Tuesday, May 19, 2020

कर्म बंधन से छूटने का उपाय - दिनांक 19 मई 2020





व्यावहारिक गीता ज्ञान 
 
      भगवान गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 50 में कर्म बंधन से छुटने के उपाय के विषय में कहते हैं:-

👑  बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते् ।
        तस्माधोगाय युज्यस्व  योग: कर्मसु कौशलम्।।

      समबुध्दियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है, अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है ।  इससे तू समत्वरूप योग में लग जा, यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है, अर्थात कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।

     भगवान ने गीता में कहा है "समत्व योग उच्यते" अर्थात  समत्व ही योग कहलाता है।  श्लोक 5/19 में भगवान कहते हैं कि जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि परमात्मा निर्दोष और सम हैं, इससे वे ब्रह्म में ही स्थित है।

     जब हम सकाम भाव अर्थात कामना, आसक्ति, फल की इच्छा, रखते हुए कर्म करते हैं तब ऐसे कर्म हमारे अंतःकरण में संचित होते रहते हैं और इसी कामना और आसक्ति के कारण हमारे जन्म और मृत्यु होते रहते हैं । लेकिन जब हमारे कर्म समभाव में स्थित होकर अर्थात राग - द्वेष, हर्ष -शोक, सुख-दुख आदि से रहित होकर  होते हैं तब हम कर्म करते हुए भी उनसे मुक्त ही रहते हैं चूंकि हम उनमें ममता, आसक्ति और कामना आदि नहीं रखते । केवल अपना कर्तव्य कर्म समझकर लोकहित के लिए निष्काम भाव से करते हैं। यदि हम विचार करें तब देखेंगे कि जब हम पूर्ण निष्काम भाव से यदि जमीन में बीज बोए तब भी फसल तो आएगी ही, वृक्ष तो उगेंगे और फल भी आएंगें, लेकिन उनमें हमारी ममता और आसक्ति न होने के कारण यदि फसल ठीक भी नहीं हुई तब हम ज्यादा दुखी नहीं होंगे, चूंकि हमने तो अपना कर्तव्य कर्म लोकहित में किया है।  भगवान ने हमें जो जिम्मेदारी दी है और शरीर एवं इंद्रियां दी हैं, हम तो उनका उपयोग करके,  उन्हीं के द्वारा दिए गए कर्म को लोकहित में कर रहे हैं इसमें हमारी आसक्ति क्यों हो । जैसे बैंक में कार्य करने वाला कर्मचारी, करोड़ों रुपए को रोजाना प्राप्त करता है और देता भी है, लेकिन उसे उन्हें लेने में ना तो हर्ष होता है और न देने में दुख होता है । वह तो निर्लिप्त भाव से अपना कार्य करता रहता है । रुपयों की लेने और देने में समान भावही रखता है। अतः हम भी तो ईश्वर का ही दिया हुआ कर्म उसी के बनाए हुए संसार के लिए कर रहे हैं फिर इसमें आसक्ति और ममता क्यों रखें जब सब कुछ यहीं छोड़कर चले जाना है । आसक्ति के कारण शरीर छोड़ने में भी कष्ट होगा और फिर जन्म लेकर आना पड़ेगा।

    गीता के श्लोक 2/38 में भगवान कहते हैं कि जय- पराजय, हानि- लाभ और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध (कर्म) के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध (कर्म) करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा । उपरोक्त श्लोक में भी भगवान ने यही कहा है कि समभाव में स्थित रहते हुए अपने सभी कर्म कर , यही कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।  समबुद्धि से युक्त हुआ मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है। उसका कर्मों से कुछ भी संबंध नहीं रहता। अतःउसके द्वारा किए गए कर्म पुनर्जन्म रूप फल नहीं दे सकते।  इसलिए हमें समभाव में स्थित रहते हुए अपने कर्तव्य कर्म करते रहने का प्रयास करना चाहिए ताकि हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकें।

       भगवान गीता के श्लोक 2/ 51 में भी कहते हैं. "क्योंकि सम बुद्धि से युक्त ज्ञानी जन कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्याग कर जन्म रूप बंधन से मुक्त हो निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं "।भगवान ने संमबुध्दि से युक्त पुरुष को ज्ञानी कहा है और समबुद्धि से युक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग कर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाता है । समान भाव  (समता) में स्थित रहने पर उसमें राग- द्वेष, फल में आसक्ति आदि तो हो ही नहीं सकते,  वह तो निर्लिप्त भाव से ही अपने कर्तव्य कर्म लोकहित में करता है‌। समता रूप योग के प्रभाव से उसके द्वारा किए गए कर्मों के फल से उसका संबंध विच्छेद हो जाने के कारण वह कर्म बंधन से छूट कर इसी जन्म में मुक्त होकर निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाता है । अतः हमें भी  समभाव में रहते हुए अपने कर्म करते रहने का प्रयास शुरू कर देना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण है।


    🙏 धन्यवाद🙏
    बी.के. शर्मा🎊

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