Sunday, May 3, 2020

परमात्मा में अर्पण बुद्धि से कर्म करना - दिनांक 14 अप्रैल 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

गीता में भगवान कर्म सन्यास योग नामक 5वें अध्याय के 10वें  श्लोक में कहते हैं कि:-

🌈🎊 ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सग्डं त्यक्त्व करोति यः।
लिप्यते न स पापेन  पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।  🌈🎊

        🌹   जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होता ।

      भगवान ने गीता में बार-बार आसक्ती से रहित होकर ही अपने अपने कर्तव्य कर्मों को करने की बात कही है (3/19,3/25 आदि ) ।

     इस श्लोक में भगवान शंकराचार्य अपने भाष्य में कहते हैं कि  "जो स्वामी के लिए कर्म करने वाले नौकर की भांति मैं ईश्वर के लिए करता हूं"  इस भाव से सब कर्मों को ईश्वर में अर्पण करके यहां तक कि मोक्ष रूप फल की भी आसक्ती छोड़कर कर्म करता है । वह, जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता , वैसे ही पापों से लिप्त नहीं होता । उसके कर्मों का फल तो केवल अंतःकरण की शुद्धि मात्र ही होता है।

आसक्ति से ही कामना  उत्पन्न होती है , और आसक्ति और कामना ही हमारे बंधन के लिए जिम्मेदार हैं और इन्हीं के कारण हमसे पाप कर्म भी हो जाते  हैं क्योंकि हमारा विचार अपने भोग और सुख आराम की तरफ हो जाता है ।  अतः हम अपने वर्ण  ,आश्रम , स्वभाव अर्थोपार्जन  संबंधी और शरीर निर्वाह  संबंधी जितने भी शास्त्र निहित  कर्म है ,  उन सब को ममता का त्याग करके सब कुछ भगवान का समझकर , उन्हीं के लिए उन्हीं को अर्पण करते हुए करते रहे । हमारा शरीर, मन, बुद्धि आदि सभी कुछ तो भगवान का ही दिया हुआ है,  उन्होंने ही हमारे पूर्व संस्कारों के अनुसार हमें संसार में मनुष्य शरीर देकर निर्धारित कर्म करने के लिए भेजा है , तब हम इस में आसक्त क्यों होते हैं , कुछ समय बाद तो सब कुछ छोड़ कर जाना ही  है , अतः कुछ दिन के लिए इसमें आसक्त  होने की क्या आवश्यकता है।

      जैसी कमल का पत्ता जल से ही उत्पन्न होता है , जल में ही रहता है और वहीं पर ही समाप्त हो जाता है , लेकिन वह जल में रहकर भी उससे निर्लिप्त रहता है , उसी प्रकार हम इस संसार में रहते हुए अपने सब कर्म ईश्वर को अर्पण करते हुए , आसक्ति रहित पूर्ण निष्काम भाव से करते रहें ताकि हम इस जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो सकें।  यह आसक्ति,  पदार्थों मे ममता और राग ही हमें इस संसार में बांधते  हैं । यही वास्तविक चिंतन की हमें आवश्यकता है, कुछ समय निकालकर हमें अपने वास्तविक स्वरूप का चिंतन अवश्य करना चाहिए जिसके लिए ही यह मनुष्य जन्म मिला है अन्यथा सब व्यर्थ ही हो जाएगा।

धन्यवाद
बी .के . शर्मा

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