Thursday, May 28, 2020

मनुष्य का अपने स्तर (स्थिति)से पतन होने का कारण - दिनांक 25 मई 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

     🌹भगवान गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 62-63 में मनुष्य का अपनी स्थिति से नीचे गिर जाना या उसके पतन के कारण के विषय में कहते हैं:-

🌞 ध्यायतो विषयान पुंस: संडगस्तेषूपजायते।
       सङगात्सजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते ।।
       क्रोधाद्भवति  सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
       स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।🌞

    🌹विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ती हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पढ़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यंत मूढ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढभाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थित से गिर जाता है।

   🌹भगवान ने मनुष्य के पतन होने के या उसका अपने स्तर से नीचे गिरने के सात कारण बताये हैं।  जिसमें से पहला कारण बहुत ही महत्वपूर्ण हैं और यही बाकी अन्य के लिए जिम्मेदार भी है, यदि हम इसी को अपने अभ्यास द्वारा ठीक कर ले तब बाकी कारण अपने आप ही नष्ट हो जाते हैं। अतः हमें मूल कारण पर ही अपना ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। सात कारण निम्न प्रकार से हैं:-

१. मनुष्य का अपने मनद्वारा संसार के विषयों का चिंतन करते रहना जिनमें से अधिकतर निरर्थक ही होते हैं, जिन से बचा जा सकता है।

२. विषयों का चिंतन करने से उनमें आसक्ती या राग का पैदा हो जाना।

३. आसक्ती या राग होने से उन विषयों को भोगने की कामना या इच्छा पैदा हो जाना।

४. यदि उन विषयों को भोगने की हमारी इच्छा पूरी हो गई तब तो ठीक है उसके बाद ओर इच्छा होगी क्योंकि इच्छाएं कभी भी समाप्त नहीं होती। एक के पूरा  होने से पहले ही दूसरी पैदा हो जाती है। यदि किसी कारण हमारी इच्छा पूरी नहीं होती तब हमें क्रोध आता है।

५. हमारे अंदर क्रोध उत्पन्न होने के बाद मूढभाव उत्पन्न हो जाता है, उस समय हम ठीक से सोच विचार नहीं कर पाते और कुछ भी अनर्थ कर देते हैं जिससे बाद में पछताना पड़ता है। क्रोध के कारण हमारी मानसिक स्थिति भी कुछ समय के लिए हमारे वश में नहीं रहती।

६. मूढभाव से स्मृति में भ्रम पैदा हो जाता है अर्थात हमारी स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है, उस समय हमारा ज्ञान भी नष्ट हो जाता है, किसी को भी चाहे वह अपने से बड़ा हो या कोई भी हो उसको भला-बुरा बोल देते हैं।

७. स्मृति भ्रम से हमारी बुद्धि नष्ट हो जाती है । कभी-कभी हम देखते भी हैं कि बड़ा बुद्धिमान मनुष्य भी ऐसी स्थिति आने पर अनुचित कार्य कर बैठता है। जिसकी उससे कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। उस समय उसको अपने कर्तव्य और अकर्तव्य का भी ज्ञान नहीं रहता।

      🌹अंत में बुद्धि या ज्ञान शक्ति का नाश हो जाने पर मनुष्य का पतन हो जाता है अर्थात वह अपने स्तर या स्थिति से गिर जाता है। हम आज देखते भी हैं कि किसी मनुष्य का समाज में बहुत अच्छा स्थान है सभी उसका आदर करते हैं लेकिन कुछ समय बाद पता चलता  है कि उससे कोई ऐसा कार्य हो गया कि वह तो जेल चला जगह और बहुत ही अनुचित कार्य कर बैठा। बाद में वह स्वयं ही पछताता होगा।

     🌹यदि हम इस सबके मूल में जाएं तब देखते हैं कि केवल हमारे मन द्वारा संसार के विषयों या पदार्थों का लगातार चिंतन करते रहना ही है। मन का तो काम ही संकल्प-विकल्प करना है। जिसने अपने मन को वश में कर लिया या जीत लिया उसने तो समझो संसार को ही जीत लिया। मन ही हमारा मित्र है यदि सही चिंतन करता है और यही हमारा शत्रु है यदि चिंतन ठीक नहीं करता। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। अभ्यास के द्वारा मन को बुद्धि और विवेक से उचित दिशा में ले जा सकते हैं। भगवान ने तो गीता के श्लोक १२/८ में कहा है कि मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्धि को लगा, इसके उपरांत तू मुझ में ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। अतः  जब जब हमारा मन संसार के विषयों का फालतू चिंतन करे तब तब उसे रोक कर परमात्मा के नाम में लगा दें। उपनिषद में शरीर को रथ कहां है, जिसमें हमारी इंद्रियां घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी है, और जीव (हम) उस रथ में सवार होकर इस संसार की यात्रा कर रहा है। अतः मन रूपी लगाम को अपने बुद्धि रूपी सारथी द्वारा वश में रखना चाहिए, अन्यथा हमारी इंद्रिय रूपी घोड़े हमारे शरीर रूपी रथ को गलत दिशा में ले जाकर हमारा पतन कर देंगे और हमें अपनी स्थिति से गिरा देंगे।इसलिए हमें अभ्यास द्वारा मन को बस में रखकर अपना चिंतन ठीक करते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए, इसी से हमारा कल्याण संभव है। हम जो भी कार्य करते हों, चाहे विद्यार्थी हों,  व्यापारी हों या कहीं नौकरी करते हों, अपना कार्य पूरे मन से करें , उसे कहीं और भटकने ना दें । उस कार्य से मुक्त होने के बाद मन से ईश्वर का चिंतन कर सकते हैं , शास्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं। अपने मन का निरीक्षण करते रहे कि वह कहां जा रहा है इसे उधर से हटाकर ठीक चिंतन में लगाकर रखें। मन के गलत चिंतन होने के कारण कि हम अपने स्तर से गिर सकते हैं और इसे उचित दिशा में लगाकर अपना इस संसार से उद्धार भी कर सकते हैं। 

     
        धन्यवाद
        🌿बी.के. शर्मा

Monday, May 25, 2020

कर्म बंधन से मुक्ति - दिनांक 24 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

भगवान गीता के अध्याय 4 के श्लोक 23 में कर्म बंधन से मुक्त पुरुष के  लक्षण बताते हैं:-

गतसॾग्स्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।
यज्ञायाचरत: कर्म समग्नं प्रविलीयते ।। 🎊

    जिसकी आसक्ती सर्वथा नष्ट हो गई हो , जो देहाभिभान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञ संपादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म भली-भांति विलीन हो जाते हैं।

   भगवान ने इस श्लोक में मनुष्य के संपूर्ण कर्म विलीन होने की बात कही है, अर्थात क्रियमाण (वर्तमान के कार्य), संचित और प्रारब्ध कर्म जब विलीन (समाप्त) हो जाते हैं, तब ऐसा मनुष्य जीवित अवस्था में ही मुक्त हो जाता है। इसके लिए भगवान ने हमें चार बातों पर अपना ध्यान केंद्रित करके और उनको अपने दैनिक व्यवहार में उपयोग करते हुए अपना कर्तव्य कर्म करते हुए मुक्त हो जाना है।

१. आसक्ति के बिना अपने कर्म करने हैं

२. देह (शरीर ) के अभिमान और ममता से रहित होकर कर्म करना है

३. चित्त का निरंतर परमात्मा के साथ अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप के साथ  स्थित रखते हुए कर्म करने हैं तथा
४. यज्ञ संपादन अर्थात स्वार्थ रहित होकर दूसरों के हित के लिए कर्म करने हैं।

     जब कर्म करते हुए हमारे अंदर यह भाव आता है कि यह कर्म तो मैं अपने हित के लिए कर रहा हूं उससे मुझे यह फल प्राप्त होगा और फिर में अनेक प्रकार के भोगों का सुख प्राप्त करूंगा, तब वह कर्म में आसक्ति के कारण उस कर्म के साथ अपना संबंध रखकर बंधन में पड़ जाता है। हम, व्यक्ति, परिस्थिति, क्रिया और पदार्थ जो की जड़ है उनके साथ अपना संबंध रख कर या उनमें आसक्त होकर स्वयं ही अपने को बंधन में डालते हैं। यदि हम अपने कर्तव्य कर्म पूर्ण निष्काम भाव से अर्थात कोई कामना न रखते हुए, बिना किसी स्वार्थ के, दूसरों के हित के लिए, करें तब हम कर्म करते हुए भी इनसे मुक्त हो सकते हैं, फल तो हमें अपने प्रारब्ध के अनुसार मिलेगा ही, बस केवल उसकी कामना न रखते हुए अपने नियत कर्म करते रहना है। भगवान ने गीता के श्लोक 18 /46 में कहा है कि जिस ईश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अतः हमें  कर्म करते हुए अपने भाव अपने स्वार्थ के लिए न रखते हुए, दूसरों के हित का भाव रखते हुए करने चाहिए।

     कर्म करते हुए हमें देहाभिमान अर्थात कर्तापन (मैं- पन) और ममता (मेरा-पन) को नहीं रखना है।अगर विचार करें कि कर्ता कौन है, क्या हमारा मन कर्ता है,  वह तो बुद्धि के अधीन होकर कर्म करता है, क्योंकि बुद्धि जिस कर्म को करने का निश्चय करती है, मन वैसा ही कामना करने लगता है । बुद्धि भी कर्ता नहीं हो सकती, चूंकि मन और बुद्धि तो अंत:करण के अंतर्गत आते हैं अतः करण या साधन है। ‌ भगवान ने गीता के श्लोक 18 /18 में तीन प्रकार के कर्म संग्रह, कर्ता, करण तथा क्रिया बताएं हैं। कर्म करने वाले का नाम कर्ता है, जिन साधनों से कर्म किया जाए, उनका नाम करण है और करने का नाम क्रिया है। करण ( मन ,बुद्धि आदि ), कर्ता के अधीन रहते हैं, और क्रिया की सिद्धि में अत्यंत उपयोगी होते हैं । अतः मनुष्य को  कर्म (क्रिया) करते हुए, मन, बुद्धि आदि जो साधन (करण) हैं उनका बहुत ही विवेक पूर्वक शास्त्रानुसार मैं- पन और  मेरा- पन से रहित होते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए। इसी मैं-पन और मेरा- पन जो हमारे अंदर अनंत जन्मों से शरीर के साथ संबंध मानने से बना हुआ है उसको धीरे-धीरे विवेक पूर्वक छोड़ने का प्रयास करते रहना है, ताकि हम कर्म करते हुए उससे संबंध न रखते हुए मुक्त हो सकें।

   तीसरी बात भगवान कहते हैं कि जिस का चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थिर रहता है अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप या आत्मभाव में स्थिर रहता है । उसे यह ज्ञान रहता है कि वह तो ईश्वर का अंश होने से चेतन है जबकि सभी क्रिया, करण , पदार्थ , परिस्थिति जड़ है,  कर्म का आरंभ और अंत होता है, पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होते है इसलिए वह असत हैं जबकि वह स्वयं सत हैं, अर्थात इस शरीर से पहले भी था, इस शरीर के नाश हो जाने पर भी रहेगा । तब बीच की अवस्था में ही वह तमाम जड़ चीजों के साथ संबंध बनाकर क्यों फंसना चाहता है।  उसे तो बस निस्वार्थ भाव से  अपने कर्तव्य कर्म करने हैं ताकि वह  मुक्त हो सके।

  चौथी बात भगवान केवल यज्ञ संपादन के लिए कार्य करने वाले मनुष्य के विषय में कहते हैं। जब हमारे समस्त कर्म दूसरों के हित के लिए, बिना कोई अपना स्वार्थ रखते हुए होते हैं तब यही यज्ञ है ।  अपने वर्ण , आश्रम, परिस्थिति के अनुसार जिस मनुष्य का जो शास्त्र दृष्टि से निहित कर्तव्य है वहीं उसके लिए यज्ञ है । अतः उस शास्त्र विहित यज्ञ का संपादन करने के लिए हमें अपने कर्तव्य कर्म , पूरी निष्ठा,  ईमानदारी, निस्वार्थ भाव एवं निष्काम पूर्वक करने चाहिए।

   अतः यदि हम भगवान द्वारा  बतलाई गई चारों बातों का अपना कर्म  करते हुए  ध्यान पूर्वक पालन करते रहने का प्रयास करते रहेंगे तब हमारा संपूर्ण कर्म जिसमें हमारे पूर्व जन्मों के संचित कर्म जो हमारे अंत:करण में संचित हैं और हमारे वर्तमान जन्म के कर्म भी विलीन हो जाएंगे और हम इस जन्म मृत्यु के चक्र से छूट जाएंगे।

      धन्यवाद🙏
       बी.के. शर्मा

Thursday, May 21, 2020

कर्म बंधन से छूटने का उपाय - दिनांक 20 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

    भगवान गीता के अध्याय 4 के श्लोक 22 में कर्म करते हुए कर्म बंधन से छूटने के उपाय के विषय में कहते हैं:-
 
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्बातीतो विमत्सर:।🌷
सम: सिद्धावसिंद्भौ च कृत्वापि न निबध्यते ।। 

         जो बिना इच्छा के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है,  जिसमें ईर्ष्या  का सर्वथा अभाव हो गया है , जो हर्ष-शोक आदि द्वन्दो से सर्वथा अतीत हो गया है- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्म योगी कर्म करता हुआ उन से नहीं बंधता ।

        इस श्लोक में भगवान ने चार बातों का पालन करने के लिए कहा है, जिससे कर्म करते हुए भी कर्म योगी कर्म बंधन से मुक्त रहता है:

१. कर्म करते हुए किसी भी प्रकार की फल की इच्छा न रखते हुए जो प्रारब्ध के अनुसार पदार्थ प्राप्त हो जाये उसमें सदा संतुष्ट रहना।

२. किसी भी प्रकार की किसी के भी साथ ईर्ष्या न रखना ।

३. हर्ष-शोक आदि द्वन्दों से प्रभावित न  होना तथा

४. सिद्धि और असिद्धि में समान भाव रखना।

       इससे पूर्व भी भगवान ने गीता के अध्याय 2 के श्लोक 50 और 51 में कहा है कि सम बुद्धि से युक्त होकर ही हमें अपने कर्तव्य कर्म करते रहने चाहिए।  यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है । अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है। सम बुद्धि युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है। सम बुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर जन्म रूप बंधन से मुक्त होकर निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं।

      शास्त्रों में कर्म तीन प्रकार के बतलाए गए हैं  

१. क्रियमाण  
२. संचित 
३. प्रारब्ध।  

     वर्तमान में हमारे द्वारा किए जाने वाला प्रत्येक कार्य क्रियमाण कहलाता है,  जैसे ही यह पूरा हो जाता है तत्काल ही संचित बन जाता है । अतः वर्तमान में हमारे किए जाने वाले कार्य  हमारे अंतःकरण में संचित होते जाते हैं। इनमें से कुछ पुण्य (अच्छे) कर्म और कुछ पाप (बुरे) कर्म होते हैं । हमारे ही संचित कर्म उचित समय आने पर फल रूप में या प्रारब्ध के रूप में हमें भोगने के लिए सुख-दुख रूप से मिलते हैं।  अतः हमारे द्वारा किए जाने वाले कर्म का फल हमारी इच्छा अनुसार ही मिलेगा ऐसा कैसे कह सकते हैं । उदाहरण के लिए    यदि  हम कोई व्यापार फल की इच्छा रखते हुए शुरू करते हैं कि इससे मुझे इतना लाभ होगा,  फिर मैं मकान एवं गाडी लूंगा आदि भोगों की भी इच्छा रखते हैं । तब यदि हमारे अनुकूल परिणाम नहीं हुआ तब  हमें दुख होता है और यदि हो गया तब सुख मिलता है । लेकिन यदि विचार करें तब कर्म का फल या प्रारब्ध तो हमारे बस में नहीं है,  यह तो हमारे संचित कर्मों पर ही निर्भर करता है । तब हम कर्म शुरू करते समय फल की इच्छा ही क्यों रखते हैं । भगवान ने तो गीता के श्लोक 2/47 में हमें बताया है कि तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं । इसलिए तू कर्मों के फल का हेतू मत हो तथा तेरा कर्म न करने में भी आसक्ती न हो।

      शास्त्रों में आता है कि जब तक अंत:करण में संचित कर्म रहते हैं तब तक वह प्रारब्ध रूप में हमारे सामने आते रहते हैं।  क्योंकि संचित कर्मों से स्फुरणा  अर्थात हमारी बुद्धि की वृत्तियां या हमारे अंदर उस तरह के कार्य करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है। स्फुरणा से क्रियमाण   कर्म उत्पन्न होते हैं , क्रियमाण  से पुन: संचित और संचित से प्रारब्ध बनता है।  इसलिए इस कर्म प्रभाव में हम हमेशा चलते रहते हैं और  मुक्ति नहीं हो पाती। यदि हम देखें तब संचित कर्म द्वारा हमारे अंदर जो कर्म प्रेरणा उत्पन्न होती है उन कर्मों को करने की विधि को लेकर हम पूरी तरह से स्वतंत्र हैं । यहीं पर हमें गीता में भगवान द्वारा बताए गए रास्ते पर चलना है।  अपने कर्तव्य कर्म हमें बिना फल की इच्छा रखते हुए, आसक्ति रहित होकर, कर्ताभाव न रखते हुए पूर्व निर्लिप्त भाव से लोकहित की दृष्टि रखते हुए करने चाहिए ताकि हम कर्म बंधन में न पडकर इन से मुक्त हो सकें। इससे हमारे पूर्व में संचित कर्म भी नष्ट हो जाते हैं।    

      रामचरितमानस में भी आता है कि शंकर भगवान कहते हैं:

 "होइहि सोई जो राम रचिराखा। 
को करि तर्क बढ़ावै साखा ।।
अस कहि लगे जपन हरिनामा । गई सती जहं प्रभु सुखधामा ।।

        कि जो कुछ राम ने रच रखा है वही होगा। तर्क  करके कौन विस्तार बढ़ाये।  मन में ऐसा कहकर शिवजी भगवान श्री हरि का नाम जपने लगे और सती जी वहां गई जहां सुख के धाम प्रभु श्रीराम थे। इसी प्रकार हमें भी कर्म करने पर फल की इच्छा न रखते हुए अपने कर्म  करने चाहिये,अंत में वही फल मिलेगा जो ईश्वर की इच्छा होगी और हमारा प्रारब्ध  होगा । फिर हम इच्छा और आसक्ति रखकर क्यों अपने आप को कर्म बंधन में फंसा कर रखते हैं।

      उपरोक्त श्लोक में भगवान द्वारा कही गई चारों बातों का अपने दैनिक व्यवहार में और अपने कर्तव्य कर्म में हमें पालन करने का प्रयास करते रहना चाहिए ताकि हम कर्म करते हुए भी कर्म बंधन से मुक्त होकर इस जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट सकें।


       🙏धन्यवाद
          बी .के. शर्मा 

Tuesday, May 19, 2020

कर्म बंधन से छूटने का उपाय - दिनांक 19 मई 2020





व्यावहारिक गीता ज्ञान 
 
      भगवान गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 50 में कर्म बंधन से छुटने के उपाय के विषय में कहते हैं:-

👑  बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते् ।
        तस्माधोगाय युज्यस्व  योग: कर्मसु कौशलम्।।

      समबुध्दियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है, अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है ।  इससे तू समत्वरूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है, अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।

     भगवान ने गीता में कहा है "समत्व योग उच्यते" अर्थात  समत्व ही योग कहलाता है।  श्लोक 5/19 में भगवान कहते हैं कि जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि परमात्मा निर्दोष और सम हैं, इससे वे ब्रह्म में ही स्थित है।

     जब हम सकाम भाव अर्थात कामना, आसक्ति, फल की इच्छा, रखते हुए कर्म करते हैं तब ऐसे कर्म हमारे अंतःकरण में संचित होते रहते हैं और इसी कामना और आसक्ति के कारण हमारे जन्म और मृत्यु होते रहते हैं । लेकिन जब हमारे कर्म समभाव में स्थित होकर अर्थात राग - द्वेष, हर्ष -शोक, सुख-दुख आदि से रहित होकर  होते हैं तब हम कर्म करते हुए भी उनसे मुक्त ही रहते हैं चूंकि हम उनमें ममता, आसक्ति और कामना आदि नहीं रखते । केवल अपना कर्तव्य कर्म समझकर लोकहित के लिए निष्काम भाव से करते हैं। यदि हम विचार करें तब देखेंगे कि जब हम पूर्ण निष्काम भाव से यदि जमीन में बीज बोए तब भी फसल तो आएगी ही, वृक्ष तो उगेंगे और फल भी आएंगें, लेकिन उनमें हमारी ममता और आसक्ति न होने के कारण यदि फसल ठीक भी नहीं हुई तब हम ज्यादा दुखी नहीं होंगे, चूंकि हमने तो अपना कर्तव्य कर्म लोकहित में किया है।  भगवान ने हमें जो जिम्मेदारी दी है और शरीर एवं इंद्रियां दी हैं, हम तो उनका उपयोग करके,  उन्हीं के द्वारा दिए गए कर्म को लोकहित में कर रहे हैं इसमें हमारी आसक्ति क्यों हो । जैसे बैंक में कार्य करने वाला कर्मचारी, करोड़ों रुपए को रोजाना प्राप्त करता है और देता भी है, लेकिन उसे उन्हें लेने में ना तो हर्ष होता है और न देने में दुख होता है । वह तो निर्लिप्त भाव से अपना कार्य करता रहता है । रुपयों की लेने और देने में समान भावही रखता है। अतः हम भी तो ईश्वर का ही दिया हुआ कर्म उसी के बनाए हुए संसार के लिए कर रहे हैं फिर इसमें आसक्ति और ममता क्यों रखें जब सब कुछ यहीं छोड़कर चले जाना है । आसक्ति के कारण शरीर छोड़ने में भी कष्ट होगा और फिर जन्म लेकर आना पड़ेगा।

    गीता के श्लोक 2/38 में भगवान कहते हैं कि जय- पराजय, हानि- लाभ और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध (कर्म) के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध (कर्म) करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा । उपरोक्त श्लोक में भी भगवान ने यही कहा है कि समभाव में स्थित रहते हुए अपने सभी कर्म कर , यही कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।  समबुद्धि से युक्त हुआ मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है। उसका कर्मों से कुछ भी संबंध नहीं रहता। अतःउसके द्वारा किए गए कर्म पुनर्जन्म रूप फल नहीं दे सकते।  इसलिए हमें समभाव में स्थित रहते हुए अपने कर्तव्य कर्म करते रहने का प्रयास करना चाहिए ताकि हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकें।

       भगवान गीता के श्लोक 2/ 51 में भी कहते हैं. "क्योंकि सम बुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं "।भगवान ने संमबुध्दि से युक्त पुरुष को ज्ञानी कहा है और समबुद्धि से युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग कर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है । समान भाव  (समता) में स्थित रहने पर उसमें राग- द्वेष, फल में आसक्ति आदि तो हो ही नहीं सकते,  वह तो निर्लिप्त भाव से ही अपने कर्तव्य कर्म लोकहित में करता है‌। समता रूप योग के प्रभाव से उसके द्वारा किए गए कर्मों के फल से उसका संबंध विच्छेद हो जाने के कारण वह कर्म बंधन से छूट कर इसी जन्म में मुक्त होकर निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाता है । अतः हमें भी  समभाव में रहते हुए अपने कर्म करते रहने का प्रयास शुरू कर देना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है।


    🙏 धन्यवाद🙏
    बी.के. शर्मा🎊

Friday, May 15, 2020

शांति प्राप्त मनुष्य - दिनांक 12 मई 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान-

      भगवान गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 71 में शांति प्राप्त मनुष्य के लक्षण बताते हैं:-

🌈 विहाय कामान्य: सर्वान्युमांश्र्चरति नि:स्पृह। ️
निर्ममो निरहंकार: स शांतिमघिगच्छति।। 🌥

       जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ बिचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है, अर्थात वह शांति को प्राप्त है।

     भगवान ने शांति की प्राप्ति के लिए चार चीजों के त्याग की  बात इस श्लोक में हमारे लिए कही है। 
१. कामना 
२. स्पृहा  
३.ममता और   
४.अहंकार।  
 
    यदि वास्तव में हम विचार करें तब देखते हैं कि हमारा वास्तविक स्वरूप तो शांति को प्राप्त ही है "शांताकारं"। लेकिन इच्छाओं, ममता , आसक्ति और मन्नन (कर्ता भाव) के कारण ही हम अधिकांशतः अशांत रहते हैं । जो अनुकूल वस्तु हमारे पास नहीं होती उसको हम प्राप्त करने की कामना करते हैं और जब वह प्राप्त हो जाती है , तब दूसरी वस्तु प्राप्त करने की इच्छा हो जाती है , यही कामनाएं आती जाती रहती हैं , कभी समाप्त नहीं होती । जब तक कि हमें ज्ञान नहीं हो जाता और हम इनका  त्याग करके अपना कर्तव्य कर्म निष्काम भाव से नहीं शुरु करते । प्रारब्ध के अनुसार हमें आवश्यकता अनुसार भोग तो प्राप्त होते ही रहेंगे,  फिर हम कामना करके क्यों अपने आप को अशांत करते हैं।

     भगवान ने इसके पूर्व के श्लोक 2/70 में कहा है कि जैसे संपूर्ण नदियों का जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है , पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है । ऐसे ही संपूर्ण भोग- पदार्थ  जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किए बिना ही उसको प्राप्त होते हैं , वही मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है,  भोगों की कामना वाला नहीं।

   जैसे समुद्र को जल की आवश्यकता न रहने पर भी तमाम नदियों का जल उसमें आकर मिलता रहता है लेकिन तब भी समुद्र विचलित नहीं होता , उसमें बाढ़ नहीं आती , वह अपनी मर्यादा में ही रहता है। सारी नदियों के जल उसमें बिना किसी प्रकार की विकृति उत्पन्न किए हुए ही विलीन हो जाते हैं। उसी प्रकार स्थिर बुद्धि वाले शांत मनुष्य में भोगो की कामना  या इच्छा ना होते हुए भी , प्रारब्ध के अनुसार जो भोग उसे प्राप्त होते हैं उनसे वह हर्ष - शोक , राग -द्वेष , लोभ -मोह आदि से युक्त नहीं होता अर्थात  अपनी वास्तविक स्वरूप से विचलित नहीं होता । यदि  आज के समय या युग में वह दुःख या शोक के कारण थोड़ा विचलित  भी होता है तब यथा शीघ्र ही उसे बाहर निकल जाता है उसे प्रारब्ध  समझ कर भोग लेता है। इस कारण वह अशांत नहीं होता।

     इसी प्रकार जब हमारी सांसारिक वस्तुएं जो हमें प्राप्त हैं उनमें हम जब ममता और आसक्ति रखते हैं और मैं ही सब कार्य कर रहा हूं ऐसा कर्ता भाव रखते हैं । तो इस संबंध रखने के कारण भी हम अशांत रहते हैं । अतः  हम अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित रहते हुए पूर्ण निष्काम भाव से अपने कर्तव्य कर्म पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करते रहें । प्रारब्ध के अनुसार हमारी आवश्यकताएं   तो पूरी होती ही रहेंगी , इनकी चिंता नहीं करनी चाहिए । भगवान के अनुसार उपरोक्त चार चीजों के त्याग द्वारा ही हमें शांति प्राप्त हो सकती है।

       🙏 धन्यवाद 
         वी .के. शर्मा 

कर्म बंधन से मुक्ति - दिनांक 11 मई 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान    

  🌷भगवान गीता के ज्ञान कर्म सन्यास योग नामक चौथे अध्याय के श्लोक 14 में कर्म बंधन से मुक्त होने के विषय में कहते हैं:

 न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।। 🌈


       कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है,  इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते।  इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है,  वह भी कर्मों से नहीं बंधता।

      चतु:श्लोकी भागवत के पहले ही श्लोक में भगवान कहते हैं कि इस सृष्टि के पूर्व में केवल में था। मेरे सिवा कुछ भी नहीं था, न सत और न असत (यानी न कार्य न कारण), इस सृष्टि में भी मैं ही हूं और सृष्टि के लय के बाद भी जो बचेगा वही मैं हूं । अतः:  सृष्टि के पूर्व में, वर्तमान में और अंत में भगवान ही भगवान हैं, उनके अतिरिक्त कुछ नहीं हैं,  वही निमित्त और उपादान कारण हैं।

    इसी प्रकार भगवान गीता के श्लोक 10/20 में कहते हैं कि मैं सब भूतों के हृदय में स्थित उनका आत्मा हूं तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूं। अतः सभी कुछ भगवान का ही स्वरूप है। जगत में होने वाली सभी क्रियाएं, भगवान की ही लीला है।  उपनिषद में आता है कि भगवान ने सोचा कि अब खेलना है तो अकेले में खेल होता नहीं, 💦"एकाकी न रमते" तो 💦"एको-हं- बहुश्याम" एक ही बहुत बन जाएं और एक से बहुत  बन गए।

    उपरोक्त श्लोक में भगवान यही कहते हैं कि कर्मों के फल रुप किसी भी भोग में मेरी जरा भी स्पृहा नहीं है----अर्थात मुझे किसी भी वस्तु की कुछ भी अपेक्षा नहीं है इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। भगवान कहते हैं कि इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है वह भी कर्मों से नहीं बंधता।

      भगवान ने हम मनुष्यों को भी श्लोक 4/27 में  कहा है कि संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है,  ऐसा अज्ञानी   🌿"मैं कर्ता हूं"🌞 ऐसा मानता है । अतः यदि हम अपने कर्म, ममता, आसक्ति, फल की इच्छा, कर्तापन के अहंकार के साथ करेंगे तब हमारे द्वारा किए गए कार्य संस्कार रूप में हमारे अंतःकरण में संचित हो जाते हैं और वह हमें प्रारब्ध रूप में जन्म- मरण  होते हुए भोगते रहने पड़ेंगे। 🐤 इसलिए भगवान ने गीता के श्लोक 3/19  में कहा है कि तू निरंतर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्य कर्म को  भली-भांति करता रहे ।  क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है, अर्थात परम तत्व को जानकर कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।🌥

         🙏 धन्यवाद     
           बी.के .शर्मा️

Tuesday, May 12, 2020

सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण - दिनांक 10 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

     भगवान ने गीता में मनुष्यों को उनकी बुद्धि के आधार पर तीन श्रेणियों में रखा है। सात्विक बुद्धि वाले मनुष्य जो कि कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को , बंधन और मोक्ष आदि को यथार्थ रूप से जानता है।  वहीं राजसी बुद्धि वाले मनुष्य धर्म और अधर्म को, कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ रूप से नहीं जान पाते। इसके अलावा तामसी बुद्धि वाले मनुष्य अधर्म को भी यह धर्म है ऐसा मान लेते है तथा इसी प्रकार अन्य पदार्थों को भी विपरीत मान लेते हैं।

    धर्म और अधर्म क्या है, इस विषय में भागवत महापुराण के द्वादश स्कंध के तीसरे अध्याय में राजा परीक्षित के पूछने पर श्री शुकदेव जी ने बताया की धर्म के चार चरण होते हैं- सत्य, दया, तप और दान।  धर्म स्वयं भगवान का स्वरूप है।  धर्म के समान अधर्म के भी चार चरण हैं- असत्य, हिंसा, असंतोष और कलह।  सतयुग में धर्म के चारों चरण मौजूद रहते हैं।  त्रेता युग में धर्म के सत्य आदि चरणों का चतुर्थांश क्षीण हो जाता है।  द्वापर युग में हिंसा,असंतोष, झूठ और द्वेष-अधर्म के इन चरणों की वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्म के चारों चरण-तपस्या, सत्य, दया और दान आधे आधे क्षीण हो जाते हैं।  परंतु कलयुग जो आजकल चल रहा है- में तो अधर्म के चारों चरण अत्यंत बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्म के चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है।  कलयुग के अंत में तो उस चतुर्थांश का भी लोप हो जाता है।

     गीता के अनुसार सात्विक बुद्धि वाले मनुष्य धर्म और अधर्म को यथार्थ रूप से जानकर धर्म का पालन करते हुए अपना जीवन निर्वाह करके अंत में मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।  जबकि राजसी  बुद्धि वाले मनुष्य उपरोक्त धर्म और अधर्म को स्पष्ट रूप से अपने लोभ और भोगों की इच्छा के कारण नहीं जान पाते, अतः मध्यम श्रेणी में आते हैं।  किंतु तामसी बुद्धि वाले मनुष्य अपने मोह और अज्ञान के कारण अधर्म को ही अपना धर्म मानते हैं । और अधर्म का ही पालन करते हुए अधोगति को प्राप्त होते हैं।  भगवान ने गीता के श्लोक 14/18 में कहा है की सत्वगुण में स्थित पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकों को जाते हैं, रजोगुण में स्थित राजस पुरुष मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं और तमोगुण के कार्य रूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादि  में स्थित तामस पुरुष अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच योनियों को तथा नरकों को प्राप्त होते हैं।

    सभी प्राणियों में 3 गुण होते हैं-सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।  काल  की प्रेरणा से समय-समय पर शरीर, प्राण और मन में यह  गुण कम और ज्यादा भी होते रहते हैं। भगवान ने गीता के श्लोक 14/11 में कहा है-कि जिस समय इस देह में तथा अंतःकरण और इंद्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है , उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्वगुण बढा है।  इस विवेक शक्ति और ज्ञान के कारण सात्विक बुद्धि वाला मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य , बंधन और मोक्ष तथा धर्म आदि को यथार्थ रूप से जान लेता है।  तथा उसमें राग- द्वेष, दुख-शोक, चिंता , भय और आलस्य आदि का अभाव सा हो जाता है।

    भगवान ने श्लोक 14/12  में कहा है कि रजोगुण के बढ़ने पर लोभ प्रवृत्ति,  स्वार्थ बुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरंभ , अशांति और विषय भोगों की लालसा -  यह सब उत्पन्न होते हैं।  रजोगुण के बढ़ने पर मनुष्य के अंतःकरण में सत्व गुण के कार्य जैसे ज्ञान , विवेक शक्ति आदि और तमोगुण के कार्य जैसे कर्मों में  इच्छा का  न होना आलस्य , आदि दब जाते हैं।  उसके अंदर धन का लोभ , स्वार्थ बुद्धि ,भोगों की इच्छा आदि उत्पन्न हो जाती है।  मन चंचल हो जाता है नए-नए कर्म कर के अधिक से अधिक धन एकत्र करना चाहता है, उचित समय पर उस धन को लोकहित या दान में भी नहीं लगाना चाहता।

   गीता के श्लोक 14/13 मैं भगवान कहते हैं कि तमोगुण के बढ़ने पर अंतःकरण और इंद्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य कर्मों में अप्रवृत्ति और  प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अंतःकरण की मोहनी वृतियां यह सब उत्पन्न होते हैं । तमोगुण के बढ़ने पर विवेक शक्ति का अभाव हो जाता है अतः किसी विषय को समझने की शक्ति का ना रहना आदि। विवेक शक्ति न होने के कारण ऐसा मनुष्य अधर्म को धर्म मानता है और करने योग्य कर्म को न करके उनके विपरीत कर्म करता है।  

   उपरोक्त लक्षणों को ध्यान में रखते हुए हमें अपना लगातार आत्मनिरीक्षण करते रहना चाहिए कि हमारे अंदर कौन सा गुण बढ़ और घट रहा है।  हमें सचेत रहते हुए रजोगुण और तमोगुण को  दबाकर सत्व गुण बढ़ाते रहना चाहिए। इसी में हमारा कल्याण निहित है और हम अपना इसी मनुष्य जीवन में उद्धार कर सकते हैं।

        🙏 धन्यवाद🙏
         बी. के. शर्मा। 

आहार की पाचन क्रिया (वैश्वानर अग्नि) - दिनांक 9 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान - 

        भगवान ने गीता के अध्याय 17 में हमें 3 तरह के भोजन, सात्विक, राजस और तामस के विषय में विस्तार से बताया है। हम जैसा आहार लेते हैं वैसा ही हमारा अंतः करण होता है।  मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ही हमारे अंतःकरण हैं। अंत: आहार का असर हमारे मन, बुद्धि ,चित्त और अहंकार पर ही पड़ता है । आहार के आधार पर ही हमारा पूरा व्यक्तित्व बन जाता है ।भगवान ने गीता के श्लोक 6/17 में कहा है की दुखों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार-विहार करने वाले को, यथा योग्य कर्मों में चेष्टा करने वाले को तथा यथा योग्य सोने और जगाने वाले का ही सिद्ध होता है। अतः भगवान ने हमें कैसा आहार लेना चाहिए और कितनी मात्रा में लेना चाहिए आदि के विषय में बताया।

         भगवान ने गीता के पुरुषोत्तम योग नामक अध्याय 15 के श्लोक 14 में हमारे द्वारा लिए गए अनेक प्रकार के आहार की पाचन क्रिया के विषय में बताया है:-

अहं वैश्र्वानरो भूत्वा प्राणीनां देहमाश्रित:।
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम।। 🎊🌈

        मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूं ।

        जैसा कि हम जानते हैं कि हमारे द्वारा लिए गए आहार हमारे आमाशय में जाते हैं और वहां पर जो जठराग्नी मौजूद है वह उसको पचाती है , और फिर प्राण और अपान वायु द्वारा वह रस और अन्य पदार्थ शरीर के विभिन्न अंगों में जाकर शरीर का पोषण करते हैं  । इसी जठराग्नि को वैश्र्वानर अग्नि कहते हैं , जो कि भगवान ने कहा कि यह मैं ही हूं । अर्थात हमारे द्वारा लिए गए आहार को भगवान के प्रतिनिधि के रूप में जठराग्नी ही पचाकर हमारे शरीर का पोषण करती है। इसलिए आयुर्वेद में कहा है कि खाने के एकदम बाद पानी नहीं पीना चाहिए, इससे जठराग्नि मंद हो जाती है, और खाना देर में पचता है । जब जठराग्नि मंद हो जाती है तब भूख कम लगती है।

         अतः यदि हम शुद्ध शाकाहारी आहार नहीं लेंगे, जो कि एक तरह से अग्नि में दी गई अन्न कि भगवान को आहुतियां ही हैं तब क्या हम एक उचित कार्य कर रहे हैं । इस पर विचार करने की आवश्यकता है। भगवान ने तो गीता के श्लोक 9/27 में कहा हें  कि तू जो खाता है वह सब मेरे अर्पण कर दे ।  क्या हम अभक्ष्य पदार्थ (मांसाहार आदि) खाकर भगवान को अर्पण कर सकते हैं, क्या हमारे शरीर के अंदर उपस्थित जठराग्नी में इस प्रकार की आहुतियां दे सकते हैं । इसलिए हमें सात्विक आहार ही ग्रहण करना चाहिए , ताकि हम रोग मुक्त हो सकें , हमारी आयु बुद्धि और बल बढे जैसा कि गीता के श्लोक 17/8 में भगवान ने सात्विक आहार के बारे में हमें बताया है।

       भगवान ने उपरोक्त श्लोक में चार प्रकार के अन्न के विषय में कहा है , वह है भक्ष्य (रोटी ,आदि दांत से चबाया जाने वाला) ,भोज्य (निगल कर खाने वाला जैसे दूध आदि), लेह्य (चाट कर खाए जाने वाला, शहद चटनी आदि ),तथा चोष्य (चूस कर खाये जाने वाला जैसे गन्ना आदि) ।  भगवान कहते हैं कि इन सभी प्रकार के भोज्य पदार्थों को शरीर के अंदर वैश्र्वानर अग्नि के रूप में स्थित रहकर मैं ही पचाता हूं।  भगवान ने तो गीता में कहा है कि "
"जीवनम सर्व भूतेषु" अर्थात संपूर्ण भूतों में उनका जीवन मैं  हूं।  इसलिए हमें अपना प्रत्येक कार्य जिसमें आहार भी सम्मिलित है, पूरी तरह से विचार करके और उसके परिणाम आदि पर विचार करके ही करना चाहिए । भगवान ने गीता में हमें सभी मार्ग बता दिए हैं उनमें से सही  मार्ग चुनकर उस पर चलकर अपनी मंजिल तक तो हमें ही पहुंचना पड़ेगा । तभी हमारा मनुष्य जन्म में आना सफल हो सकता है।

      
         🙏 धन्यवाद🙏
          बी. के . शर्मा  

Sunday, May 10, 2020

सात्विक, राजस और तामस पुरुष का आहार (भोजन) - दिनांक 8 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान - 
        
          गीता साक्षात भगवान की दिव्य वाणी है । इसकी अपार महिमा है ।  इसमें संपूर्ण वेदों का सार संग्रह किया गया है। भगवान ने वाराह पुराण में कहा है ,"मैं गीता के आश्रय में रहता हूं, गीता मेरा श्रेष्ठ घर है । गीता का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोगों का पालन करता हूं।" भगवान गीता के श्लोक 3/31 में कहते हैं कि जो कोई मेरी इस गीता रूप आज्ञा का पालन करेगा वह संपूर्ण कर्मों से छूट जाता है।

        भगवान ने महाभारत युद्ध के प्रारंभ होने से पूर्व , अर्जुन को निमित्त बनाकर यह गीता ज्ञान सभी मनुष्यों के कल्याण के लिए ही दिया है।  बस हमें उसको अपने आचरण में लाने का निरंतर प्रयास करते रहना है , इसी में हम सब का कल्याण निहित है । भगवान ने अर्जुन को गीता ज्ञान देने के अंत में श्लोक 18 /63 में कहा है कि इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया।  अब तू इस रहस्य युक्त ज्ञान को पूर्णतया भली-भांति विचार कर , जैसे चाहता है,  वैसे ही कर।

         भगवान ने गीता के अध्याय 18 में सात्विक , राजस और तामसिक गुणों वाले मनुष्य के कर्म करने की विधि , उनकी बुद्धि के लक्षण , उनका त्याग , कर्ता भाव ,आदि के बारे में विस्तार से हमारे कल्याण के लिए बताया । भगवान ने गीता में हमें आहार (भोजन) के विषय में सावधान किया है । मनुष्य जैसा आहार करता है , वैसा ही उसका अंत:करण बनता है और अंतःकरण के अनुरूप ही उसके विचार होते हैं, बुद्धि होती है, कार्य होते हैं और वह स्वयं भी वैसा है होता है ।कहा है "जैसा खाए अन्न वैसा हो जाए मन ।" यदि आहार शुद्ध होगा तब अंत:करण भी शुद्ध होगा । उपनिषद में आता है  "आहार शुद्धो सत्वशुद्धि:।"

       भगवान ने गीता के अध्याय 17 में तीन तरह के आहार -सात्विक, राजस और तामस बताए हैं , जिसको जो आहार प्रिय होता है और उसे खाता है , वह उसी तरह के गुण वाला होता है और उसकी वैसी ही बुद्धि और कार्य होते हैं । मनुष्य के आहार को देखने के बाद उसके गुणों के बारे में भी जानकारी हो जाती है। भगवान श्लोक 8 में पहले सात्विक आहार के विषय में बताते हैं:-

🌺 "आयु: सत्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना:
रस्या स्निग्धा: स्थिरा द्दध्या आहारा: सात्विकप्रिया:।।

    आयु , बुद्धि,  बल ,आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले ,रस युक्त ,चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय-  ऐसे आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।

    भगवान अगले श्लोक 17/ 9 में राजस पुरुष के आहार के बारे में कहते हैं कि कड़वे,  खट्टे , लवण युक्त,  बहुत गर्म , तीखे , रूखे , दाहकारक और दुख , चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने  वाले आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ उसे प्रिय होते हैं।

    इसके बाद भगवान ने श्लोक 17/10 में तामस पुरुष के आहार के विषय में कहते हैं कि जो भोजन अधपका , रस रहित , दुर्गंध युक्त , बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वह उसको प्रिय होता है।

    यदि हम उपरोक्त भोजन के पदार्थों के विषय में विचार करें तब देखते हैं कि सात्विक पुरुष खाने से पहले , उस भोजन के विषय में विचार करता है कि मुझे ऐसे पदार्थ लेने चाहिए , जिससे मेरी आयु ,और बल बड़े ,में रोगी ना बन जाऊं , मेरे सात्विक बुद्धि बने,  रसयुक्त (दूध, दही, फल आदि ), दाल,  चावल ,रोटी ,सब्जी (शाकाहारी) हो । उसके बाद भोजन करता है। अर्थात पहले गुण देखता है फिर उसको लेता है ।जबकि राजस पुरुष कड़वे, खट्टे ,तीखे, दाह कारक आदि पदार्थ पहले भोजन में लेता है , उसके पश्चात सोचता है कि इससे उसे रोग उत्पन्न हो रहे हैं , चिंता और दुख बड रहे हैं । लेकिन भोगों और खाने  की  इच्छा मुख्य रूप से रहने के कारण ,वह  ऐसा आहार लेता रहता है और इस तरह उसके अंदर रजो  गुणों की वृद्धि होती है ,उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है । लेकिन  तामस पुरुष तो भोजन लेने से पहले और बाद में भी उसके गुण - दोष  पर विचार ही नहीं करता जैसा श्लोक 17 /10 में आता है , उसके भोजन के पदार्थ  मांसाहारी ,बासी ,अपवित्र, अधपका आदि होते हैं । बस उसकी दृष्टि केवल भोजन में ही रहती है । इस कारण उसके अंदर आलस्य , हिंसा, निद्रा का बढ़ना, कर्तव्य कर्मों में मन न लगना आदि अवगुण बढ़ते जाते हैं और अंत में उसका पतन हो जाता है ।

  अतः आहार (भोजन) को हमारे जीवन में भगवान ने कितना महत्वपूर्ण बताया है यह उपरोक्त श्लोकों  से जाना जा सकता है । सत्वगुण बढ़ने पर हमारे अंदर ज्ञान उत्पन्न होता है, और रजोगुण से लोभ  तथा तमोगुण से प्रमाद (आलस्य ) और अज्ञान उत्पन्न होता है । इसलिए भोजन के पदार्थ लेने से पहले उनके गुण दोष पर विचार करने के बाद ही हमें लेने चाहिए। हमारा भोजन सात्विक होना चाहिए जिससे हमारी सात्विक बुद्धि हो , और अच्छे कर्म कर सकें।

        🙏 धन्यवाद🙏
        बी .के. शर्मा।

तामसी बुद्धि वाले मनुष्य - दिनांक 7 मई 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान - 

       भगवान गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18वें अध्याय के श्लोक 32 में तामसी बुद्धि वाले मनुष्य के लक्षण बताते हैं कि:-

👑 अधर्म धर्ममीति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्श्च बुद्धि:  सा पार्थ तामसी।। 👑


       हे अर्जुन, जो तमोगुण से घिरी बुद्धि अधर्म को भी यह धर्म है ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य सभी पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है वह बुद्धि तामसी है।

      भगवान ने गीता में मनुष्यों को उनकी बुद्धि के अनुसार तीन श्रेणियों में रखा है। सात्विक बुद्धि वाले मनुष्य, राजसी बुद्धि वाले एवं तामसी बुद्धि वाले मनुष्य।  जैसी हममें बुद्धि होगी, वैसे ही हमारे द्वारा कर्म किए जाएंगे,  वैसा ही हमारा व्यवहार होगा । चूंकि बुध्दि  ही तो हमारे शरीर रूपी रथ की सारथी है ,मन इसकी लगाम है , हमारी इंद्रियां इसके घोड़े हैं और जीवात्मा इस रथ में सवार है । अतः यदि शरीर रूपी रथ का सारथी ठीक है तब वह मन रूपी लगाम द्वारा इंद्रिय रूपी घोड़ों को वश में रखते हुए इस रथ में सवार जीव को इस संसार से पार अर्थात मुक्त कर देता है ।  इसलिए बुद्धि का बहुत ही महत्व है, हमें स्वयं ही इसका निरीक्षण करते रहना चाहिए और शास्त्रों के अध्ययन द्वारा, सत्संग द्वारा  इसे सात्विक बुद्धि की श्रेणी में भगवान द्वारा गीता में बताए गए अनुसार रखना चाहिए। सात्विक बुध्दि के  द्बारा मनुष्य अपने कर्तव्य और अकर्तव्य, भय और अभय , बंधन और मोक्ष तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग को यथार्थ रूप से जानता है । जबकि राजसी बुद्धि वाला मनुष्य धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को अपने लोभी प्रवृत्ति के द्वारा और भोगों में तल्लीन रहने के कारण यथार्थ रूप से नहीं जान पाता।

       तामसी बुद्धि वाले मनुष्य तो  वेद , उपनिषद और गीता में बतलाए गए भगवान के वचनों के विपरीत आचरण करता है ,  वह अज्ञानी, घमंडी और धूर्त तामसिक कर्ता अधर्म को धर्म मानता है और जो शास्त्रों में कर्मों का निषेध है, वही कर्म करता है । आजकल के समय में इस युग में ऐसे काफी व्यक्ति मिल जाते हैं जो धर्म विरुद्ध आचरण करना ही अपना धर्म मानते हैं। तमोगुण से ढकी रहने के कारण ऐसे मनुष्य की बुद्धि कि विवेक शक्ति सर्वथा लुप्त हो जाती है । इसके कारण प्रत्येक विषय में इनका उल्टा ही निश्चय होता है ।  इनका खाना पीना, जीविका के साधन , समाज में व्यवहार आदि शास्त्र विरूद्ध ही होते हैं ।  ऐसी बुद्धि मनुष्य को अधोगति में ले जाने वाली है।  इसलिए यदि हमें अपना कल्याण करना है तब इस प्रकार की विपरीत बुद्धि का पूर्णतया त्याग कर देना चाहिए।

        हमें अपने सभी कार्य पूरी तरह विचार करके ही करने चाहिए ।  मनुष्य जन्म बहुत ही दुर्लभ है , अतं समय में देखा जाता है कि लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी हम कुछ और समय अपने जीवन का नहीं प्राप्त कर सकते हैं । अतः यदि इस दुर्लभ शरीर का अमूल्य समय हम बिना विचार किए बिताएंगे तब हमें ही आगे चलकर पछताना पड़ेगा ।  जैसा कि गिरधर कवि ने कहा है:-

👑 
बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए ।
काम बिगारे आपनो जग में होत हंसाए ।।

जग में होत हंसाय  ,चित्त में चैन ना पावे ।
खान-पान सनमान राग रंग मन नहीं भावे। ।।
कह गिरधर कविराय करम गति टरत न टारे ।
खटकत है जीय माहि किया जो बिना विचारै।। 🎊
         
        मनुष्य जन्म ही जीवात्मा के कल्याण का एकमात्र साधन है । भगवान ने हमें बुद्धि भी प्रदान की है , उसे सद्विचार और सत्कर्म में लगाने की आवश्यकता है । भगवान ने गीता में सात्विक बुद्धि , सात्विक  कर्म और सात्विक कर्ता आदि के लक्षण विस्तारपूर्वक हमारे कल्याण के लिए बताएं हैं । यदि हम उनको केवल पढ़कर ही छोड़ दें तब हमारा कल्याण नहीं हो पाएगा, हमें उनको अपने व्यवहार में लाना पड़ेगा , तभी हमारा कल्याण हो सकता है । यदि हम गीता के एक - दो श्लोक को अपने जीवन में धारण कर लें अर्थात अपना व्यवहार उन्हीं के अनुसार करें तब हमारा बहुत जल्दी कल्याण हो सकता है । उदाहरण के लिए यदि हमें कोई रोग है और उसकी औषधि की भी हमें जानकारी प्राप्त हो गई है , हमने उसे खरीद कर अपने पास रख लिया है , किंतु उसका सेवन नहीं किया और सब को कहते हैं कि मुझे रोग और औषधि का पूर्ण ज्ञान है लेकिन तब भी ठीक नहीं हो पा रहा हूं । लेकिन ठीक तो हम तभी होंगे जब हम उस औषधि का सेवन कर लेंगे । इसी प्रकार यदि हम गीता शास्त्र में भगवान के कहे हुए वचनों का केवल पाठ  ही करेंगे तब उतनी जल्दी प्रत्यक्ष कल्याण नहीं होगा जितना कि यदि हम उन्हें अपने स्वयं के जीवन में , दैनिक व्यवहार में , और अपने कर्तव्य कर्म में अपना कर प्राप्त कर सकते हैं । इसके लिए प्रयत्न तो हमें ही करना पड़ेगा , भगवान ने तो हमें सही मार्ग बतला दिया है।

      🙏 धन्यवाद
       बी. के. शर्मा 

राजसी बुद्धि वाले मनुष्य - दिनांक 6 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान - 

           भगवान गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18वें अध्याय के श्लोक 31 में राजसी बुद्धि वाले मनुष्य के लक्ष्मण बताते हैं:-

🌹 यया धर्ममधर्म च कार्य चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धि: सा पार्थ राजसी ।।🌹

        हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।

          भगवान ने गीता के श्लोक 18/30 में सात्विक बुद्धि वाले मनुष्यों के बारे में कहां है कि जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को, बंधन और मोक्ष को, प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग को यथार्थ जानता है वह सात्विक है। जबकि राजसी बुद्धि वाला मनुष्य कर्तव्य और अकर्तव्य का, धर्म और अधर्म का ठीक से भेद नहीं कर पाता अर्थात उसको यथार्थ रूप से नहीं जान पाता,  या उनके विषय में उचित निर्णय नहीं ले पाता।

          रजोगुण के बढ़ने पर मनुष्य में  लोभ की प्रवृत्ति बढ़ती है, उसके सभी कार्य स्वार्थ बुद्धि और भोगों की इच्छा से होते हैं। लोभ और भोगो  की इच्छा के कारण ऐसा मनुष्य,  ईश्वर के बनाए हुए नियम या कानून जो कि हमारे शास्त्रों में बताए गए हैं को यथार्थ रूप से नहीं जान पाता या जानते हुए भी उनका अपने स्वार्थ के कारण पालन नहीं कर पाता।  ईश्वर के बनाए हुए कानून के अनुसार संसार में चलने वाला मनुष्य संसार में सुखी रहता है और अंत में मुक्त हो जाता है । किंतु यदि उसके  विपरीत चलता है तब दुखी होता है।  जेसै सामने से आती हुई रेल का यदि सामना करोगे तब नष्ट हो जाओगे और यदि उसके अनुकूल चलोगे तब उस में बैठकर या उसका उपयोग या पालन करके अपने स्थान पर पहुंच जाओगे। वैसे ही धर्म के विरुद्ध आचरण करने वाला मनुष्य अंत में सुख को प्राप्त नहीं हो पाता, कभी-कभी उसे क्षणिक सुख की तो अनुभूति हो सकती है।

        रजोगुणी केवल अपने हित के विषय में ही सोचता है जबकि सभी का हित करना ही मनुष्य का कर्तव्य है, उसके लिए यही ईश्वरीय कानून या धर्म है। जो सबके हित में रत रहता है उसका अपना हित तो निश्चित ही है।  तुलसीदास जी ने भी कहा है:-

👑 परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई ।। 🎉

        भगवान ने गीता के श्लोक 12 /4 में कहा है कि संपूर्ण भूतों के हित में रत रहने वाले और सब में समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।

        इसी प्रकार जो कर्तव्य कर्म हमारे वर्ण , आश्रम,  परिस्थिति या जीविका के शास्त्रों के अनुसार हैं  यदि उनको हम पूरी ईमानदारी , तत्परता आदि से नहीं करते और अपने लोभ  के कारण और भोगों की इच्छा के कारण, रिश्वत आदि  लेकर,  मालिक या सरकार के साथ धोखा करते  हैं और हमारी बुद्धि इस कर्तव्य और अकर्तव्य का ठीक से विश्लेषण नहीं करती। तब ऐसी बुद्धि को राजसी बुद्धि कहते हैं।  रजोगुण के संबंध से ऐसी बुद्धि धर्म और अधर्म का, कर्तव्य और अकर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय करने में समर्थ नहीं होती।  राजस भाव का फल अंततः दुख ही होता है।  अतः  हमें शास्त्रों का अध्ययन एवं भगवान द्वारा गीता में बताये अनुसार राजस भावों का त्याग करके अपने अंदर सात्विक भावो को उत्पन्न करने और बढ़ाने का प्रयत्न करते रहना चाहिए, इसी में हमारी उन्नति निहित है और हम मुक्त हो सकते हैं।

        🙏 धन्यवाद🙏
            बी .के. शर्मा। 

Wednesday, May 6, 2020

सात्विकी बुद्धि वाले मनुष्य - दिनांक 5 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

         भगवान ने गीता के मोक्ष  सन्यास योग नामक 18वें अध्याय में सात्विक, राजस और तामस योग से तीन प्रकार के कर्म, त्याग और कर्ता के विषय में श्लोक १८/२३-२५, १८/९,८,७ एवं १८/२६-२८ में इन प्रकृति के गुणों से लिप्त रहने वाले, मनुष्यों के लक्षण हमें बताएं हैं।  ताकि हम उन्हें अपने में पहचान कर और दूर करके अपना उद्धार कर सकें। अब भगवान हमारी बुद्धि को भी जिसके द्वारा विचार करके हम कार्य करते हैं, को गुणों (लक्षण) के अनुसार तीन प्रकार से सात्विक, राजस और तामस के भेद का वर्णन करते हैं। गीता के श्लोक १८/३० में सात्विकी बुद्धि के लक्षण बताते हैं कि:-

🎊🌹 प्रवृत्तिं च निवृर्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्ष च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी।। 🎊🌹

            हे पार्थ जो बुद्धि प्रवृत्ति मार्ग तथा निवृत्ति मार्ग को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है-वह बुद्धि सात्त्विकी है।

           जब हम गृहस्थ में रहकर फल की इच्छा को त्याग कर, ममता, आसक्ति और कर्ता अभिमान को छोड़कर अपने कर्तव्य कर्म परमात्मा को अर्पण बुद्धि से करते हैं तब यह प्रवृत्ति मार्ग है।  इस कर्म योग के द्वारा हमारा  अंतःकरण पवित्र होकर हम कर्म बंधन से छूट कर परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं। दूसरा परमात्मा प्राप्ति के लिए निवृर्ति मार्ग है जिसमें समस्त कर्मो और भोगों को छोड़कर सन्यास आश्रम में रहकर किया जाता है। संसार से उपराम होकर बिचरने  का नाम निवृत्ति मार्ग है।

           जब हम अपनी बुद्धि द्वारा ठीक-ठीक निर्णय कर पाते हैं कि मेरे द्वारा किया जाने वाला कर्म शास्त्रों के अनुसार, मेरा कल्याण करने वाला है, वर्ण, आश्रम एवं परिस्थिति के अनुसार लोकहित के दृष्टि से उचित है या इन सब के विरुद्ध है, इसके करने से मैं बंधन में पड़ जाऊंगा। अर्थात हमारा कर्तव्य कर्म क्या है, और क्या नहीं है, इसका हमारी बुद्धि सही निर्णय ले पाती है।

         जब हमारे द्वारा किया गया कार्य न्याय संगत नहीं है, दूसरों का अनिष्ट करने वाला है, शास्त्र विरुद्ध है, समाज के हित में नहीं है, इसके कारण हमें दंड भी मिल सकता है, तब हमारे अंतःकरण में एक प्रकार का भय होता है। इसके विपरीत किए गए कार्य करने पर हम अभय रहते हैं। यदि हमारी बुद्धि कर्म करने से पूर्व ही भय और अभय के विषय में ठीक-ठीक जानकर उचित निर्णय लेती है तभी यह सात्विक बुद्धि है।

       जब हम कोई कार्य, आसक्ति के साथ, मन में फल की इच्छा  रखते हुए, अभिमान पूर्वक  करते हैं तब हम कर्म बंधन में फस जाते हैं। जब भी हमारे मन में सांसारिक वस्तुओं की कामना है तभी तक हम बंधन में हैं। यदि हमारे कर्म ईश्वर अर्पण बुद्धि से, आसक्ति और फल की इच्छा से रहित होकर  होते हैं तब हम कर्तव्य कर्म करते हुए भी मुक्त ही रहते हैं। भगवान ने तो गीता के श्लोक ६/१ में कहा ही है कि जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न ले कर करने योग्य कर्म करता है, वह सन्यासी तथा योगी है।

   भगवान ने कहा है कि जिसने कर्म योग की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक (बुद्धि)द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अंतः करण वाले पुरुष को कर्म नहीं बांधते (श्लोक ४/४१)। अतः ऐसा मनुष्य कर्म करते हुए भी मुक्त ही है।

   अतः जब हमारी बुद्धि भगवान द्वारा कही गई उपरोक्त सभी बातों का उचित निर्णय ले पाती है, कोई संशय नहीं रखती और ना कोई भूल करती है। जब जिस विषय का निर्णय करने का समय आता है तब हमारी बुद्धि उचित निर्णय लेती है जिससे हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकें, ऐसी बुद्धि को सात्विकी बुद्धि कहते है। 

          🙏धन्यवाद
               बी के शर्मा 🌺