी कामना पैदा होती है। एक बार ऐसी कामना ऐसी कामना पूरी हुई कि फिर इनकी अंतहीन झड़ी लग जाती है। ये पूरी नहीं होतीं, इससे हम क्रोधित होते हैं, हमारी ज्ञानशक्ति नष्ट हो जाती है, और हम पतनोन्मुख हो जाते हैं।

धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा


(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 17 सितम्बर 2020 को प्रकाशित हुआ है)

Friday, September 18, 2020

अन्तकाल में हुए चिन्तन के अनुसार दूसरे जन्म की प्राप्ति - दिनांक- 18.09.2020

    

व्यवहारिक गीता ज्ञान          

मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, ईश्वर की कृपा से ही यह शरीर हमें अपना उद्धार करने के लिए ही प्राप्त हुआ है। सभी शास्त्रों में मनुष्य शरीर की महिमा बतलायी गयी है। मानस में तो आता है-

बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।

कालहिं कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।।

बड़े भाग से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया। वह परलोक में दुख पाता है, सिर पीट-पीट कर पछताता है, तथा अपना दोष न समझकर काल पर, कर्मपर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।

नर तन सम नहिं कवनिउ देही।

जीव चराचर जाचत तेही।।

नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी।

ग्यान विराग भगति सुभ देनी।।

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर।

होहिं विषय रत मंद मंद तर।

काँच किरिच बदलें ते लेहीं।

कर ते डारि परस मनि देहीं।।

मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते है। यह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है। ऐसे मनुष्य शरीर को प्राप्त करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैंवे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में कांच के टुकड़े ले लेते हैं।

ऐसे दुर्लभमनुष्य शरीर को प्राप्त करके भी जो मनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा केवल विषय भोगों की प्राप्ति में ही लगा रहता है वह अपने आप को अधोगति में ही डालता है।

कठोपनिषद में आता है कि स्वयं प्रकट होने वाले परमात्मा ने समस्त इंद्रियों के द्वार बाहर की ओर जाने वाले ही बनाए हैं इसलिए मनुष्य इंद्रियों के द्वारा प्रायः बाहर की वस्तुओं को ही देखता है अंतरात्मा को नहीं। किसी बुद्धिमान मनुष्य ने ही अमर पद को पाने की इच्छा करके  चक्षु आदि इंद्रियों को बाहर के विषयों की ओर से लौटाकर अंतरात्मा को देखा है। वेदों में सुख के साधन दो बताए गए हैं :-

1)  श्रेय अर्थात कल्याण का कारण और

2)  प्रेय  अर्थात प्रिय लगने वाले भोगों का साधन। भगवान की कृपा से जो मनुष्य श्रेय को अपना लेता है वह दुखों से छूटकर परमात्मा को प्राप्त होकर अपना कल्याण कर लेता है परंतु जो मनुष्य प्रेय अर्थात सांसारिक भोगों के साधन को स्वीकार करता वह परमात्मा की प्राप्ति रूप यथार्थ लाभ से वंचित रह जाता है।

गीता के आठवें अध्याय में अर्जुन द्वारा भगवान से किए गए सात प्रश्नों में से अंतिम प्रश्न था कि युक्तचित वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।” इस पर भगवान गीता के श्लोक 8/5-6 में कहते हैं-

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।

य प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।

जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता हैवह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संशय  नहीं है।

हे कुंतीपुत्र अर्जुन यह मनुष्य अंतकाल में जिस- जिस भी भाव  को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता हैउस-उस  को ही प्राप्त होता हैक्योंकि वह सदा उसी भाव से भासित रहा है।

कठोपनिषद में भी यमराज नचिकेता से कहते है कि जिसका जैसा कर्म होता है और शास्त्रों आदि के श्रवण द्वारा जिसका जैसा अंतिम समय में भाव होता  है उन्हीं के अनुसार जीवात्मा दूसरे शरीर को धारण करता है। इनमें जिनके पुण्य पाप समान होते हैं वह मनुष्य का और जिनके पुण्य कम और पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का शरीर धारण करके उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनके पाप अत्याधिक होते हैंस्थावरभाव को प्राप्त होते हैं अर्थात वृक्षलतातृण  आदि जड़ शरीर में उत्पन्न होते हैं ।

अंतकाल में मनुष्य जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है उस-उस को ही प्राप्त होता है।  इस विषय में श्रीमद्भागवत महापुराण  में दिए गए अजामिल और राजर्षि भरत का शरीर त्याग करते समय आए हुए चिंतन या भाव पर विचार करते हैं। श्री शुकदेव जी राजा परीक्षित से अजामिल के विषय में कहते हैं कि उसने अपने जीवन में अनेकों पाप किए थेचोरी करना और दूसरे प्राणियों को कष्ट पहुंचाना ही उसका कार्य था। उसके छोटे पुत्र का नाम नारायण था। जब अजामिल की मृत्यु का समय आया और उसने अत्यंत भयानक तीन यमदूत देखें तब वह अत्यंत व्याकुल हो गया और उसने ऊंचे स्वर से पुकारा नारायण जो कि उसके छोटे बेटे का नाम था और वह पास में ही था। भगवान के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान नारायण का नाम ले रहा है तब वे वहां आ गए जब यमदूत अजामिल के शरीर से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। तब यमदूतों और भगवान के पार्षदों के बीच संवाद हुआ। यमदूतों ने कहा कि इसका सारा जीवन ही पापमय हैइसने अपने पापों का कोई प्रायश्चित भी नहीं किया है अतः हम इसे यमराज के पास ले जाएंगे वहां यह अपने पापों का दंड भोग कर शुद्ध हो जाएगा। भगवान के पार्षदों ने कहा कि इसने कोटि-कोटि जन्मों की पाप राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया हैक्योंकि इसने विवश होकर ही सही भगवान के नाम का उच्चारण किया है। इसलिए यमदूतों तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है क्योंकि इस ने मरते समय भगवान के नाम का उच्चारण किया है। जैसे जाने या अनजाने में ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाए तो वह भस्म हो ही जाते हैं वैसे ही जानबूझकर या अनजाने में भगवान के नाम लेने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जानकर अनजाने में पी ले तो भी वह अवश्य ही पीने वाले को अमर बना देता है वैसे ही अनजाने में उच्चारण करने पर भी भगवान का नाम अपना फल देकर ही रहता है। इस प्रकार भगवान के पार्षदों ने भागवत धर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया। भगवान के पार्षदों के सत्संग के बाद अजामिल को संसार से वैराग्य हो गया। बाद में हरिद्वार में गंगा तट पर अजामिल ने आत्मचिंतन के द्वारा अपनी बुद्धि को विषयों से पृथक कर लिया और भगवान के पार्षदों के साथ वैकुंठ को चले गए।

अजामिल के विपरीत दूसरा दृष्टांत महाराज भरत का है जो कि बड़े ही भगवद् भक्त और तपस्वी थे । इन्हीं के समय से ही हमारे देश का नाम भारत वर्ष हुआ जो कि पहले अजनाभवर्ष था। एक बार राजर्षि भरत ने नदी के किनारे पर देखा कि हिरणी का एक छोटा बच्चा नदी के प्रवाह में बह रहा है वह उसे लेकर अपने आश्रम पर आ गए। उसका पालन पोषण करते रहने के कारण उनकी उसमें ममता हो गई और उनका अधिकांश समय उस हिरणी के बच्चे के साथ ही व्यतीत होने लगा। जब उनका अंतिम समय आया उस समय भी हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्र के समान शोकातुर हो रहा था और राजर्षि भरत का चित्त  भी  उसी में लग रहा था। इस प्रकार की आसक्ति में ही उनका शरीर भी छूट गया। तदनंतर उन्हें अंतकाल की भावना के अनुसार अन्य साधारण पुरुषों के समान मृग शरीर ही मिला। किंतु उनकी साधना पूरी थी इससे उनकी पूर्व जन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई। इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरत के अंदर वैराग्य भावना जागृत हुई और अंत में उन्होंने समय आने पर मृग शरीर को छोड़ दिया। और अगले जन्म में ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर जड़ भरत के नाम से प्रसिद्ध हुए तथा असंग भाव से गुप्त रूप से विचरते रहे लेकिन उन्हें अपने पूर्वजन्मों की स्मृति बनी रही । इसलिए अंतकाल के भाव के अनुसार अजामिल का उद्धार हो गया और राजर्षि भरत को भी मृग शरीर में आना पड़ा।

अजामिल के दृष्टांत से हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए कि हम अपना पूरा जीवन विषय भोगों और पाप कर्म करने में लगा कर ये सोच लें की मृत्यु के समय भगवान का नाम लेकर मुक्त हो जाऊंगा। भगवान ने गीता के उपरोक्त श्लोक में कहा है कि मनुष्य सदा जिस भाव से या कर्म से अपने जीवन में भासित रहा है, अंतकाल के समय उसी को स्मरण करता हुआ उसी को प्राप्त हो जाता है। गीता के श्लोक 14/14-15 में भगवान ने कहा है कि जब यह मनुष्य सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है तब वह उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त होता है। रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीटपशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है।” अतः हमारे अंदर मौजूद यह गुण ही हमारे वर्तमान शरीर और भविष्य के शरीर की उत्पत्ति के कारण हैं। भागवत में भी भगवान ने कहा है कि जीव को जितनी भी योनियों अथवा गतियां प्राप्त होती हैं वे सब उसके गुणों और कर्मों के अनुसार ही होती हैं। अतः अंतकाल में भी मनुष्य वैसा ही चिंतन करता है जैसे उसके अंदर गुणों की प्रधानता है और उसने कर्म किए हैं। गीता के श्लोक 9/20-21 में भगवान कहते हैं कि ‘‘सकामकर्मों को करने वाले पाप रहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैंऐसे पुरुष पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में आते हैं।’’ और श्लोक 8/15 में भगवान कहते हैं कि परम सिद्धि को प्राप्त महात्मा जन मुझको  प्राप्त हो कर दुखों के घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते।” अर्थात इस शरीर को दुखों का घर और क्षणभंगुर कहा है जिसमें हम सुख खोजते हैं और सदा इस को बनाए रखना चाहते हैं। मनुष्य का अंत काल कब आएगा इसके विषय में कोई भी नहीं जानतायह किसी भी आयु में या किसी भी समय आ सकता है। कभी-कभी कम उम्र केबच्चों या नवयुवकों की भी मृत्यु को हम सभी देखते हैं। अतः मनुष्य को हमेशा तैयार रहना चाहिए कि कोई भी समय उसका अंत समय हो सकता है। इसके लिए ऐसा क्या किया जाए कि हमें उस समय भगवान की स्मृति आ जाए। भगवान ने इस विषय में भी गीता के श्लोक 8/ 7 में हमें बताया है-

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।

इसलिए हे अर्जुन!तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझ में अर्पण किए हुए मन बुद्धि से युक्त होकर तू निसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा।

अर्जुन का कर्तव्य कर्म युद्ध करना था इसलिए भगवान ने कहा कि युद्ध भी मेरा निरंतर स्मरण करता हुआ कर । इसी प्रकार हम भी अपना अपना कर्तव्य कर्म भी करते रहे और उसी के साथ कर्म का आरंभ भगवान को स्मरण करते हुए करें और अंत में भी भगवान के स्मरण के साथ उस कर्म को पूर्ण कर दें। यदि प्रत्येक कर्म के आरंभ और अंत में भगवान का स्मरण करेंगे तब कर्म के मध्य में भी स्मरण न करते हुए भी वही भाव बना रहेगा। जैसे सोनेके पूर्व भगवान का स्मरण करते हुए सो जाएं और जागने पर पहले भगवान का ही स्मरण करके बिस्तर से उठें तब नींद में भी भगवान की स्मृति बनी रहेगी एवं यदि नींद में अंत समय आ गया तब अंतिम चिन्तन भगवान का ही रहेगा। इस प्रकार हम अपने मन द्वारा विषयों को सतत चिंतन न करते हुए अपने मन से बीच-बीच में भगवानका चिंतन करने लगेंगे तब धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा हम उसे बढ़ा सकते हैं और कुछ समय के पश्चात वह स्वयं ही होने लगेगा। इसलिए भगवान ने कहा है कि मुझ में अर्पण किए हुए मन बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा। मनुष्य को अपने विवेक द्वारा इस पर विचार करना चाहिए और भगवान द्वारा गीता में बतलाए गए मार्ग पर चलते हुए इस जन्म-मृत्यु के चक्र से स्वयं को मुक्त करने का प्रयत्न करना चाहिए, यही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य भी है।

धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा

Thursday, September 10, 2020

मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है - दिनांक-10.09.2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान                

        मनुष्य अपने जीवन में कुछ अच्छे या पुण्य कर्म करता है और कुछ बुरे या पाप कर्म जाने या अनजाने या अज्ञान के कारण कर देता है। पुण्य कर्म का उसे अच्छा फल या अनुकूल परिस्थिति और पाप कर्म का बुरा फल या प्रतिकूल परिस्थिति की तरह उसके सामने आते रहते हैं। कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का अच्छा या बुरा या मिला हुआ ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य मिलता है, किंतु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में नहीं होता, ऐसा भगवान ने गीता के श्लोक 18/12 में कहा है । 

        जब मनुष्य यह जानता है कि बुरे कर्म करने का फल उसे बुरा ही मिलेगा तब वह बुरे कर्म करता ही क्यों है। अर्जुन के मन में भी ऐसी ही जिज्ञासा पैदा हो गई और उसने भगवान से गीता के श्लोक 3/36 में पूछा “हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है” अर्थात मनुष्य के अंदर ऐसा कौन है जो उसके न चाहने पर भी उसे बलपूर्वक खींचकर पाप कर्म में लगा देता है और वह स्वयं भी उसमें लग जाता है। 
        
        शंकर भाष्य में भगवान शंकराचार्य पहले भगवान शब्द का अर्थ करते हैं:- 
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस: श्रिय:। 
वैराग्यस्याथ मोक्षस्य षण्णां भग इतीरणा।। 
उत्पत्ति प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम्। 
वेत्ति विद्यामविद्यां च स वाच्यो भगवानिति।। (विष्णु पु. 6/5/ 74&78) 

    संपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, वैराग्य और मोक्ष - इन 6 का नाम भग है, यह ऐश्वर्य आदि 6 गुण बिना प्रतिबंध के, संपूर्णता से जिस वासुदेव में सदा रहते हैं। तथा उत्पत्ति और प्रलय को, भूतों के आने और जाने को एवं विद्या और अविद्या को जो जानता है उसका नाम भगवान है, अतः उत्पत्ति आदि सब विषयों को जो भली-भांति जानते हैं, वे वासुदेव 'भगवान' से वाच्य है।

    अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं: - 
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: । 
महाशनो महापाप्मा विद्धयनमिह वैरिणम् ।। 

        रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है यह बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में बैरी जान। 

    त्रिगुणात्मक (सात्विक, राजस, तामस) प्रकृति या भगवान की त्रिगुणमयी माया से मोहित और उसमें स्थित पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी, बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है। 

        देवता सत्व गुण प्रधान, मनुष्य रजोगुण प्रधान और पशु-पक्षी आदि तमोगुण प्रधान होते हैं। रागरुप रजोगुण कामना और आसक्ति से उत्पन्न होता है और मनुष्य में रजोगुण के बढ़ने पर लोभप्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकाम भाव से आरंभ, अशांति और विषयभोगों की लालसा - ये सब उत्पन्न होते हैं ऐसा भगवान ने गीता के अध्याय 14 में कहा है । अर्थात मनुष्य के अंदर अनेक वस्तुओं की कामना और उनको प्राप्त करने की आसक्ति ओर प्राप्त हो जाने पर उनको अपने पास सदैव रखने की ममता आदि से उसके अंदर रजोगुण बढ़ता रहता है। उसके कारण उसमें लोभ और स्वार्थ बुद्धि के साथ सकाम कर्म करने से वह पूरी तरह बंधन में पड़कर जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ा रहता है। 

        इन सब के मूल में यदि हम जाएं तब हमें ज्ञात होता है कि हमारे मन द्वारा किए जाने वाले चिंतन से ही इसकी शुरुआत होती है। भगवान ने गीता के श्लोक 2/62-63 में स्पष्ट कहा है कि ‘‘विषयों के चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रमशः उसकी बुद्धि या ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और वह पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है उसे उस समय पुण्य और पाप या अच्छे और बुरे कर्म का ज्ञान ही नहीं रहता। हम सभी जानते हैं कि कामनाओं (इच्छाओं) का कोई अंत ही हीं होता, एक के पूरा हो जाने के बाद कोई दूसरी कामना पैदा हो जाती है और मनुष्य उसे पूरी करने में लग जाता है। इस प्रकार कामना पूरी होती चली गई तब तो ठीक है नहीं तो कामना पूरी न होने के कारण मनुष्य के अंदर क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से उत्पन्न मूढ़भाव और मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है और उसके परिणाम स्वरुप मनुष्य की बुद्धि और विवेक का नाश हो जाता है और वह पाप का आचरण करते हुए अपना पतन कर लेता है। इसलिए भगवान ने कामना और क्रोध को ही मुख्य रूप से मनुष्य द्वारा पाप का आचरण करने का कारण बताया है। श्री रामचरितमानस के सुंदरकांड में भी आता है – 

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ । 
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ।। 

        हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ - ये सब नरक के रास्ते हैं। इन सबको छोड़कर श्रीरामचंद्र जी को भजिए, जिन्हें संत (महापुरुष) भजते हैं। कामना और क्रोध के कारण जब मनुष्य पाप का आचरण करता है तब उसे निम्न लोकों (नरक) की यातना सहन करके पशु-पक्षी आदि योनियों में जन्म लेना पड़ता है। भगवान ने गीता के श्लोक 16/21 में काम, क्रोध और लोभ को नरक के द्वार कहा है: - 

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: । 
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत ।। 

        काम, क्रोध तथा लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के द्वार अर्थात सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु तथा आत्मा का नाश करने वाले अर्थात उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए । 

        भगवान ने गीता के अनेक श्लोकों में बार-बार कामना, आसक्ति, ममता, फल की इच्छा और स्वार्थ रहित होकर, अर्थात इन सब का त्याग करते हुए पूर्ण निष्काम भाव से ईश्वर अर्पण बुद्धि द्वारा दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए मनुष्य को अपने कर्तव्य कर्म करने के लिए कहा है। उपरोक्त श्लोकों में भगवान ने कामना को ही मूल रुप से पाप कर्म करने के लिए प्रेरित करने वाला बताया है। मनुष्य अपनी कामनाओं जो उसकी सामर्थय से बाहर होती हैं की पूर्ति के लिए ही रिश्वत लेता है, व्यापार में बेईमानी कर लेता है और यदि दूसरा कोई उनकी पूर्ति के रास्ते में रुकावट डालता है तब उसे मार डालने तक की सोचता है या उसे कष्ट पहुंचाता है। लेकिन उसे यह ज्ञान ही नहीं हो पाता की सारी इच्छाएं कभी भी किसी मनुष्य की पूरी नहीं हो सकती क्योंकि उनका कोई अंत ही नहीं है। इन्हीं को गलत तरीकों से पूरा करते हुए अपनी आत्मा को ही अधोगति में डाल देता है और नरक में दुख भोगकर फिर निम्न योनियों में घूमता रहता है। भगवान शंकराचार्य ने भजगोविन्दम् ग्रंथ में दूसरे ही श्लोक में कामनाओं के विषय में कहा है “हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो।” और श्लोक 26 में कहा है कि “काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़कर स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्मज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति है वे बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं। 

        मनुष्य के मन में संकल्प विकल्प के रूप में अनेक विषय आते-जाते रहते हैं, हमारी इंद्रियां उसमें सहायक हो जाती है, जैसे आंख की इच्छा होती है रूप को देखना, जीभ की स्वादिष्ट भोजन करना, श्रोत्र की शब्द सुनना आदि आदि। मन जिस इंद्रिय साथ हो जाता है और उसकी कामना में आसक्त होकर उसको पूरा करने का विचार करता है तब यदि अज्ञान के कारण बुद्धि भी उसके साथ हो जाए तब वह उचित या अनुचित का विचार किए बिना उस कामना को पूरी करने में लग जाता है। भगवान ने गीता के श्लोक 3/40 में कहा है “इंद्रियां, मन, और बुद्धि कामना के वासस्थान कहे जाते हैं । यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों के द्वारा ही ज्ञान को अच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है।” इसलिए मनुष्य को अपनी इंद्रियों को मन द्वारा वश में रखना चाहिए और अपने मन को बुद्धि या विवेक द्वारा वश में रखना चाहिए। विवेक के लिए मनुष्य को शास्त्रों का स्वाध्याय करते रहना चाहिए और निष्काम कर्म करते हुए अपने अंतःकरण को शुद्ध रखना चाहिए। गीता के श्लोक 2/71 में भगवान ने कहा है “जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित हुआ विचरता है वही शांति को प्राप्त होता है” और श्लोक 5/23 में भगवान कहते हैं कि “जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है।

        इसलिए मनुष्य को मन और इंद्रियों को अभ्यास द्वारा अपने वश में रखते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए। जब मन और इंद्रियाँ मनुष्य के अपने वश में होंगी तभी वह विवेक द्वारा कामनाओं का त्याग कर सकता है अर्थात कामनाओं पर विजय प्राप्त करके लोभ, मोह तथा क्रोध आदि से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो सकता है। इससे उसका आचरण भी सुधर जाएगा, बुरे कर्मों या पाप कर्मों से भी दूर होकर सुखी रहेगा और अपनी आत्मा को भी उन्नति के मार्ग पर ले जाएगा जो कि उसका उद्देश्य भी है। लेकिन यह सब उसको स्वयं ही करना पड़ेगा, शास्त्रों ने तो हमें मार्ग बतलाया है, उस पर चलना या अपने व्यवहार में लाना तो उसे स्वयं को ही पड़ेगा। 

धन्यवाद 
डॉ. बी. के. शर्मा

Friday, September 4, 2020

सत और असत वस्तु का विवेक - दिनांकः- 04-09-20

व्यावहारिक गीता ज्ञान

 मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है अपनी आत्मा की उन्नति करना। मनुष्यों में दो प्रकार की वृतियां होती है, एक विवेक वृत्ति जो आत्मा को उन्नत करने वाली और दूसरी अविवेक वृत्ति जो आत्मा को अधोगति में ले जाती हैं । विवेक वृत्ति द्वारा मनुष्य उत्तम आचरण करके अपना कल्याण करना चाहता है लेकिन  अविवेक वृत्ति उसे राग - द्वेष और अहंकार आदि में डालकर नीचे की तरफ ले जाने का प्रयास करती रहती है । मनुष्य के अंदर इसी प्रकार दैव और असुर संग्राम चलता रहता है। दुर्गासप्तश्लोकी के प्रथम मंत्र में आता है कि वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती है ।

ऊँ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।

अतः मनुष्य को प्रत्येक क्षण बहुत ही सावधान रहने की आवश्यकता होती है । थोड़ी सी भी असावधानी होने पर अविवेकवृत्ति उसका पतन कर सकती है। भगवान शंकराचार्य ने तत्वबोध ग्रंथ में साधक के लिए साधन चतुष्टय (चार साधन) में पहला ही साधन नित्य - अनित्य वस्तु का विवेक बतलाया है । एक ब्रह्म नित्य वस्तु है, उससे भिन्न संपूर्ण विश्व अनित्य है यही नित्य - अनित्य वस्तु विवेक है। अर्थात नित्य वस्तु ही सत है और अनित्य वस्तु असत है । भगवान गीता में सत और असत के विषय में दूसरे अध्याय के श्लोक 16 में कहते हैं :-

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभि।।

असत  वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत का अभाव नहीं है । इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।

जिस वस्तु में सदा परिवर्तन होता रहता है अर्थात जैसी वह भूतकाल में या कुछ समय पहले थी अब वर्तमान काल में वैसी नहीं है और भविष्य काल में फिर बदल जाएगी । परिवर्तन होते रहना उसका स्वभाव है, और अंत में उसका नाश हो जाता है उसको ही असत वस्तु कहते हैं। जैसे हमारा शरीर हैवह जन्म के समय जैसा थाबचपनजवानी और प्रौणावस्था  में लगातार बदलता रहा और अंत में वह समाप्त हो जाता है, सदा नहीं रहताअतः इसको असत कहा है। असत वस्तु का सदा विद्यमान रहना संभव नहीं है इसलिए असत वस्तु की सत्ता नहीं होती। जबकि सत वस्तु सदा विद्यमान रहती है उसमें कभी भी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता और न ही उसका नाश होता है। अर्थात  सत  वस्तु का कभी अभाव नहीं होता । सत वस्तु को ही नित्य, क्षेत्रज्ञ, चेतन, पुरुष, देही, शरीरी, आत्मापरमात्मा और ब्रह्म  आदि नामों से कहा गया है। जबकि असत वस्तु कोअनित्यक्षेत्रजड़प्रकृतिदेहशरीरइंद्रियां आदि कहा है । सभी पदार्थ जिनकी उत्पत्ति और विनाश होता है एवं सभी क्रियाएं जिनका आरंभ और अंत होता हैअसत ही है क्योंकि वह सब परिवर्तनशील हैं प्रत्येक परिवर्तनशील वस्तु असत है और परिवर्तनरहित वस्तु जो सदा एक सी रहती है वह  सत वस्तु है । शरीर में स्थित जीवात्मा ही इस शरीर के बालकपनजवानी और प्रौणावस्था के परिवर्तन का साक्षी रहता हैवह नहीं बदलता । यह जीवात्मा ही स्थूल शरीर की जागृत अवस्था, सूक्ष्म शरीर की स्वप्नावस्था और कारण शरीर की सुषुप्तिवस्था का भी साक्षी रहता है और नींद से जागने पर तभी मनुष्य कहता है कि मैंने यह स्वप्न देखे या मैं बड़े ही आनंद से सोया । अतः तीनों अवस्थाओं में मनुष्य के शरीर में तो परिवर्तन होता है लेकिन इसको जानने वाला (जीवात्मा) वही एक ही स्वरूप में रहता है वह तो इनको जन्म से लेकर मृत्यु तक साक्षी भाव से लगातार देखता रहता है। गीता के श्लोक 2/18 में भगवान कहते हैं कि “इस नाशरहितअप्रमेयनित्यस्वरूप जीवात्मा के यह सब शरीर नाशवान कहे गए हैं।” और श्लोक 20 में भगवान कहते हैं कि “यह आत्मा किसी काल में भी  न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही हैक्योंकि यह अजन्मानित्यसनातन और पुरातन हैशरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।” 

भगवान श्लोक 22 में कहते हैं कि “जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता हैवैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।” 

गीता के श्लोक  2/ 13 में भगवान कहते हैं कि “जैसे जीवात्मा की इस देह  में बालकपनजवानी और वृद्धावस्था होती हैवैसे ही अन्य शरीरों की प्राप्ति होती है उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता ।” 

इस प्रकार जीवात्मा (आत्मा) सत स्वरूप होने से नाशरहितअजन्मा और सदा रहने वाला है, जबकि शरीर बदलता रहता है और इसका नाश हो जाने के कारण यह असत कहलाता है। यह संसार और इसके सब पदार्थ और क्रियाएं परिवर्तनशील होने के कारण असत है जबकि शरीरों में स्थित जीवात्मा ही सत हैजो सदा एकरस रहने के कारण सभी शरीर और संसार में होने वाले परिवर्तनों को साक्षी भाव से देखता रहता है।

कठोपनिषद (द्वितीय बल्ली)  में यमराज नचिकेता से आत्मा के विषय में कहते हैं कि “नित्य ज्ञान स्वरूप आत्मा न तो जन्मता है और न ही मरता हैयह ना तो किसी का कार्य है और ना कारण ही है यह अजन्मा नित्यसदा एकरस रहने वाला और पुरातन है अर्थात क्षय और वृद्धि से रहित हैशरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं किया जा सकता ।” आगे श्लोक 20 में यमराज कहते हैं “इस जीवात्मा के हृदयरूप गुफा में रहनेवाला आत्मा (परमात्मा) सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म और महान से भी अतिमहान है। परमात्मा की उस महिमा को कामना रहित और चिंतारहित कोई बिरला साधक, सर्वाधार परब्रह्म परमेश्वर की कृपा से ही देख पाता है। 

मनुष्य को विवेक वृत्ति द्वारा नित्य और अनित्य वस्तु या सत और असत वस्तु के विषय में जानने का प्रयास करना चाहिए। सत और असत वस्तु अर्थात आत्मा और अनात्मा का बोध प्राप्त कर लेना ही ज्ञान है, एवं उसका जो विशेष रुप से अनुभव है उसका नाम विज्ञान है। समस्या तब होती है जब मनुष्य अपने सत स्वरूप (आत्मा) का संबंध असत स्वरुप (शरीर) के साथ करके अपने को ही मनबुद्धि और शरीर मानकर जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ जाता है। जबकि दोनों ही पूर्णतया भिन्न है । अज्ञान या अविवेक  वृत्ति के द्वारा वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर अर्थात सत स्वरूप होते हुए भी असत के साथ संबंध बनाकर इस संसार में अनेक योनियों में भटकता रहता है। इसलिए मनुष्य को सत और असत वस्तु का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए जिससे वह अपना उद्धार कर सके और अपनी आत्मा को अधोगति में न डालें। हमारा मनुष्य शरीर भी एक लोक हैइसमें परब्रह्म परमेश्वर और जीवात्मा नों धूप और छाया की भांति हमारे ही हृदयरूपी गुहा में रहते हैं अतः हमें इसी मनुष्य शरीर में रहते हुए सत और असत वस्तु का विवेक करके उस सतस्वरूप परमेश्वर को अपने अंतःकरण की शुद्धि द्वारा जानने का प्रयास करना चाहिए जो कि मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य है।


धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा