Friday, May 1, 2020

नाशवान और अविनाशी - दिनांक 8 अप्रैल 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

भगवान गीता के पुरुषोत्तम योग नामक 15वें अध्याय के  16वें श्लोक में कहते हैं कि:-
 
🎊🌈🌹
द्वाविमौ  पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोअक्षर उच्यते।।
🎊🌈🌹

इस संसार में नाश्वान और अविनाशी भी यह दो प्रकार के पुरुष हैं । इनमें संपूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान और जीवात्मा  अविनाशी कहा जाता है।

         इस श्लोक में भगवान शरीर को क्षर अर्थात नाश्वान कहते हैं,  क्षर का मतलब जिसका हर समय क्षरण (नष्ट) होता रहता है अर्थात शरीर उत्पन्न होने के बाद कुछ समय तक बढ़ता है, फिर घटता है तथा उसके बाद नष्ट हो जाता है।  यह जन्म से मृत्यु पर्यन्त   परिवर्तनशील रहता है।  कुछ दिन पूर्व (गीता १३/१)  के श्लोक में हमने जाना था कि भगवान ने शरीर को क्षेत्र (खेत) कहा था,  और जो इसमें रहकर उसको जानता है और इसका संचालन करता है उसको पहले क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) कहा था, उसी को इस श्लोक में अक्षर (अविनाशी) कहां है। जीवात्मा के रहने पर ही प्राण कार्य करते हैं और शरीर का संचालन होता है । जीवात्मा के साथ प्राणों के निकलते ही शरीर का संचालन बंद हो जाता है और उसको जला देते हैं । अतः महत्व शरीर का नहीं है उसमें रहने वाले जीवआत्मा जो कि ईश्वर का अंश है उसका है । जब तक ईश्वर का अंश इस नाशवान शरीर में रहता है । तब तक ही हम शरीर को प्यार करते हैं, उसके जाने के बाद तो इस शरीर  को  छूना भी नहीं चाहते ।

       पांच महाभूतो (आकाश, वायु, अग्नि ,जल और पृथ्वी) तथा मन, बुद्धि और अहंकार इस प्रकार 8 प्रकार से युक्त शरीर को भगवान जड़, क्षर,क्षेत्र, यंत्र, अपरा प्रकृति आदि नाशवान कहा है।

        जिस तत्व का कभी विनाश नहीं होता और जो सदा निर्विकार रहता है, उस जीवात्मा को यहां अक्षर (अविनाशी ) कहा है प्रकृति (शरीर) जड़ है और जीवात्मा (परमात्मा का अंश) चेतन है । जीवात्मा चाहे जितने शरीर धारण करें चाहे जितने लोगों में जाए उसमें कभी कोई विकार उत्पन्न नहीं होता । वह सदा जो का त्यों ही रहता है।   इसलिए यहां उसको कूटस्थ कहां है । गीता में परमात्मा और जीवात्मा दोनों के स्वरूप का वर्णन समान रूप से ही कहा गया है । जीवात्मा जो कि नित्य अविनाशी, निर्विकार है, प्रकृति और उसके कार्य शरीर आदि के साथ संबंध स्थापित करने के कारण जीव नाम से जानी जाती है । अद्वैत सिद्धांत के कारण वह साक्षात परमात्मा ही है । जब तक इसमें जीव भाव रहता है और शरीर के साथ ही अपने संबंध को मजबूती के साथ पकड़ कर रखती है तब तक ही इसका शरीर के साथ जन्म मरण महसूस होता है, अन्यथा यदि यह शरीर जो प्रकृति का अंश है और स्वयं जो कि परमात्मा का अंश है को ठीक प्रकार से समझ लें और शरीर को एक माध्यम बनाकर निर्लिप्त भाव से कर्म करता रहे तब तक वह संसार में कर्म करते हुए भी आवागमन से मुक्त हो सकता है।

धन्यवाद
बी.के. शर्मा

No comments:

Post a Comment