Wednesday, May 6, 2020

सात्विकी बुद्धि वाले मनुष्य - दिनांक 5 मई 2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

         भगवान ने गीता के मोक्ष  सन्यास योग नामक 18वें अध्याय में सात्विक, राजस और तामस योग से तीन प्रकार के कर्म, त्याग और कर्ता के विषय में श्लोक १८/२३-२५, १८/९,८,७ एवं १८/२६-२८ में इन प्रकृति के गुणों से लिप्त रहने वाले, मनुष्यों के लक्षण हमें बताएं हैं।  ताकि हम उन्हें अपने में पहचान कर और दूर करके अपना उद्धार कर सकें। अब भगवान हमारी बुद्धि को भी जिसके द्वारा विचार करके हम कार्य करते हैं, को गुणों (लक्षण) के अनुसार तीन प्रकार से सात्विक, राजस और तामस के भेद का वर्णन करते हैं। गीता के श्लोक १८/३० में सात्विकी बुद्धि के लक्षण बताते हैं कि:-

🎊🌹 प्रवृत्तिं च निवृर्तिं च कार्याकार्ये भयाभये ।
बन्धं मोक्ष च या वेत्ति बुद्धि: सा पार्थ सात्त्विकी।। 🎊🌹

            हे पार्थ जो बुद्धि प्रवृत्ति मार्ग तथा निवृत्ति मार्ग को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है-वह बुद्धि सात्त्विकी है।

           जब हम गृहस्थ में रहकर फल की इच्छा को त्याग कर, ममता, आसक्ति और कर्ता अभिमान को छोड़कर अपने कर्तव्य कर्म परमात्मा को अर्पण बुद्धि से करते हैं तब यह प्रवृत्ति मार्ग है।  इस कर्म योग के द्वारा हमारा  अंतःकरण पवित्र होकर हम कर्म बंधन से छूट कर परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं। दूसरा परमात्मा प्राप्ति के लिए निवृर्ति मार्ग है जिसमें समस्त कर्मो और भोगों को छोड़कर सन्यास आश्रम में रहकर किया जाता है। संसार से उपराम होकर बिचरने  का नाम निवृत्ति मार्ग है।

           जब हम अपनी बुद्धि द्वारा ठीक-ठीक निर्णय कर पाते हैं कि मेरे द्वारा किया जाने वाला कर्म शास्त्रों के अनुसार, मेरा कल्याण करने वाला है, वर्ण, आश्रम एवं परिस्थिति के अनुसार लोकहित के दृष्टि से उचित है या इन सब के विरुद्ध है, इसके करने से मैं बंधन में पड़ जाऊंगा। अर्थात हमारा कर्तव्य कर्म क्या है, और क्या नहीं है, इसका हमारी बुद्धि सही निर्णय ले पाती है।

         जब हमारे द्वारा किया गया कार्य न्याय संगत नहीं है, दूसरों का अनिष्ट करने वाला है, शास्त्र विरुद्ध है, समाज के हित में नहीं है, इसके कारण हमें दंड भी मिल सकता है, तब हमारे अंतःकरण में एक प्रकार का भय होता है। इसके विपरीत किए गए कार्य करने पर हम अभय रहते हैं। यदि हमारी बुद्धि कर्म करने से पूर्व ही भय और अभय के विषय में ठीक-ठीक जानकर उचित निर्णय लेती है तभी यह सात्विक बुद्धि है।

       जब हम कोई कार्य, आसक्ति के साथ, मन में फल की इच्छा  रखते हुए, अभिमान पूर्वक  करते हैं तब हम कर्म बंधन में फस जाते हैं। जब भी हमारे मन में सांसारिक वस्तुओं की कामना है तभी तक हम बंधन में हैं। यदि हमारे कर्म ईश्वर अर्पण बुद्धि से, आसक्ति और फल की इच्छा से रहित होकर  होते हैं तब हम कर्तव्य कर्म करते हुए भी मुक्त ही रहते हैं। भगवान ने तो गीता के श्लोक ६/१ में कहा ही है कि जो पुरुष कर्मफल का आश्रय न ले कर करने योग्य कर्म करता है, वह सन्यासी तथा योगी है।

   भगवान ने कहा है कि जिसने कर्म योग की विधि से समस्त कर्मों को परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक (बुद्धि)द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किए हुए अंतः करण वाले पुरुष को कर्म नहीं बांधते (श्लोक ४/४१)। अतः ऐसा मनुष्य कर्म करते हुए भी मुक्त ही है।

   अतः जब हमारी बुद्धि भगवान द्वारा कही गई उपरोक्त सभी बातों का उचित निर्णय ले पाती है, कोई संशय नहीं रखती और ना कोई भूल करती है। जब जिस विषय का निर्णय करने का समय आता है तब हमारी बुद्धि उचित निर्णय लेती है जिससे हम कर्म बंधन से मुक्त हो सकें, ऐसी बुद्धि को सात्विकी बुद्धि कहते है। 

          🙏धन्यवाद
               बी के शर्मा 🌺

No comments:

Post a Comment