Friday, May 15, 2020

शांति प्राप्त मनुष्य - दिनांक 12 मई 2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान-

      भगवान गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 71 में शांति प्राप्त मनुष्य के लक्षण बताते हैं:-

🌈 विहाय कामान्य: सर्वान्युमांश्र्चरति नि:स्पृह। ️
निर्ममो निरहंकार: स शांतिमघिगच्छति।। 🌥

       जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहारहित हुआ बिचरता है, वही शांति को प्राप्त होता है, अर्थात वह शांति को प्राप्त है।

     भगवान ने शांति की प्राप्ति के लिए चार चीजों के त्याग की  बात इस श्लोक में हमारे लिए कही है। 
१. कामना 
२. स्पृहा  
३.ममता और   
४.अहंकार।  
 
    यदि वास्तव में हम विचार करें तब देखते हैं कि हमारा वास्तविक स्वरूप तो शांति को प्राप्त ही है "शांताकारं"। लेकिन इच्छाओं, ममता , आसक्ति और मन्नन (कर्ता भाव) के कारण ही हम अधिकांशतः अशांत रहते हैं । जो अनुकूल वस्तु हमारे पास नहीं होती उसको हम प्राप्त करने की कामना करते हैं और जब वह प्राप्त हो जाती है , तब दूसरी वस्तु प्राप्त करने की इच्छा हो जाती है , यही कामनाएं आती जाती रहती हैं , कभी समाप्त नहीं होती । जब तक कि हमें ज्ञान नहीं हो जाता और हम इनका  त्याग करके अपना कर्तव्य कर्म निष्काम भाव से नहीं शुरु करते । प्रारब्ध के अनुसार हमें आवश्यकता अनुसार भोग तो प्राप्त होते ही रहेंगे,  फिर हम कामना करके क्यों अपने आप को अशांत करते हैं।

     भगवान ने इसके पूर्व के श्लोक 2/70 में कहा है कि जैसे संपूर्ण नदियों का जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है , पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है । ऐसे ही संपूर्ण भोग- पदार्थ  जिस संयमी मनुष्य में विकार उत्पन्न किए बिना ही उसको प्राप्त होते हैं , वही मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है,  भोगों की कामना वाला नहीं।

   जैसे समुद्र को जल की आवश्यकता न रहने पर भी तमाम नदियों का जल उसमें आकर मिलता रहता है लेकिन तब भी समुद्र विचलित नहीं होता , उसमें बाढ़ नहीं आती , वह अपनी मर्यादा में ही रहता है। सारी नदियों के जल उसमें बिना किसी प्रकार की विकृति उत्पन्न किए हुए ही विलीन हो जाते हैं। उसी प्रकार स्थिर बुद्धि वाले शांत मनुष्य में भोगो की कामना  या इच्छा ना होते हुए भी , प्रारब्ध के अनुसार जो भोग उसे प्राप्त होते हैं उनसे वह हर्ष - शोक , राग -द्वेष , लोभ -मोह आदि से युक्त नहीं होता अर्थात  अपनी वास्तविक स्वरूप से विचलित नहीं होता । यदि  आज के समय या युग में वह दुःख या शोक के कारण थोड़ा विचलित  भी होता है तब यथा शीघ्र ही उसे बाहर निकल जाता है उसे प्रारब्ध  समझ कर भोग लेता है। इस कारण वह अशांत नहीं होता।

     इसी प्रकार जब हमारी सांसारिक वस्तुएं जो हमें प्राप्त हैं उनमें हम जब ममता और आसक्ति रखते हैं और मैं ही सब कार्य कर रहा हूं ऐसा कर्ता भाव रखते हैं । तो इस संबंध रखने के कारण भी हम अशांत रहते हैं । अतः  हम अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित रहते हुए पूर्ण निष्काम भाव से अपने कर्तव्य कर्म पूरी निष्ठा और ईमानदारी से करते रहें । प्रारब्ध के अनुसार हमारी आवश्यकताएं   तो पूरी होती ही रहेंगी , इनकी चिंता नहीं करनी चाहिए । भगवान के अनुसार उपरोक्त चार चीजों के त्याग द्वारा ही हमें शांति प्राप्त हो सकती है।

       🙏 धन्यवाद 
         वी .के. शर्मा 

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