आत्मबोध
डा0 बी0 के0 शर्मा
मै
कौन हूँ? तुम
कौन हो? मैं
कहॉं से आया?
मेरे जीवन का
उद्देश्य क्या है?
इस शरीर से
बाहर निकलने के
बाद क्या? इस
तरह के अनेक
प्रश्न हमें अपने
आप से पॅूछते
रहने चाहिए और
इस सम्पूर्ण विश्व
को स्वप्नवत सारहीन
समझकर, आत्म बोध
की जिज्ञासा करनी
चाहिए। तुलसी दास जी
ने कितने स्पष्ट
शब्दों में कहा
है कि ईश्वर
अंश
जीव
अविनाशी,
चेतन
अमल
सहज
सुखवासी। यह
जीवात्मा ईश्वर का अंश
है और यह
चेतन, मलरहित, सहज
और सुखों
की खान है।
इसी तरह गीता
में भगवान श्रीकृष्ण
ने स्पष्ट कर
दिया कि इस
देह में यह
सनातन जीवात्मा मेरा
ही अंश है
और वही इस
प्रकृति में स्थित
मन और पाँचों
इन्द्रियों को आकर्षित
करता है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः
सनातन।
मनः
षष्ठानीन्द्रियाणि
प्रकृतिस्थानि
कर्षति।।
(गीता
15/7)
परन्तु हमने संसार
को अपने स्वरूप
से भी ज्यादा
महत्व दे रखा
है इसलिए हम
संसार के साथ
बंध गये हैं
और इसे छोडते
समय बहुत कष्ट
का अनुभव करते
हैं। इसके विपरीत
यदि हम अपने
वास्तविक स्वरूप को संसार
से अधिक महत्व
दें तब हम
संसार में रहते
हुए भी मुक्त
रह सकते हैं।
और इस शरीर
में रहते हुए
भी अपने आपको
शरीर से पृथक
समझें तब इस
शरीर को छोडते समय भी
हम आनन्द का
अनुभव करेंगे, अर्थात्
शरीर में रहते
हुए भी, और
शरीर से अलग
हो जाने के
बाद में भी
मुक्त रहेंगे। बस
हमें इस बात
को मानकर इसका
पालन एवं अनुभव
करना है। अन्यथा
पुनरपि
जननं
पुनरपि
मरणं।
पुनरपि जननी
जठरे
शयनम्।।
इस संसारे
बहुदुस्तारे।
कृपयाअपारे पाहि
मुरारे।।
(भज
गोविन्दम्,
भजगोविन्दम्
।)
बार-बार
जन्म लेना और
बार-बार मरना,
मॉं के गर्भ
में बार-बार
आना ऐसा है
संसार का यह
दुस्तर प्रभाव। हे मुरारे
अपनी अनन्त दया
से मेरा उद्धार करो। जीव
के लिए जन्म
एवं मृत्यु का
चक्कर कभी बन्द
नहीं होता जब
तक वह स्वयं
कोशिश न करे। वैद्ध दवा तो
बता सकते हैं
लेकिन जब तक
हम दवा का
स्वयं सेवन न
करें तब तक
हम ठीक नहीं
हो सकते। अतः अभी
भी समय है
कि हम शास्त्रों
में कही गयी
बातों को अपने
जीवन में प्रयोग
में लाकर जन्म
एवं मृत्यु के
बन्धन से मुक्त
हो सकते हैं। जन्म
कष्टदायक है, मृत्यु
तो वास्तव में
बहुत ही कष्टदायक
है फिर मां
के गर्भ में
निवास करना, उस
गन्दे वातावरण में
कैद होना, मां
के हर शारीरिक
एवं मानसिक धक्के
का शिकार होना,
इसकी यातनायें भुगतना
कितनी घृणित भयंकर
और क्रुर स्थिति
है, लेकिन फिर
भी हम सावधान
न होकर इसमें फॅसे
हुए हैं, इससे
बाहर निकलने के
लिए कोई भी
प्रयास नहीं करना
चाहते।
हम अपने
शत्रु या मित्र
से, पुत्र या
सम्बन्धियों से झगडने
में या दोस्ती
करने में अपनी
शक्ति बर्बाद करते
रहते हैं। इसके
विपरीत अपने को
सब जीव और
प्राणी में यदि
हम समभाव से
देखें तब हम
ईश्वर से और
ईश्वर हमसे अदृश्य
नहीं होते, जैसा
कि गीता में
भगवान कहते हैं:
यो मां
पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि
पश्यति।
तस्याहं
न
प्रणश्यामि
स
च
मे
न
प्रणश्यति।।
(गीता
6/30)
अतः हमें
किसी से भी
राग, द्धेष, कामना
आसक्ति न रखते
हुए सभी जीवों
में सबके आत्मरूप
भगवान को ही
देखना चाहिए। यदि
हम इस दृष्टिकोण
को ही अपना
लें तब हम
कैसे किसी का
बुरा सोच सकते
हैं या कर
सकते हैं चूंकि जो वह
है वही हम
हैं, हममे और
दूसरे जीवों में
कुछ भी अन्तर
नहीं है। केवल
मात्र देखने में
शरीर और नाम
में भेद है,
आत्मा जो कि
ईश्वर का अंश
है वह तो
सभी की एक
है फिर भेद
कैसा। आत्मा सत्स्वरूप
है। इसके ज्ञान
के हेतु विवेक होना आवश्यक
है। कुछ लोग
जागृत अवस्था में
दिखाई देने वाली
या इन्द्रियों से
अनुभव में आने
वाली वस्तुओं को
सत्य समझते हैं।
यह मिथ्या धारणा
है। दिखाई तो
स्वप्न भी देता
है, आकाश भी
नीला दिखाई देता
है, मरूस्थल में
भी पानी दिखाई
देता है, किन्तु
ये सत्य नहीं
है। सत्य वही
है जो तीनों
कालों में विद्धमान
रहे। आत्मा वह
वस्तु है जो
जगत की रचना
से पूर्व थी, अब
भी है और
जगत के नष्ट
होने के बाद
भी विद्धमान रहेगी। हम
यह भी देखतें
हैं कि हमारा
शरीर और अवस्था
भी समय के
साथ-साथ बदल
रही है। जो हम
बचपन में थें,
जवानी में बदल
गये और अब
बुढापे में और
भी बदल गये
लेकिन उसके देखने
वाले हम स्वयं
वही हैं, केवल
शरीर का रूप
बदल रहा है,
इसको जानने वाले
हम वही हैं।
आत्मा का अर्थ
है- मैं स्वयं
। जो अपने
से पृथक नहीं
है, अपना ही
स्वरूप है वह
आत्मा है। आत्मा
के लक्षण ही
मेरे लक्षण हैं। मैं
स्वयं सत् चित्
और आनन्द स्वरूप
हॅू। शरीर
मन बुद्धि अनात्मा
है। उनके आवरण
में हम स्वयं
अपने को नहीं
देख रहें हैं।
भगवान शंकराचार्य आत्मा
के विषय में
कहतें हैं:: सच्चिदानन्दस्वरूपं,
स्वात्मानं विजानीयात। इस प्रकार
सत् चित् और
आनन्दस्वरूप अपने आत्मा
को जानना चाहिए।
जीव और ईश्वर
में कोई भेद
नहीं है, हम
तो ईश्वर के
ही प्रतिबिंब हैं।
जीव और ईश्वर
के भेद के
विषय में कहते
हैं।
स्थूल शरीराभिमानि जीवनात्मकं
ब्रह्मप्रतिबिम्बं भवति।
एव जीवः प्रकृत्या
स्वस्मात् ईश्वरं
भिन्नत्वेन
जानाति।
सूक्ष्म शरीर में
ब्रह्म का प्रतिबिम्ब
जो स्थूल शरीर
का अभिमानी है
उसी का नाम
जीव है। यह
जीव स्वभावतः ईश्वर
को अपने से
भिन्न समझता है।
जीव यदि अपनी
उपाधियां त्याग दे तो
वह ब्रह्म है।
इस प्रकार जब
तक उपाधि भेद
से उत्पन्न हुई
जीव और ईश्वर
में भेद दृष्टि
बनी रहती है
तब तक जन्म
मरण आदि रूप
संसार छूटता नहीं
है। इसलिए जीव
और ईश्वर के
बीच भेद बुद्धि स्वीकार
नहीं करनी चाहिए।
अतः यदि हममें
विवेक जागृत हो
जाये और हम
अपने स्वरूप को
पहचान लें जैसा
कि ऊपर कहा
गया है तब
हममें और ईश्वर
में कोई भेद
नहीं है। सभी
जीव और प्राणी
एकरूप हैं फिर
भेदभाव किससे, क्यों और
कैसा। एक बार
आत्मबोध होने की
देर है, उसके
बाद कुछ भी
शेष नहीं रहता
। जीव ही
शुद्ध चैतन्य स्वरूप हो
जाता है। इस
प्रकार चैतन्यरूप में जीव
और ईश्वर अभिन्न
हैं। आत्म बोध
होने पर यह
भान हो जाता
है कि मैं
न ब्राह्मण हॅू,
न शुद्र हूँ,
न पुरूष हूँ किन्तु असंग सच्चिदानंद
स्वरूप, प्रकाशरूप सर्वान्तर्यामी चिदाकाशरूप
(आत्मा) हूँ । और
तब हम जीवन्मुक्त
हो जाते हैं।
हममें भेद दृष्टि समाप्त
हो जाती है।
इस प्रकार आत्मबोध
का अनुभव करके
पुरूष संसार से
पार हो जाता
है। हम अपने
अज्ञान के कारण
अपने आप को
शरीर और अपने
नाम के साथ
जोड़ लेते हैं
और सभी अपने
कर्मो के कर्ता
और भोक्ता अपने
आप को समझने
लगकर एक संसार
की रचना कर
लेते हैं और
इसमें फंसकर अनेक
प्रकार के दुखों
को भोगते रहते
हैं। लेकिन
विवेक के जागृत
होने पर आत्मा
का ज्ञान होता
है और उसी
के साथ आत्मा
और ब्रह्म की
एकता तथा शुद्ध व शाश्वत आनन्द का अनुभव
होता है। यह
आनन्द एवं सुख
इसी शरीर के
रहते इस लोक
में प्राप्त हो
जाता है। अर्थात्
आत्मज्ञानी शोक से
पार हो जाता
है और साथ
ही सभी कर्मो
के फल से
मुक्त भी हो
जाता है।
अतः
समाधत्स्व
यतेन्द्रियः
सदा
निरन्तरं शान्तमनाः
प्रतीचि।।
ध्वान्तमनाद्यविद्यया
कृतं सदेकत्वविलोकनेन।। (विवेकचूड़ामणि
367)
इसलिए सदा संयतेन्द्रिय
होकर शांत मन
से निरन्तर प्रत्यगात्मा
ब्रहम में चित्त
स्थिर करो और
सच्चिदानन्द ब्रह्म के साथ
अपना ऐक्य देखते
हुए अनादि अविद्धा
से उत्पन्न अज्ञानान्धकार
का ध्वंस करो।
ब्रह्म तत्व को
जान लेने पर
विद्धा को पूर्ववत्
संसार की आस्था
नहीं रहती। और
यदि फिर भी
संसार की आस्था
बनी रहे तब
समझना चाहिए कि
वह तो संसारी
है उसे ब्रह्म
तत्व का ज्ञान
ही नहीं हुआ।
वेदान्त का सिद्धांत भी यही
कहता है कि
जीव और सम्पूर्ण
जगत केवल ब्रह्म
ही है और
उस अद्धितीय ब्रह्म
में निरन्तर अखण्डरूप
से स्थित रहना
ही मोक्ष है।
उस स्थिति में
पहुचकर जीव को सम्पूर्ण
विश्व आत्मस्वरूप ही
जान पड़ता है
जैसे तरंग, फेन,
भंवर और बुद्बुद
आदि स्वरूप से
सब जल ही
है। तब जीव
महसूस करता है
किः
स्वयं ब्रह्मा स्वयं
विष्णुः
स्वयमिन्द्रः
स्वयं
शिवः।
स्वयं
विश्वमिदं
सर्व
स्वस्मादन्यन
किंचनं।।
( विवेकचूड़ामणि
389)
डा0 बी0 के0
शर्मा
11/440, वसुन्धरा
गाजियाबाद(उ0प्र0)