व्यवहारिक गीता ज्ञान
भगवान गीता के कर्म सन्यास योग नामक पांचवें अध्याय के २० वें श्लोक में समभाव के विषय में कहते हैं:-
न प्रह्रष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्बिजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:।।
जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिर बुद्धि, संशय रहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष परमात्मा में एकी भाव से नित्य स्थित है।
इसके पूर्व के श्लोक ५/१९ में भगवान ने कहा है कि जिसका मन समभाव में स्थित है, वह पुरुष ब्रह्म में ही स्थित है अर्थात अपने स्वरूप में ही स्थित है क्योंकि परमात्मा निर्दोष और सम है।
जैसा कि हम देखते हैं कि जब कोई कार्य हमारे मन के अनुकूल होता है तब हमें वह प्रिय लगता और यदि प्रतिकूल होता है तब अप्रिय लगता है। प्रिय के होने पर हमारे अंतःकरण में हर्ष और अप्रिय के होने में शोक होता है। अंतःकरण के 4 भाग हैं, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । हमारा मन संकल्प और विकल्प करता रहता है, निश्चयात्मिका वृत्ति का नाम बुद्धि , चिंतन करने वाली वृत्ति का नाम चित्त एवं अभिमान करने वाली वृत्ति का नाम अहंकार है। अतः जब हमारे मन के अनुकूल होता है तो हमारा अहंकार कहता है कि यह मैंने किया है और हर्षित होता है। प्रतिकूल स्थित में वह शोक करता है। यह तो संसार में दोनों ही स्थिति हमारे सामने आती रहती है कभी अनुकूल कभी प्रतिकूल, कभी सुख कभी दुख। ज्ञान होने पर जब हम इन में आसक्ति और राग- द्वेष से दूर हो जाते हैं, हमारी स्थिति शरीर में न रहते हुए उस चेतन तत्व (परमात्मा) की तरफ रहती है, तब हम देखते हैं कि अनुकूल और प्रतिकूल स्थिति प्रारब्ध के अनुसार हमारे समक्ष आती जाती रहती है, हमें इन में आसक्त नहीं होना है । जब हमारी बुद्धि स्थिर हो जाती है, कि मैं शरीर नहीं हूं ,यह तो जड़ है , मैं इस शरीर से पहले भी था इसके नष्ट हो जाने के बाद भी मेरा अस्तित्व, रहेगा, तब ऐसा स्थिर बुद्धि मनुष्य संशय रहित होकर आत्मज्ञान के द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप में ही स्थित रहता है । संसार में रहते हुए इन द्वन्दो का असर उसके अंतकरण में बहुत कम समय के लिए होकर फिर वह उससे बाहर निकल जाता है ,उस दुख को लेकर हर समय दुखी नहीं रहता और प्रारब्ध रूप में उसे भोग कर समाप्त कर लेता है । जब हमने मनुष्य जन्म लिया है तब प्रत्येक अनुकूल - प्रतिकूल स्थिति हमारे सामने भी आएगी लेकिन उसमें पूरा धेर्य रखते हुए हम अपने वास्तविक स्वरूप का ध्यान करते हुए उससे जल्दी ही बाहर आ जाएंगे । दूसरों के समान नहीं जो आसक्ति के कारण स्वयं ही अपने आपको अनुकूल- प्रतिकूल स्थिति से बाधं लेते हैं।
धन्यवाद
बी.के. शर्मा
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