व्यवहारिक गीता ज्ञान
भगवान गीता के आत्मसंयम योग नामक गीता के छठे अध्याय के पहले श्लोक में कर्मफल के त्याग के विषय में कहते हैं कि:-
अनाश्रित: कर्मफलं कार्य कर्म करोति य:।
स सन्यासी च योगी च न निरंग्निर्न चाक्रिय: ।।
श्रीभगवान बोले - जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह सन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।
इससे पूर्व के श्लोकों (5/11) में भगवान कहते हैं कि कर्म योगी ममता और आसक्ति को त्याग कर अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करता है ।और गीता के 5/12 श्लोक में कहते हैं कि कर्म योगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बंधता है।
भगवान कर्मफल के त्याग की महिमा को इस श्लोक में बताते हैं कि जब मनुष्य कर्म फल का आश्रय न लेकर अपने नियत कर्म करता है तब वह सन्यासी तथा योगी ही है । हम देखते हैं कि अधिकांशतः जब हम कर्म करते हैं तब किसी न किसी फल का आश्रय लेकर ही करते हैं इसलिए हमारे वर्तमान में किए हुए क्रियमाण कर्मों का फल संचित होता चला जाता है और उचित समय आने पर प्रारब्ध के रूप में सुख-दुख या अनुकूल प्रतिकूल परिस्थिति के रूप में हमारे सामने आता रहता है और हम उसे भोगते रहने के कारण और उनमें ममता और आसक्ति के कारण बार-बार इस संसार में अनेकों योनियों में आते जाते रहते हैं । इसलिए इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों को अनित्य और क्षरभंगुर और दुखों का कारण समझ समस्त कर्मों में फल की इच्छा, आसक्ति और ममता का त्याग कर देना ही कर्म फल का आश्रय न लेकर कर्म करना है।
जब हमारे नियत, निर्धारित कर्तव्य कर्म दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए होते हैं तब उनमें हमारी आसक्ति नहीं होती और ममता भी नहीं होती और ऐसे कर्म हमारी मुक्ति का कारण बन जाता है । जब हम अपने कर्मों को निर्लिप्त भाव से करते हैं तथा उनकी सिद्धि और असिद्धि में समान भाव रखते हैं एवं हर्ष और शोक से विचलित नहीं होते, ऐसे ही मनुष्य को सन्यासी और योगी कहा जाता है। अतः हमें अपने सभी कर्तव्य कर्म पूरी तत्परता से करते रहने हैं बस अपनी उन्हें करने की सोच बदलनी है उन में फंसने के लिए नहीं करनी है बल्कि उन्हें करते हुए अपने आप को मुक्त होने के लिए करने हैं यही तो हमारा इस मनुष्य शरीर में आने का उद्देश्य था जिससे भटक जाते हैं और सुख दुख भोगते हुए संसार में आते जाते रहते हैं। कभी कुछ समय निकालकर भगवान के बताए हुए मार्ग का चिंतन ही नहीं करते और अपने द्वारा ही निर्धारित गलत मार्ग पर जाने अनजाने में अनेकों जन्मों से चले जा रहे हैं । अभी भी समय है, बस चलना तो स्वयं को ही पड़ेगा, भगवान ने तो हमें सही तरह से कर्तव्य कर्म करने का रास्ता बता दिया है।
धन्यवाद
बी.के. शर्मा।
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