मनुष्यों का स्वभाव, व्यवहार और व्यक्तित्व अलग-अलग होता है। यह प्रकृति की त्रिगुणात्मक माया से उत्पन्न सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से प्रभावित होता है। जिस मनुष्य में जिस गुण की अधिकता होती है उसका वैसा ही स्वभाव, व्यवहार और कार्य करने का तरीका होता है। इसलिए संसार में अच्छे, बुरे, शांत या हिंसात्मक प्रवृत्ति के मनुष्य अपने-अपने गुणों के आधार पर होते हैं। भगवान ने गीता में कहा है कि कोई ऐसा प्राणी नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।
मनुष्य अपने अंदर के
गुणों का कैसे विश्लेषण करे और एक गुण को दबाकर दूसरे गुण को कैसे बढ़ाए कि उसका
स्वभाव या व्यवहार अच्छा बन जाए, इसके लिए सभी गुण उसके चित्त से ही संबंध रखते
हैं। एक ही माता-पिता की संतान का एक से ही वातावरण में पालन-पोषण होने पर भी उनके
स्वभाव या व्यक्तित्व अलग-अलग प्रकार के होते हैं। लेकिन मनुष्य अपने स्वभाव में
परिर्वतन करके उसे अच्छा या बुरा बनाने में सक्षम हो सकता है। इसके लिए उसे अपने
अंदर मौजूद गुणों का अवलोकन स्वयं ही करना पड़ेगा।
श्रीमद्भागवत महापुराण
में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित्त
है। इन्हीं गुणों के कारण जीव शरीर या धन आदि में आसक्त होकर बन्धन में पड़ जाता
है। सत्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर
बढ़ता है, उस समय मनुष्य सुख, धर्म और ज्ञान आदि का भाजन हो जाता है। रजोगुण
भेदबुद्धि का कारण है उसका स्वभाव है आसक्ति। जिस समय तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर
रजोगुण बढ़ता है उस समय मनुष्य दुख, कर्म, यश और लक्ष्मी से संपन्न होता है।
तमोगुण का स्वरुप है अज्ञान, उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब वह
बढ़कर सत्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है तब मनुष्य तरह-तरह की आशाएँ करता है,
शोक-मोह में पड़ जाता है, हिंसा करने लग जाता है या फिर निद्रा, आलस्य के वशीभूत
होकर पड़ा रहता है।
जब चित्त प्रसन्न हो,
इन्द्रियाँ शान्त हों, देह निर्भय हो और मन में आसक्ति न हो तब सत्वगुण की वृद्धि
समझनी चाहिए। सत्वगुण भगवान की प्राप्ति का साधन है। जब काम करते-करते जीव की
बुद्धि चंचल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियाँ विकारयुक्त, मन भ्रांत और
शरीर अस्वस्थ हो तब समझना चाहिए कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है। जब चित्त
ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से इसके पाँचों विषयों गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द को
ठीक-ठीक समझने में असमर्थ हो जाये और अज्ञान, विषाद की वृद्धि हो तब समझना चाहिए
कि तमोगुण वृद्धि पर है।
इसलिए हमें अपने अंदर
मौजूद सभी अच्छे गुणों को पहचानकर अपनी बुद्धि और विवेक से अपने मन को निरंतर
अभ्यास से नियंत्रण में रखते हुए पहले तमोगुण को दबाकर रजोगुण की वृद्धि और फिर
रजोगुण को भी कम करके सत्वगुण की वृद्धि करना चाहिए ताकि हम अपने व्यक्तित्व,
स्वभाव और दैनिक व्यवहार में निरंतर परिवर्तन ला सकें। लेकिन यह सब हमें स्वयं के
ही प्रयास से करना पड़ेगा। इससे हमारा दूसरों के साथ व्यवहार भी अच्छा हो जायेगा
और हम भी एक सुखी एवं प्रसन्नचित्त जीवन का आन्नद प्राप्त कर सकेगें।
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