आहार का सभी प्राणियों के जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान है; हम जैसा आहार लेते हैं उसका वैसा ही प्रभाव हमारे मन और बुद्धि पर पड़ता है। उपनिषद में आता है ‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः’, यानी हमारा आहार शुद्ध होगा, तो हमारा अंतःकरण भी शुद्ध होगी। अंतःकरण के अनुरूप ही हमारे विचार होते हैं, बुद्धि होती है, कार्य होते हैं और अंत में हम स्वयं भी वैसे ही बन जाते हैं। एक प्रसिद्ध कहावत भी है, जैसा खाए अन्न, वैसा हो जाए मन। लेकिन आज के आधुनिक एवं व्यस्त समय में अक्सर हम आहार लेने से पहले उसके गुण दोष पर विचार ही नहीं करते, और इसके चलते हम किसी न किसी रोग से भी ग्रसित हो जाते हैं।
गीता
में तीन तरह के आहार के विषय में बताया गया है। पहला, जो सात्विक या श्रेष्ठ पुरुष
को प्रिय होता है। यह वैसा आहार है जो आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसों से युक्त
होता है। ये आहार मन को प्रिय होता है। दूसरा, जो राजस या मध्यम पुरुष को प्रिय
होता है, जैसे
कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत
गर्म, तीखे, रूखे, दाहकारक।
ऐसे आहार चिंता और रोगों को उत्पन्न करने वाले होते हैं। तीसरा, तामसिक आहार जो
अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी
और उच्छिष्ट है। यह अपवित्र माना जाता है।
भोजन
के विषय में विचार करने पर हम पाएंगे कि सात्विक पुरुष खाने से पहले भोजन के
पदार्थों के विषय में भली-भांति विचार करता हैं कि ऐसा भोजन लेना चाहिए जिससे मेरी
आयु और बल बढ़े, वह रोगी न बन जाए। बुद्धि सात्विक बने। राजस पुरुष कड़वे, खट्टे, तीखे, दाहकारक
पदार्थ वाले भोजन को पहले ग्रहण करता है, उसके बाद वह विचार करता है कि इस भोजन से
रोग उत्पन्न हो रहे हैं, चिंता और दुख बढ़ रहे हैं। लेकिन तामस पुरुष
न तो भोजन लेने से पहले सोचता है और न ही बाद में उसके गुण-दोष पर विचार करता है
बस उसकी दृष्टि केवल भोजन पर ही रहती है। तामसिक पदार्थ लेने के कारण उसके अंदर
आलस्य, निद्रा का बढ़ना, हिंसा, कर्मों में मन का न लगना आदि अवगुण बढ़ते
जाते हैं। सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से लोभ और तमोगुण से
प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं।
गीता
में आता है कि दुखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार, विहार
करने वाले का, कर्मों
में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध
होता है। यानी कि हमें न तो ज्यादा और न कम अर्थात अपने शरीर और आयु के अनुसार
भोजन करना चाहिए। ऊपर बतायी गयी पांच चीजों, जिसमें सर्वप्रथम आहार का वर्णन आता
है, ग्रहण करना चाहिए। उसके पश्चात विहार (घूमना, योग आदि), कर्तव्य-कर्म, सोना
और जागना शामिल है, पर उचित ध्यान देना चाहिए।
सभी
प्राणियों में मनुष्य जन्म ही विवेक प्रधान है। वह
उचित, अनुचित, नित्य, अनित्य
आदि का निर्णय ले सकता है। इसलिए अंतःकरण (मन और बुद्धि) की शुद्धि के लिए और शरीर
को निरोग बनाए रखने के लिए मनुष्य को भोजन में शामिल पदार्थों को ग्रहण करने से
पहले उनके गुण-दोष का भली-भांति विचार कर लेना चाहिए। सात्विक भोजन से हमारा मन और
बुद्धि भी पवित्र रहेंगे, उचित चिंतन भी होता रहेगा और शरीर निरोग रहने
के कारण हमारी कार्य क्षमता भी यथावत बनी रहेगी।
धन्यवाद डॉ. बी. के. शर्मा