व्यवहारिक गीता ज्ञान
हमारा मन हमेशा किसी न किसी विषय पर सोचता रहता है। यह विषय उचित या अनुचित,
कुछ भी हो सकता है क्योंकि मन का तो काम ही संकल्प-विकल्प करते रहना है। यदि
मनुष्य की बुद्धि भी उस समय मन में आए हुए संकल्प के साथ हो जाए, तब मनुष्य वाणी
या शरीर से उस क्रिया को कर देता है और परिणाम स्वरूप सुख-दुख का अनुभव करता रहता
है। ऐसा भी देखा जाता है कि किसी मनुष्य की समाज में बहुत प्रतिष्ठा थी और अधिकांश
मनुष्यों के लिए वह एक आदर्श पुरुष था, लेकिन मन में आए हुए कुछ गलत संकल्पों के कारण वह कुछ ऐसा काम
कर देता है कि समाज को भी उस पर यकीन करना मुश्किल हो जाता है। वह स्वयं भी उस काम
के कारण जीवन भर पछताता है।
गीता में पतन हो जाने के कारण के बारे में कहा है, ‘विषयों
का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति कामना उत्पन्न होती है और कामना से क्रोध। क्रोध से मूढ़भाव आता है, मूढ़भाव से स्मृतिभ्रम हो जाता है। स्मृतिभ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि का नाश पतन का कारण बनता
है।’ यानी अगर मनुष्य का मन गलत दिशा में चिंतन करेगा और मनुष्य अपनी बुद्धि से उस
पर नियंत्रण नहीं रखेगा, तो उसका पतन होना निश्चित है। मन सही दिशा में लगा तो
मित्र है, गलत दिशा में गया, तो वह मनुष्य का शत्रु है। विषयों का सेवन मनुष्य
अपनी इंद्रियों से करता है। अगर इंद्रियों को मन का सहारा न मिले, तब वह विषयों से
दूर रह सकती हैं। विषयों में विचरती इंद्रियों में से मन जिस इंद्रिय के साथ रहता
है, वही उसकी बुद्धि हर लेती है।
कठोपनिषद में आता है, ‘‘जो सदा विवेकहीन बुद्धिवाला चंचल मन से रहता है, उसकी
इंद्रियाँ असावधान सारथी के दुष्ट घोड़ों की तरह वश में न रहने वाली हो जाती है।
और जो सदा विवेकयुक्त बुद्धिवाला और वश में किए हुए मन से संपन्न रहता है, उसकी
इंद्रियाँ सावधान सारथी के अच्छे घोड़ों की भांति वश में रहते हैं।” इसलिए मनुष्य को सारथी रूपी अपनी विवेकयुक्त बुद्धि से मन रूपी लगाम को अपने वश में रखते हुए इंद्रियों रूपी घोड़ों को सही विषयों की
तरफ ही ले जाना चाहिए ताकि शरीर रूपी रथ में सवार जीवात्मा का पतन न हो सके। गीता
में कहा है कि “निसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, परंतु
वह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। जिसका मन वश में नहीं किया हुआ है ऐसे
पुरुष द्वारा योग दुष्प्राप्य है। और जिसने मन वश में किया है, वह आसानी से इसे पा
सकता है।”
इसलिए हमें सतत अभ्यास द्वारा अपने मन को वश में रखते हुए अपना चिंतन ठीक करते
रहने का प्रयास करते रहना चाहिए। यदि कोई गलत संकल्प मन में आ रहा है, तो उसे केवल
साक्षी भाव से देखें, वह जैसे आया था- वैसे ही चला भी जाएगा। जब मनुष्य अपने मन
में आए हुए गलत विषय से अपना संबंध बनाता है, तब उसकी उसमें आसक्ति हो जाती है। इससे उसमें उसकी कामना
पैदा होती है। एक बार ऐसी कामना ऐसी कामना पूरी हुई कि फिर इनकी अंतहीन झड़ी लग
जाती है। ये पूरी नहीं होतीं, इससे हम क्रोधित होते हैं, हमारी ज्ञानशक्ति नष्ट हो
जाती है, और हम पतनोन्मुख हो जाते हैं।
(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के
अंतर्गत 17 सितम्बर 2020 को प्रकाशित हुआ है)
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