व्यवहारिक गीता ज्ञान -
गीता साक्षात भगवान की दिव्य वाणी है । इसकी अपार महिमा है । इसमें संपूर्ण वेदों का सार संग्रह किया गया है। भगवान ने वाराह पुराण में कहा है ,"मैं गीता के आश्रय में रहता हूं, गीता मेरा श्रेष्ठ घर है । गीता का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोगों का पालन करता हूं।" भगवान गीता के श्लोक 3/31 में कहते हैं कि जो कोई मेरी इस गीता रूप आज्ञा का पालन करेगा वह संपूर्ण कर्मों से छूट जाता है।
भगवान ने महाभारत युद्ध के प्रारंभ होने से पूर्व , अर्जुन को निमित्त बनाकर यह गीता ज्ञान सभी मनुष्यों के कल्याण के लिए ही दिया है। बस हमें उसको अपने आचरण में लाने का निरंतर प्रयास करते रहना है , इसी में हम सब का कल्याण निहित है । भगवान ने अर्जुन को गीता ज्ञान देने के अंत में श्लोक 18 /63 में कहा है कि इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्य युक्त ज्ञान को पूर्णतया भली-भांति विचार कर , जैसे चाहता है, वैसे ही कर।
भगवान ने गीता के अध्याय 18 में सात्विक , राजस और तामसिक गुणों वाले मनुष्य के कर्म करने की विधि , उनकी बुद्धि के लक्षण , उनका त्याग , कर्ता भाव ,आदि के बारे में विस्तार से हमारे कल्याण के लिए बताया । भगवान ने गीता में हमें आहार (भोजन) के विषय में सावधान किया है । मनुष्य जैसा आहार करता है , वैसा ही उसका अंत:करण बनता है और अंतःकरण के अनुरूप ही उसके विचार होते हैं, बुद्धि होती है, कार्य होते हैं और वह स्वयं भी वैसा है होता है ।कहा है "जैसा खाए अन्न वैसा हो जाए मन ।" यदि आहार शुद्ध होगा तब अंत:करण भी शुद्ध होगा । उपनिषद में आता है "आहार शुद्धो सत्वशुद्धि:।"
भगवान ने गीता के अध्याय 17 में तीन तरह के आहार -सात्विक, राजस और तामस बताए हैं , जिसको जो आहार प्रिय होता है और उसे खाता है , वह उसी तरह के गुण वाला होता है और उसकी वैसी ही बुद्धि और कार्य होते हैं । मनुष्य के आहार को देखने के बाद उसके गुणों के बारे में भी जानकारी हो जाती है। भगवान श्लोक 8 में पहले सात्विक आहार के विषय में बताते हैं:-
"आयु: सत्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना:।
रस्या स्निग्धा: स्थिरा द्दध्या आहारा: सात्विकप्रिया:।।
आयु , बुद्धि, बल ,आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले ,रस युक्त ,चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।
भगवान अगले श्लोक 17/ 9 में राजस पुरुष के आहार के बारे में कहते हैं कि कड़वे, खट्टे , लवण युक्त, बहुत गर्म , तीखे , रूखे , दाहकारक और दुख , चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ उसे प्रिय होते हैं।
इसके बाद भगवान ने श्लोक 17/10 में तामस पुरुष के आहार के विषय में कहते हैं कि जो भोजन अधपका , रस रहित , दुर्गंध युक्त , बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है वह उसको प्रिय होता है।
यदि हम उपरोक्त भोजन के पदार्थों के विषय में विचार करें तब देखते हैं कि सात्विक पुरुष खाने से पहले , उस भोजन के विषय में विचार करता है कि मुझे ऐसे पदार्थ लेने चाहिए , जिससे मेरी आयु ,और बल बड़े ,में रोगी ना बन जाऊं , मेरे सात्विक बुद्धि बने, रसयुक्त (दूध, दही, फल आदि ), दाल, चावल ,रोटी ,सब्जी (शाकाहारी) हो । उसके बाद भोजन करता है। अर्थात पहले गुण देखता है फिर उसको लेता है ।जबकि राजस पुरुष कड़वे, खट्टे ,तीखे, दाह कारक आदि पदार्थ पहले भोजन में लेता है , उसके पश्चात सोचता है कि इससे उसे रोग उत्पन्न हो रहे हैं , चिंता और दुख बड रहे हैं । लेकिन भोगों और खाने की इच्छा मुख्य रूप से रहने के कारण ,वह ऐसा आहार लेता रहता है और इस तरह उसके अंदर रजो गुणों की वृद्धि होती है ,उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है । लेकिन तामस पुरुष तो भोजन लेने से पहले और बाद में भी उसके गुण - दोष पर विचार ही नहीं करता जैसा श्लोक 17 /10 में आता है , उसके भोजन के पदार्थ मांसाहारी ,बासी ,अपवित्र, अधपका आदि होते हैं । बस उसकी दृष्टि केवल भोजन में ही रहती है । इस कारण उसके अंदर आलस्य , हिंसा, निद्रा का बढ़ना, कर्तव्य कर्मों में मन न लगना आदि अवगुण बढ़ते जाते हैं और अंत में उसका पतन हो जाता है ।
अतः आहार (भोजन) को हमारे जीवन में भगवान ने कितना महत्वपूर्ण बताया है यह उपरोक्त श्लोकों से जाना जा सकता है । सत्वगुण बढ़ने पर हमारे अंदर ज्ञान उत्पन्न होता है, और रजोगुण से लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद (आलस्य ) और अज्ञान उत्पन्न होता है । इसलिए भोजन के पदार्थ लेने से पहले उनके गुण दोष पर विचार करने के बाद ही हमें लेने चाहिए। हमारा भोजन सात्विक होना चाहिए जिससे हमारी सात्विक बुद्धि हो , और अच्छे कर्म कर सकें।
धन्यवाद
बी .के. शर्मा।