Friday, May 1, 2020

क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) को जानना - दिनांक 4 अप्रैल 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

श्री वेदव्यास जी ने महाभारत में गीता जी का वर्णन करने के उपरांत कहा है कि गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात श्री गीता जी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित अंतःकरण में धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं पद्मनाथ भगवान श्री विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई है, फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है।

       हम कौन हैं, इस संसार में जो कि अनवरत रूप से चल रहा है हमारे कुछ समय के लिए मनुष्य शरीर में आने का क्या प्रयोजन है, क्या हम केवल एक नाम रूप धारी शरीर हैं या इसके अलावा कुछ और है ।  ऐसे अनेकों प्रश्नों पर हमें समय रहते हुए इसी जन्म में विचार करना चाहिए, ताकि बार-बार इस जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो सकें। भगवान गीता के क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग नामक 13 वें अध्याय के श्लोक 1 एवं 2 में कहते हैं:-

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतध्यो वेत्ति तं प्राहु:क्षेत्रज्ञ इति तद्विद: ।।
क्षेत्रज्ञं चांपि मां विध्दि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यन्तज्ञ्ज्ञानं मतं मम ।। 🌹

           श्री भगवान बोले - हे अर्जुन ! यह शरीर क्षेत्र इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है उसको क्षेत्रज्ञ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानी जन कहते हैं।

            हे अर्जुन ! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात जीवात्मा भी मुझे ही जान और क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ  को  अर्थात  विकार सहित प्रकृति काऔर पुरुष का जो तत्वों से जानता है वह ज्ञान है -  ऐसा मेरा मत है।

            कल कहे  गए गीता श्लोक के वर्णन में जैसा कि आपने जाना कि भगवान ने शरीर को एक यंत्र के रूप में वर्णन किया था । आज गीता के उपरोक्त श्लोक में भगवान ने शरीर को एक क्षेत्र अर्थात खेत के रूप में कहा है। जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है वैसे ही इस शरीर में बोए हुए कर्म - संस्कार रूप बीजों का फल भी समय पर प्रकट होता है। इसलिए इस शरीर को क्षेत्र (खेत) कहा  है। इसलिए हमें प्रत्येक कर्म करने से पहले ही अच्छी तरह सोच विचार कर लेना चाहिए, चूंकि हमारा प्रत्येक किया हुआ कर्म एक बीज रूप में हमारे संस्कारों में स्थापित होकर  उपयुक्त समय आने पर प्रारब्ध (भाग्य) रूप में हमारे सामने प्रकट होता है, इसके लिए उत्तरदायित्व है। आज की परिस्थिति को भी यदि देखें तब किसी ना किसी रूप में मनुष्य ही इसके लिए उत्तरदाई है, अतः हमें हर समय ही सावधान होने की जरूरत है।

       हम सभी जानते हैं कि हमारे तीनों शरीर  ( स्थूल ,सूक्ष्म ,कारण )  प्रतिक्षण समाप्ति की तरफ जा रहे हैं, परिवर्तनशील है, बचपन, जवानी और बुढ़ापा में हमने इस को बदलते हुए देखा है,  हमारा शरीर (क्षेत्र) प्रकृति का अंश होने से अंत में प्रकृति में ही विलीन हो जाता है । जिन पंचतत्व से बना है उन्हीं में मिल जाता है। लेकिन हम क्षत्रिज्ञ (जीवात्मा) दृष्टाभाव  में इस शरीर में स्थित रहते हुए इस बदलते हुए शरीर को देखते रहते हैं । शरीर बचपन से आज तक कितना बदल गया है लेकिन इसे देखने वाले हम आज भी वहीं है। आत:  हम शरीर नहीं हैं, इससे अलग हैं ।कभी भी खेत और किसान अर्थात क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ या शरीर और जीवात्मा एक नहीं है दोनों ही अलग हैं।  जैसे सभी यंत्रों में उसको चलाने के लिए जो बिजली (चेतन तत्व) है वह एक ही है, केवल  यंत्र अलग है उसी तरह क्षेत्र (शरीर) अलग है लेकिन सभी क्षेत्र में क्षेत्रज्ञ  (जीवात्मा ) एक ही है।  अज्ञान के कारण ही हम जीव भाव से अपने को अलग अलग समझते हैं । भगवान के इन वाक्यों पर हमें विचार और गहन चिंतन करने की आवश्यकता है, ताकि हमारा मनुष्य शरीर में आना सफल हो सके।

धन्यवाद 🙏
बी.के. शर्मा

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