Sunday, August 30, 2020

सिर्फ भोग में रमण करने वाला मनुष्य व्यर्थ ही जीता है - दिनांक – 30-08-2020

 व्यावहारिक गीता ज्ञान

हम देख रहे हैं कि कहीं पर वर्षा औसत से कम हो रही है और कहीं अधिक वर्षा से बाढ़ का सामना करना पड़ रहा है। कोविड-19 जैसी बिमारी का सामना पूरे विश्व को करना पड़ रहा है। ऐसे काफी कारण प्राकृतिक हैं जिनसे मनुष्य जूझ रहा है। क्या मानवजाति के किए जाने वाले कर्मों का सृष्टिचक्र पर अनुचित प्रभाव पड़ रहा हैक्या इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। यदि इन प्रश्नों के उत्तर हम अपने ही शास्त्रों में देखें तब हम स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि केवल अपने हितों को ही ध्यान में रखकर कर्म किए जा रहे हैं । भगवान ने गीता में मनुष्यों के कर्मों के सृष्टिचक्र पर प्रभाव बतलाया है। गीता में आता है- संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैंअन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती हैवर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न जान, और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परमात्मा सदा ही विहित कर्मों में प्रतिष्ठित हैं। जो इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं चलता, यानी अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इंद्रियों के भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। शास्त्रविहित कर्मों को यज्ञ कहा है। प्रत्येक मनुष्य यदि अपने कर्तव्य कर्म का ठीक तरह से पालन नहीं करेगा, तब उसका प्रभाव सृष्टि चक्र पर पड़कर पूरी मानव जाति को ही भुगतना पड़ेगा।

जैसे एक मशीन में अनेक पुर्जे होते हैं। यदि सभी पुर्जे ठीक से काम कर रहे हों, तब मशीन ठीक से काम करती है। और अगर उसका एक भी पुर्जा ठीक से अपना काम न करे, तब मशीन भी ठीक प्रकार से काम नहीं करेगी और अपना पूरा उत्पादन नहीं देगी। इसी प्रकार हमारे शरीर में अनेक अंग हैं और उनमें से एक भी अंग खराब हो जाए, तब उसका असर हमारे पूरे शरीर पर पड़ता है और हम दुखी हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य इस सृष्टि का एक महत्वपूर्ण अंग है। यदि वह अपना कर्तव्य और कर्म स्वार्थ बुद्धि से केवल अपने हित को ध्यान में रखकर करेगा उसका प्रभाव पूरी सृष्टि या प्रकृति पर भी पड़ेगा। प्रकृति का प्रकोप पूरी मानव जाति को ही भुगतना पड़ेगा। यदि मनुष्य अपना कर्म पूरे निस्वार्थ और निष्काम भाव से दूसरों के हित को भी ध्यान में रखते हुए करेगा, तब वह भी बंधन से मुक्त रहेगा और सृष्टि या प्रकृति भी अपना कार्य सुचारू रूप से मानव जाति के हित के लिए करती रहेगी।

मानस के उत्तरकांड में आता है कि भरत जी से भगवान राम कहते हैं, ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई’ यानि दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं और दूसरों को दुख पहुंचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है। पिछले 50-60 वर्षों में दुनिया में बहुत परिवर्तन आ गया है। अधिकांश मनुष्य केवल अपना ही हित को ध्यान में रखकर काम करते हैं, चाहे उससे दूसरों का कितना भी अहित हो जाए। हमें आत्मनिरीक्षण करना पड़ेगा और प्रत्येक मनुष्य को अपने कार्य करने के तरीकों को बदलने का प्रयास करना पड़ेगा। अन्यथा, हो सकता है कि यह सब प्रकृति की एक चेतावनी के रूप में हो। अभी से सतर्क होकर हम आने वाली बड़ी परेशानी से बच सकते हैं।


धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा

 

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 26 अगस्त, 2020 को प्रकाशित हुआ है)

Wednesday, August 26, 2020

बंधन के कारण - राग और द्वेष - दिनांक – 27-08-2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान                      

सभी प्राणियों के अंदर राग और द्वेष कम या अधिक मात्रा में रहते हैं और इन्हीं का हमारे अंदर बने रहना हमारे बंधन का या बार-बार जन्म-मृत्यु का कारण बना रहता है। अनुकूल परिस्थिति के आने पर हमें उसमें राग होता है और हम चाहते हैं कि यह हमेशा बनी रहे और प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर हम उससे द्वेष करते हैं कि यह कभी न आए। लेकिन हम देखते हैं कि अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति का आना जाना हमारे वश में नहीं हैकोई भी प्रतिकूल परिस्थिति नहीं चाहता लेकिन फिर भी आती है, यह सब हमारे प्रारब्ध के आधीन है, इनको हमें भोग कर ही समाप्त करना पड़ेगा। अतः यदि हम इनमें राग-द्वेष न भी रखें तब भी यह आती-जाती ही रहेंगी। इसी प्रकार हमारा कुछ व्यक्तियों एवं पदार्थों आदि के साथ राग रहता है और कुछ के साथ हम द्वेष रखते हैं। समय-समय पर यह व्यक्ति और पदार्थ बदलते रहते हैं। बचपन में जिन पदार्थों आदि के साथ राग था, जवानी में आकर वह सब बदल गए और अब किन्हीं और के साथ हमारा राग हो गया। संसार के सभी पदार्थ एवं वस्तुएं आदि अनित्य है, परिवर्तनशील है, अस्थाई है, अतः हमारे राग और द्वेष के संबंध भी बदलते रहते हैं। संसार के साथ हमारा राग होने के कारण, हम परमात्मा के साथ राग नहीं रख पाते, जिसके हम अंश है और यह संबंध अटूट है। यदि हम संसार के पदार्थों के साथ अपना राग कम करेंगे तब परमात्मा के साथ हमारा राग या संबंध उतना ही घनिष्ट होता जाएगा, क्योंकि हमारा परमात्मा के साथ संबंध तो अनन्त या आदिकाल से है। इसी प्रकार हम जिस शरीर में रहते हैं उसी को अपना स्वरूप मान लेने के कारण उससे भी राग करने लग जाते हैं, यह जानते हुए भी कि एक दिन इस शरीर को छोड़कर जाना पड़ेगा, इसी कारण मृत्यु के समय शरीर छोड़ने पर अत्यंत कष्ट होता है । इन सब पर हमें विचार करने की आवश्यकता है। इस शरीर से पहले भी हम किसी और शरीर में तथा किसी अन्य परिवार के अंग थे, ऐसा अनन्त समय से होता आ रहा है। ज़रा विचार कीजिए कि ऐसा कब तक चलता रहेगा, कभी तो मुक्त होने के विषय में भी प्रयास करना आरम्भ करना चाहिए।

भगवान ने गीता के श्लोक 5/3 में कहा है:-

ज्ञेयः सं नित्यसन्यासी यो न द्वेष्टि न काङक्षति।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।

  हे अर्जुन ! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्दों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है।

     यहाँ पर भगवान ने पहले हमें द्वेष को छोड़ने के लिए कहा है, फिर उसी के साथ कामना, आसक्ति का त्याग करना है। यदि हम राग-द्वेष से रहित होकर अर्थात निष्काम और निर्लिप्त भाव से अपने कर्तव्यकर्म लोकहित की दृष्टि रखते हुए करते हैं तब ऐसे कर्मयोगी व्यक्ति कर्म करते हुए भी सन्यासी ही है। और सभी द्वन्दों जिसमें राग द्वेष भी आते हैं, से रहित पुरुष इस संसार बन्धन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है। अन्यथा राग-द्वेष आदि द्वन्दों के साथ अपना संबंध बनाए रखने के कारण ऐसा पुरुष जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकता रहता है और उसके अपने स्वभाव या गुणों के कारण वह मनुष्य जन्म न प्राप्त करके किसी अन्य योनि में भी जा सकता है। लेकिन अधिकांश पुरुषों को तो इन सब पर विचार करने का समय ही नहीं मिलता और सोचते हैं कि यह तो भोग योनि है, और बार-बार मनुष्य जन्म लेकर भोग भोगते रहेंगे। भोग योनि तो पशु-पक्षी आदि की भी है लेकिन उनमें विवेक बुद्धि न होने के कारण वह इन सब पर विचार ही नहीं कर सकते। फिर हममें और अन्य योनियों में क्या अंतर है यदि हम भी इन सब पर विचार न करें और यह मनुष्य जीवन ही यों ही व्यर्थ हो जाने दें। अतः यदि हम अपना कर्तव्यकर्म शास्त्रों में बतलाए गए अनुसार करते रहें तब भी हमारा उद्धार निश्चित है। भगवान ने गीता के श्लोक 5/में स्पष्ट कहा है कि ‘‘ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरुप में एक देखता हैवही यथार्थ देखता है।” दोनों में से एक में भी सम्यक प्रकारसे स्थित पुरुष दोनों के फलरुप परमात्मा को प्राप्त होता है। भगवान ने गीता के श्लोक 7/28 में कहा है निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया हैवे राग-द्वेष जनित द्वन्दरूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं।” अर्थात जब हम निष्काम भाव से श्रेष्ठ (पुण्य) कर्म करते हैं तब हमारा अंतःकरण शुद्ध हो जाता है और यदि हम यह निश्चय कर लेते हैं कि अब मैं कोई पाप कर्म नहीं करूंगा तब हमारे पिछले पाप कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। निष्काम भाव से कर्म करने पर राग द्वेष भी समाप्त होने लगता है और संसार में राग न होने पर उनका परमात्मा में राग हो जाता है। भगवान ने श्लोक 13/6 में इच्छा, द्वेष, सुख, दुख आदि को शरीर या क्षेत्र (प्रकृति) के विकार बतलाया है, अतः आत्मा (चेतन तत्व) का इन विकारों के साथ कोई संबंध नहीं है। पुरुष स्वयं तो परमात्मा का अंश है और इच्छा, द्वेष आदि प्रकृति के विकार हैं, दोनों पूर्णतय भिन्न हैं। लेकिन जब जीव अपना संबंध प्रकृति के विकारों के साथ कर लेता है, तब वह बंधंन में पड़ जाता है, और सुखी-दुखी होता रहता है। श्लोक 13/में भगवान कहते हैं कि प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक संपूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान।

भगवान ने गीता के श्लोक 15/में कहा है

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।

अधिष्ठाय मनश्र्चायं विषयानुपसेवते।।

         यह जीवात्मा अपनी ज्ञानेंद्रियों (श्रोत्र, चक्षु, त्वचा, रसना, घ्राण) और मन के सहारे विषयों (शब्द, रूप, स्पर्श, रस, गन्ध) का सेवन करता है।’’ श्लोक 3/34 में भगवान कहते हैं कि ‘‘प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं।’’ उदाहरण के लिए हम अपने श्रोत्र द्वारा उन बातों (शब्दों) को सुनना पसंद करते हैं जिनमें हमें राग होता है और कुछ बातें (शब्दों) से हम द्वेष करते हैं और उन्हें सुनना भी पसंद नहीं करते, इसी प्रकार दूसरी इंद्रियाँ और उनसे संबंधित विषयों के साथ भी हमारा राग-द्वेष लगा रहता है। भगवान इसी श्लोक में आगे कहते हैं कि ‘‘मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याणमार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं।’’ अर्थात राग और द्वेष रखने के कारण ही हमारा उन विषयों के साथ संबंध हो जाता है और हम प्रकृति के साथ जुड़ जाते हैं। पुरुष और प्रकृति दोनों पूरी तरह से भिन्न है एक चेतन है और एक जड़ है। शरीर और इंद्रियों का संबंध प्रकृति से है और स्वयं का संबंध परमात्मा से है। इस तरह का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य अपने अंतःकरण (मन, बुद्धि आदि) और इंद्रियों को अभ्यास द्वारा अपने वश में कर लेता है तब वह बिना राग-द्वेष से विषयों का सेवन कर सकता है। भगवान ने गीता के श्लोक 2/64 में कहा है कि ‘‘अपने अधीन किए हुए अंतःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।’’ और अगले श्लोक में भगवान कहते हैं कि ‘‘अंतःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है।’’ ज्ञान हो जाने और अंतःकरण शुद्ध होकर वश में हो जाने पर ऐसा मनुष्य इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण तो करता है लेकिन उनमें राग नहीं रखता और विषयों का त्याग भी द्वेषभाव से नहीं करता। वह राग-द्वेष से रहित होकर सब कर्म करता हुआ भी कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। राग और द्वेष यह दोनों ही हमारे शत्रु हैं और हमारे बंधन के कारण हैं अतः हमें यह भी विचार करना चाहिए कि हमारा राग किन वस्तुओं या पदार्थों में है और द्वेष किनमें है और इसके क्या कारण हैं, ऐसा जानकर फिर विवेक द्वारा बुद्धि से मन को वश में करके एवं मन द्वारा इंद्रियों को वश में रखे रहने का प्रयास निरंतर करते रहना चाहिए। इंद्रियों का तो स्वभाव ही विषयों की तरफ भागना है, बस हमें ही उन्हें अपने नियंत्रण में रखना है और राग-द्वेष से रहित होकर अपना व्यवहार करते हुए हमें इस संसार बंधन से मुक्त होने का प्रयास करते रहना है इसी में हमारा कल्याण निहित है। 


धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा

Monday, August 24, 2020

भगवान को प्रिय मनुष्य के लक्षण - दिनांक – 24-08-2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान                         

गीता के बारहवें अध्याय में भगवान को प्रिय मनुष्य (भक्त) के लक्षणों के विषय में भगवान ने बताया है अतः इसका नाम भक्तियोग है। यह गीता का सबसे छोटा अध्याय है जिसमें केवल 20 श्लोक हैंलेकिन हम सबके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस अध्याय के प्रथम श्लोक में अर्जुन ने भगवान से प्रश्न किया कि जो भक्त सगुण साकार परमात्मा के और जो निर्गुण निराकार परमात्मा को भजते हैं, उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम भक्त कौन सा है। इस प्रश्न का उत्तर भगवान इस अध्याय के अगले 19 श्लोकों में और लगातार पूरे अध्याय 13 और अध्याय 14 के पहले 20 श्लोकों में विस्तारपूर्वक अर्जुन को माध्यम बनाकर हम सभी को ज्ञान प्राप्त कराने हेतु बताते हैं। यह भगवान द्वारा लगातार कहे गए 73 श्लोक ज्ञान और भक्ति का संगम हैं।

 

भगवान ने गीता के अध्याय 12 के श्लोकों 13 से 1में उन भक्तों (मनुष्यों) के 39 लक्षण बताये हैं जो भगवान को प्रिय हैं। इन 7 श्लोकों में भगवान ने पाँच बार अर्थात श्लोक 13-14, 15,16, 17 एवं 18-19 में अपने प्रिय मनुष्य (भक्त) के लक्षण बताते हुए, उसे अपना प्रिय कहा है। जैसे श्लोक 13-14 में 12 लक्षण बताए हैं, श्लोक 15 में 6, श्लोक 16 में लक्षण, श्लोक 17 में लक्षण तथा श्लोक 18-19 में 10 लक्षण बतायें हैं। इन लक्षणों का हम अलग-अलग पाँच विभागों के अंतर्गत विचार कर सकते हैं। इन पाँचों विभागों के सभी 39 लक्षण यदि किसी मनुष्य (भक्त) में हों तब तो वह बहुत ही उच्च कोटि का सिद्ध पुरुष और भगवान को अति प्रिय होता है। लेकिन यदि साधक अपने अंदर इन विभागों में से किसी एक विभाग के भी लक्षण अपने अंदर धारण करके उन्हें अपने व्यवहार में ले आये तब वह भी भगवान का प्रिय हो जाता है जैसा कि भगवान ने अलग-अलग श्लोकों में बताए गए लक्षणों को धारण करने वाले मनुष्य को अलग-अलग पांच बार अपना प्रिय भक्त बतलाया है। पाँच विभाग निम्न प्रकार से कहे जा सकते हैं।


I.        भगवान गीता के श्लोक 13-14 में कहते हैः-


अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र करुण एव च।

निर्ममो निरंहकारः समदुखसुखः क्षमी।।

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मदभक्तः स मे प्रियः।।

 

उपरोक्त श्लोकों में भगवान ने अपने प्रिय भक्त (मनुष्य) के निम्नलिखित 12 लक्षण बताएं हैं।

 

1.  जो पुरुष सब भूतों से द्वेषभाव से रहित हो अर्थात किसी के साथ भी द्वेष बुद्धि न रखता हो।

 

2.  स्वार्थ रहित हो अर्थात निस्वार्थभाव से अपना कर्तव्यकर्म लोकहित की दृष्टि से करता हो।

 

3.  सबका प्रेमी हो अर्थात सब के साथ प्रेमभाव से व्यवहार करता हो।

 

4.  दयालु हो अर्थात सबके प्रति और विशेषकर दुखियों के प्रति दया का भाव रखता हो।

 

5.  ममता से रहित हो अर्थात संसार के किसी पदार्थ और स्वयं के शरीर आदि में ममता या आसक्ति न रखता हो।

 

6.  अहंकार से रहित हो अर्थात अपने अंदर कर्तापन का भी अहंकार न रखता हो।

 

7.  सुख-दुखों की प्राप्ति में समान भाव वाला हो।

 

 

8.  क्षमावान हो अर्थात यदि कोई उसका अहित या अपराध भी कर दे तब भी उसको क्षमा करने का भाव रखता हो।

 

9.  निरंतर संतुष्ट रहता हो।

 

10. मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में रखता हो। अर्थात जिसका मन और इंद्रियाँ उसके अधिकार में हों।

 

11.  ईश्वर में दृढ़ निश्चयवाला हो अर्थात जिसका परमात्मा में पूर्ण विश्वास है और संसार या जड़ पदार्थों में आसक्ति नहीं है।

 

12.  जिसने अपना मन और बुद्धि परमात्मा को अर्पण कर दी हो अर्थात जिसके मन और बुद्धि परमात्मा के चिंतन में लगी रहती हो।

 

 II.        भगवान गीता के अगले श्लोक 15 में कहते हैः-


यस्मान्नोद्धिजते लोको लोकान्नोद्धिजते च यः।

हर्षामर्षभयोद्धेगैर्मुक्तों यः स च मे प्रिय।।

 

उपरोक्त श्लोक में भगवान अपने प्रिय भक्त (साधक) के निम्नलिखित लक्षण बताते हैः-

 

1.              जिसमें कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता अर्थात ऐसे साधक के व्यवहार द्वारा किसी को भी किसी प्रकार का दुख, सन्ताप और भय आदि न पहुंचे इसका वह हमेशा ध्यान रखता हो।

 

2.     जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता। अर्थात ऐसे मनुष्य को यदि किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा कोई दुख या हानि पहुंच जाये तब वह उसको अपना प्रारब्ध मानकर और ईश्वर की इच्छा समझकर दुखी नहीं होता और न उस दुख देने वाले व्यक्ति के प्रति कोई दुर्भावना अपने मन में लाता है, वह समभाव में ही स्थित रहता है और किसी भी स्थिति में उद्वेग को प्राप्त नहीं होता।

 

3.     हर्ष से रहित हो अर्थात अनुकूल परिस्थिति के आने पर भी वह समभाव में रहता है।

 

4.     अमर्ष से रहित हो अर्थात यदि दूसरे व्यक्ति को धन, मान, बड़ाई आदि मिलती हो तब अज्ञान के कारण साधारण मनुष्य दुखी हो जाता है या ईर्ष्या भाव रखने लगता है। लेकिन साधक (भक्त) में ऐसे भाव नहीं आते।

 

5.    भय से रहित हो अर्थात सबमें वह एक ही परमात्मा को देखता हो और सारी परिस्थितियों को ईश्वर द्वारा भेजी गयी ही समझता हो अर्थात वह भय से सर्वदा मुक्त रहता है।

 

 

 

6.     उद्वेग आदि से रहित हो। अर्थात वह सभी विकारों से मुक्त रहता हो, उसके मन में किसी परिस्थिति को लेकर कोई हलचल न होती हो, मन शांत रहता हो।

 

III.   भगवान गीता के श्लोक 16 में कहते हैं:-

 

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।

 

उपरोक्त श्लोक में भगवान अपने प्रिय भक्त (मनुष्य) के निम्नलिखित 6 लक्षण बताते हैं :

 

1.    जो पुरुष आकांक्षा से रहित हो। अर्थात उसके द्वारा की गयी क्रियाओं में कोई फल की इच्छा या कामना आदि न हो, वह प्रत्येक कर्म अपना कर्तव्य समझकर करता हो न कि कोई उस कर्म से अपेक्षा रखता हो। भगवान को अर्पण बुद्धि से कर्म करता हो।

 

2.     बाहर-भीतर से शुद्ध हो। अर्थात उसका व्यवहार सभी के साथ बिना राग-द्वेष से होता हो, उसका अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त) निष्काम कर्म करते रहने से शुद्ध हो गया हो अर्थात वह भीतर से भी शुद्ध हो गया हो और सभी में एक ही परमात्मा को देखता हुआ अच्छा व्यवहार करता हो, शुद्ध आचरण वाला हो।

 

3.    चतुर हो। अर्थात परमार्थिक दृष्टि से चतुर हो, जिस उद्देश्य से मनुष्य जन्म लिया है उसको पूरा करने में चतुरता और तत्परता से लगा रहता हो। इसी के साथ व्यावहारिक दृष्टि से भी चतुर हो अर्थात सबके साथ प्रेम-भाव का व्यवहार करता हो।

 

4.    पक्षपात से रहित हो। अर्थात तटस्थ या उदासीन भाव रखता हो और स्वार्थरहित होकर सभी के साथ व्यवहार करता हो।

 

5.     अपने अंतःकरण में दुख, चिंता और शोक आदि न रखता हो। अर्थात अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में समान भाव रखता हो। प्रतिकूल परिस्थिति को भी भगवान की दी हुई समझकर दुख और शोक का अनुभव न करता हो। और चिंता से रहित हो अर्थात अपनी सब क्रिया करने से पहले और बाद में भगवान को मन से याद करके अर्पण करते हुए चिंता से मुक्त रहें, ईश्वर जो भी फल देंगे उसको अपना प्रारब्ध और भगवान का दिया हुआ प्रसाद समझकर ग्रहण करें।

 

6.    कर्तापन के अभिमान से रहित हो। अर्थात अपने कर्म अपना कर्तव्य समझकर निष्काम और निर्लिप्त भाव से लोकहित की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए करता हो। भोग और संग्रह करने के लिए अपने कर्म को आरंभ न करता हो। परमात्मा की प्रसन्नता के लिए उन्हीं की आज्ञानुसार (शास्त्रानुसार) अपना कर्तव्यकर्म करता हो।

 

IV.   भगवान गीता के श्लोक 17 में अपने प्रिय भक्त (साधक) के विषय में कहते हैः-

 

यो न हृष्याति न द्वेष्टि न शोचति न काङक्षति।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।

 

उपरोक्त श्लोक में भगवान अपने प्रिय भक्त के 5 लक्षण बताते हैः-

 

1.     जो न कभी हर्षित होता हो। अर्थात अनुकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर बहुत हर्षित न होता हो। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में समान भाव रखता हो। परमात्मा से ही प्रेम करने वाला हो। सभी परिस्थितियों को भगवान की दी हुई समझकर अपने अंतःकरण को शांत रखता हो अर्थात उसमें कोई हलचल न होती हो।

 

2.     किसी के साथ द्वेष न करता हो। अर्थात किसी भी प्राणी के साथ द्वेष भाव न रखता हो। सभी में परमात्मा को देखता हो। उसके अंतःकरण में द्वेष भाव ही समाप्त हो गया हो।

3.     शोक न करता हो। अर्थात प्रतिकूल परिस्थिति के प्राप्त होने पर शोक न करता हो। प्रतिकूल परिस्थिति और किसी के वियोग हो जाने पर भी उसमें ईश्वर की ऐसी ही इच्छा थी यह मानकर शोक न करता हो। यदि हो भी तब बहुत ही कम समय के लिए हो और अंतःकरण को शांत रखें एवं हर्ष और शोक की स्थिति में अंतःकरण में बहुत ज्यादा हलचल न हो पाए ऐसा प्रयास करता रहे।

 

4.    कामना न करता हो। मनुष्य को अप्राप्त वस्तु की कामना होती है और प्राप्त वस्तु के साथ ममता होती है। अर्थात अप्राप्त वस्तु को पाना चाहता है और प्राप्त वस्तु को हमेशा के लिए अपने पास रखना चाहता है। ज्ञानी भक्त (मनुष्य) को भगवान की ही प्राप्ति हो जाने के बाद किसी भी वस्तु की कामना ही नहीं होती वह तो पूर्णकाम हो जाता है। कामना, आसक्ति और ममता आदि ही तो हमारे बंधन का कारण है ऐसा उसको ज्ञान हो जाता है।

 

5.    शुभ और अशुभ संपूर्ण कर्मों का त्यागी हो। अर्थात ज्ञान हो जाने के पश्चात ऐसा मनुष्य अपने सभी शुभ कर्म ईश्वर को अर्पण बुद्धि से करता है, उनमें वह लिप्त नहीं होता। जो भी यज्ञ, दान तप और अपनी जीविका से संबंधित कर्तव्यकर्म करता है वह सब ईश्वर को अर्पण करता हुआ ही करता है, इससे वह शुभ कर्मों का त्यागी होता है। और ज्ञान होने के पश्चात उससे कोई भी कर्म शास्त्र विरुद्ध नहीं होता अर्थात अशुभ कर्म तो वह कर ही नहीं सकता, इसमें वह अशुभ कर्म का भी त्यागी कहलाता है।

 

V.    भगवान गीता के श्लोक 18 एवं 19 में अपने प्रिय भक्तों के लिए कहते हैः-

 

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमान्योः।

शीतोष्णसुखदःखेषु समः सग्ङविवर्जितः।।

तुत्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्ये प्रियो नरः।।

 

उपरोक्त श्लोक में भगवान ने अपने प्रिय भक्त (ज्ञानी पुरुष) के निम्नलिखित 10 लक्षण बताये हैं।

 

1.     जो शत्रु-मित्र में समान भाव वाला हो।

 

2.     जो मान और अपमान में समान भाव वाला हो। अर्थात उसके अंतःकरण में इनके कारण कोई विकार उत्पन्न न हो, उसका अंतःकरण दोनों ही स्थिति में शांत बना रहे।

 

 

 

 

3.     सर्दी-गर्मी में समभाव वाला हो। अर्थात इन द्वन्दों के कारण वह परेशान न हो, शांत बना रहे।

 

4.    सुख-दुख आदि द्वन्दों में समान भाव वाला हो। अर्थात अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर हर्ष-शोक और राग-द्वेष से रहित हो।

 

5.    आसक्ति से रहित हो। ज्ञान हो जाने के बाद ऐसा मनुष्य किसी भी पदार्थ, वस्तु, स्थिति आदि में आसक्ति नहीं रखता, सबमें तटस्थ और उदासीन भाव रखता है, वह जानता है कि आसक्ति ही बन्धन का मुख्य कारण है, इससे वह आसक्ति से रहित हो जाता है उसके मन या अंतःकरण में भी किसी के प्रति आसक्ति नहीं रहती, वह सबसे प्रेम करता है लेकिन आसक्त नहीं होता।

 

6.    निन्दा स्तुति को समान समझता हो। ज्ञान हो जाने के बाद ऐसा मनुष्य न तो अपनी स्तुति से प्रसन्न होता है और न निंदा से दुखी होता है वह समभाव में रहता है। वह जानता है कि यह शरीर, नाम, रुप आदि तो संसार का अंश हैं और जड़ और नश्वर है और वह स्वयं परमात्मा का अंश है अर्थात उसका इनके साथ केवल क्रिया करने के हेतु ही संबंध है। वह अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित रहता है अतः शरीर और नाम की निंदा-स्तुति से वह विचलित नहीं होता।

 

7.     मौनी अर्थात मननशील हो। हम देखते हैं कि कभी-कभी व्यक्ति बाहर से मौन होता है लेकिन अंदर मन द्वारा विषयों का या संसार का चिंतन करता रहता है। लेकिन ज्ञानी मनुष्य अपने मन द्वारा परमात्मा का चिंतन करता रहता है, और जब बहुत ही आवश्यक है तब उचित समय पर अपनी बात कम शब्दों द्वारा व्यक्त कर देता है। वह वाणी द्वारा भी भगवान के विषय में उत्सुक मनुष्यों के सामने अपनी बात रखता है। भगवान ने गीता के श्लोक 18/ 68 में कहा भी है कि ‘‘जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्य युक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है।’’

 

8.       जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट रहता हो। ऐसा मनुष्य अपने शरीर के निर्वाह की भी चिंता नहीं करता, वह जानता है कि ईश्वर उसके शरीर के निर्वाह हेतु जो आवश्यक है उसका प्रबन्ध कर देता है, वह तो अपना कर्तव्यकर्म करता रहता है। प्रारब्ध के अनुसार और ईश्वर की इच्छानुसार जो फल उसे प्राप्त होता है उसे वह भोगकर संतुष्ट रहता है। शरीर के निर्वाह हेतु बहुत से पदार्थों की कामना नहीं करता। ‘‘जाहे विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये, सीताराम, सीताराम, सीताराम कहिए’’ के सिद्धान्त का पूर्णतया पालन करते हुए संतुष्ट रहता है।

 

9.     रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित हो। अर्थात ज्ञान होने के पश्चात ऐसा मनुष्य तो अपने शरीर और इंद्रियों के साथ भी ममता और आसक्ति नहीं रखता, फिर वह रहने के स्थान अपने घर के साथ ममता और आसक्ति कैसे रख सकता है। वह जानता है इन सबको छोड़कर चले जाना है फिर इसके साथ क्यों ममता रखकर जन्म - मृत्यु के चक्कर में पड़ा रहूं। ममता और आसक्ति के बंधन का उसे ज्ञान रहता है।

 

10.  स्थिरबुद्धि वाला होता है। जब मनुष्य अपने मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है। जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हो, जो इंद्रियों के विषयों से अपनी इंद्रियों को सब प्रकार से हटा ले। इंद्रियां उसके वश में रहती है वह स्थिरबुद्धि वाला मनुष्य होता है। स्थिरबुद्धि वाला मनुष्य ही शांति को प्राप्त होता है।

 

उपरोक्त 5 विभागों में कहे गए लक्षणों को यदि मनुष्य अपने स्वभाव और गुणों के आधार पर किसी एक विभाग के लक्षणों को भी अपने अंदर धारण करके, उन्हीं के अनुसार अपना व्यवहार करे अर्थात उन्हें अपने दैनिक व्यवहार में लाए तब भी वह भगवान का प्रिय हो जाता है। भगवान ने इन पांचों विभागों में दिए गए लक्षणों वाले मनुष्य को अलग-अलग पाँच बार अपना प्रिय भक्त (मनुष्य) कहा है। हमारा अंतःकरण ज्यों-ज्यों निर्मल (शुद्ध) होता जाता है, इसी प्रकार हमारे अंदर यह लक्षण आते जाते हैं और पूर्ण अवस्था में सभी गुण प्राप्त हो जाते हैं। हम उपरोक्त विभागों में भगवान द्वारा अपने प्रिय भक्त (साधक) के लक्षणों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करके अपने अंदर उतार कर अपने व्यवहार में लाने का प्रयास करेंगे, जिससे हम भी भगवान के प्रिय बन सके। अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के भगवान के भक्तों में से ज्ञानी को तो भगवान ने अपना साक्षात स्वरूप अर्थात आत्मा बताया है। हम सोच सकते हैं कि ज्ञानी भक्त (मनुष्य) भगवान को कितना प्रिय होता है जो कि उनका अपना आत्मा (स्वरूप) ही है । भगवान ने तो अध्याय 12 के अंतिम श्लोक 20 में कहा है कि “जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस प्रकार कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं अर्थात अपने व्यवहार में लाते हैं, वह भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं।” अतः इस अमृत का हम सभी को पान करके अर्थात उपरोक्त लक्षणों को अपने व्यवहार में लाकर अपना इसी मनुष्य जीवन द्वारा अपना उद्धार करें। यही हमारा एकमात्र उद्देश्य है ।

 

 

                              धन्यवाद

                           डॉ. बी. के. शर्मा