व्यावहारिक गीता ज्ञान -
गीता में भगवान ने अनेको बार ममता, आसक्ति और फल की इच्छा न रखते हुए अपने नियत कर्म करने के लिए कहा है।
जैसा कि गीता के 2/47 श्लोक में भगवान ने चार बातों की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट किया है जिसने दो बातें कर्म के विषय में हैं जैसे
1. कर्म करने में ही तेरा अधिकार है और
2. कर्म न करने में तेरी आसक्ति ना हो अर्थात आलसी और निकम्मा होकर हम ना बैठें, लोकहित में अपने अपने स्वाभाविक कर्म करते रहें। और दो बातें कर्मफल के विषय में कहीं हैं-
1. किए गए कर्मों के फल में कभी तेरा अधिकार नहीं है और 2. तू कर्मफल का हेतू भी मत बन।
अर्थात हम जो कर्म करते हैं उसका फल हमारी इच्छा अनुसार नहीं मिल पाएगा तब शुरू में ही इच्छा रख कर कर्म क्यों शुरू करना है। हमें ईश्वर ने जो कर्म हमारे वर्ण, आश्रम, स्वभाव, जीविका आदि के अनुसार दिए हैं उन्हें हमें पूर्ण निष्काम भाव से करते रहना चाहिए। इस विषय में महाभारत के अनुशासन पर्व में आता है कि पूर्व काल में महर्षि वशिष्ठ जी ने लोक पितामह ब्रह्मा जी से पूछा-भगवन! प्रारब्ध और मनुष्य के प्रयत्न में किसकी श्रेष्ठता है?
ब्रह्मा जी ने कहा-बिना बीज की कोई चीज पैदा नहीं होती। बीज से ही बीज पैदा होता है और बीज से ही फल उत्पन्न होता है। किसान खेत में जाकर जैसा बीज बो आता है, उसी के अनुसार उसको फल मिलता है। इसी प्रकार पुण्य या पाप जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फल प्राप्त होता है। जैसे बीज खेत में बोये बिना फल नहीं दे सकता उसी प्रकार प्रारब्ध भी पुरुषार्थ के बिना काम नहीं देता। कर्म करने वाला मनुष्य अपने भले या बुरे कर्म का फल स्वयं ही भोगता है, यह बात संसार में प्रत्यक्ष दिखाई देती है। शुभ कर्म करने से सुख और पाप कर्म करने से दुख मिलता है। पुरुषार्थी मनुष्य सर्वत्र सम्मान पाता है किंतु जो निकम्मा है वह घाव पर नमक छिड़कने के समान दुख भोगता है। पुरुषार्थ करने पर मनुष्य को देव (प्रारब्ध) के अनुसार फल मिल जाता है । किंतु चुपचाप बैठे रहने पर देव किसी को कोई फल नहीं दे सकता । इसलिए भगवान के गीता के 2/47 श्लोक में कहा है कि कर्म करने में ही तेरा अधिकार है और कर्म न करने में तेरी आसक्ति ना हो। कर्म करने पर मनुष्य को प्रारब्ध के अनुसार फल की प्राप्ति होती रहती है इसमें अपनी इच्छा को क्यों रखना है। जैसा कि हम जानते हैं कि वर्तमान में हमारे द्वारा किए गए क्रियमाण कर्म ही संचित होते रहते हैं और उचित समय आने पर प्रारब्ध के रूप में अर्थात सुख-दुख रूप में हमारे सामने उपस्थित हो जाते हैं। इसके लिए दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए।
धन्यवाद
बी.के. शर्मा
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