व्यावहारिक गीता ज्ञान
गीता में भगवान कर्म योग नामक तीसरेअध्याय के 8वे श्लोक मे कर्म की विषय में कहते हैं:-
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण: ।। 


तू शास्त्र विधि से नियत किए हुए कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म ना करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।
गीता के 18 वें अध्याय के 45 वे श्लोक ने भगवान ने कहा कि अपने अपने कर्मों में तत्परता पूर्वक लगा हुआ मनुष्य भगवत प्राप्ति रूप परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है । इस (3/8) श्लोक में भगवान कहते हैं कि अपने-अपने वर्ण , आश्रम , स्वभाव एवं परिस्थिति के अनुसार जो भी कर्म हमारे लिए निर्धारित किए गए हैं उनका हमें अवश्य पालन करना चाहिए । हमें अपने इन नियत कर्मों का राग , द्वेष और आसक्ति से रहित होकर पूर्ण निष्काम भाव से करते रहना चाहिए । कर्तव्य कर्म करने से हमारा अंत:करण शुद्ध होता है बशर्ते उसके पीछे हमारी भावना पूर्ण निष्काम भाव की होनी चाहिए । हमें यह मानना चाहिए कि मैं भगवान द्वारा सोपे हुए दायित्व का निमित्त मात्र होते हुए संसार के प्राणियों की सेवा कर रहा हूं । हमें करता भाव का अभिमान भी नहीं रखना चाहिए । कर्तव्य कर्मों को न करने से मनुष्य पाप का भागी होता है उसका शरीर निर्वाह भी ठीक से नहीं हो पाता एवं निंद्रा और आलस्य में फंसकर तमोगुणी भाव से अधोगति में फंसकर पशु-पक्षी आदि भोग योनियों में जन्म लेता है । अतः कर्म ना करने की अपेक्षा कर्म करना ही उत्तम है।
इस श्लोक में भगवान अर्जुन को निमित्त बनाकर हमें यह उपदेश देते है हैं कि हमें अपने सुख का, आराम का, अनुकूल परिस्थिति आदि को ही केवल ध्यान में न रखते हुए अपने नियत या निर्धारित कर्तव्य कर्मों को पूर्ण निष्काम भाव से दूसरों के हित के लिए सावधानीपूर्वक करते रहना चाहिए ।
धन्यवाद
बी .के. शर्मा
No comments:
Post a Comment