Friday, May 1, 2020

कर्म का महत्व - 3rd April 2020

व्यवहारिक गीता उपदेश

       गीता महात्म्य में आता है कि जो मनुष्य शुद्ध चित्त होकर प्रेम पूर्वक इस पवित्र गीता शास्त्र का पाठ करता है वह भय और शोक आदि से रहित होकर विष्णु धाम प्राप्त कर लेता है| आजकल पूरे विश्व में मानव जाति के अंदर एक अजीब सा भय है, अपने जीवन को लेकर इस भय और शोक को दूर रखने के लिए हमें अपने धर्म ग्रंथों की शरण में जाना चाहिए। भगवान गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक 18 वें अध्याय के 61 वें श्लोक में कहते हैं:

🍄 ईश्वर: सर्वभूतानां हृदेशेअर्जुन तिष्ठति|
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रासढानी मायया ||🍄

         हे अर्जुन ! शरीर रूपी यंत्र में आरुढ हुए संपूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है|

         भगवान ने शरीर को एक यंत्र कहा है, इसे यदि हम एक उदाहरण से समझें तब जैसे बिजली से संचालित अनेकों यंत्र होते हैं किसी से ठंडा महसूस होता है किसी से हमें गर्मी लगती है । वस्तुतः यंत्र तो अलग-अलग स्वभाव के होते हैं परंतु उनमें बिजली एक ही होती है वह यंत्र केवल बिजली द्वारा अर्थात एक चेतन शक्ति से अपने अपने स्वभाव के अनुसार भिन्न भिन्न कार्य करते हैं इसमें बिजली का कोई दोष नहीं है। 

            इसी प्रकार से मनुष्य, पशु, पक्षी, देवता, यक्ष, राक्षस आदि जितने भी प्राणी है सब शरीर रूपी यंत्रों पर चढ़े हुए हैं और उन सभी यंत्रों को बिजली रूप में ईश्वर (चेतन सत्ता) संचालित करता है। उन अलग-अलग शरीरों में जिस शरीर में जैसा स्वभाव है उस स्वभाव के अनुसार वह ईश्वर से प्रेरणा पाते हैं और कार्य करते हैं। 

           अच्छे स्वभाव वाले सज्जन मनुष्य से अच्छी क्रियाएं होती हैं और बुरे स्वभाव वाले मनुष्य से खराब क्रियाएं होती हैं। अतः अच्छी या बुरी क्रियाओं को कराने में ईश्वर का हाथ नहीं है, अपितु खुद के बनाए हुए अच्छे या बुरे स्वभाव का हाथ है।

         जैसे बिजली यंत्र के स्वभाव के अनुसार ही उसका संचालन करती है ऐसे ही ईश्वर प्राणी के शरीर में स्थित रहकर उसके स्वभाव के अनुसार उसका संचालन करते हैं। अपने स्वभाव को सुधारने या बिगाड़ने में हम सभी मनुष्य पूरी तरह से स्वतंत्र है, यह शरीर अपना उद्धार करने के लिए मिला है इसलिए इसमें अपने स्वभाव को सुधारने का पूरा अधिकार एवं स्वतंत्रता है।

          मनुष्य कर्म करने में स्वभाव के परतंत्र होते हुए भी उस स्वभाव का सुधार करने में परतंत्र नहीं है। अतः यदि हम राग द्वेष आदि विकारों का त्याग करके शास्त्र विधि के अनुसार न्याय पूर्वक अपने स्वाभाविक कर्मों को निष्काम भाव से करते हुए अपना जीवन बिताने लगे तो उद्धार हो सकता है।

धन्यवाद
बी के शर्मा

No comments:

Post a Comment