व्यावहारिक गीता ज्ञान
सभी
प्राणियों के अंदर राग और द्वेष कम या अधिक मात्रा में रहते हैं और इन्हीं का
हमारे अंदर बने रहना हमारे बंधन का या बार-बार जन्म-मृत्यु का कारण बना रहता है।
अनुकूल परिस्थिति के आने पर हमें उसमें राग होता है और हम चाहते हैं कि यह हमेशा
बनी रहे और प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर हम उससे द्वेष करते हैं कि यह कभी न आए।
लेकिन हम देखते हैं कि अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति का आना जाना हमारे वश में नहीं
है, कोई
भी प्रतिकूल परिस्थिति नहीं चाहता लेकिन फिर भी आती है, यह सब हमारे प्रारब्ध के
आधीन है, इनको हमें भोग कर ही समाप्त करना पड़ेगा। अतः यदि हम इनमें राग-द्वेष न भी
रखें तब भी यह आती-जाती ही रहेंगी। इसी प्रकार हमारा कुछ व्यक्तियों एवं पदार्थों
आदि के साथ राग रहता है और कुछ के साथ हम द्वेष रखते हैं। समय-समय पर यह व्यक्ति
और पदार्थ बदलते रहते हैं। बचपन में जिन पदार्थों आदि के साथ राग था, जवानी में
आकर वह सब बदल गए और अब किन्हीं और के साथ हमारा राग हो गया। संसार के सभी पदार्थ
एवं वस्तुएं आदि अनित्य है, परिवर्तनशील है, अस्थाई है, अतः हमारे राग और द्वेष के
संबंध भी बदलते रहते हैं। संसार के साथ हमारा राग होने के कारण, हम परमात्मा के
साथ राग नहीं रख पाते, जिसके हम अंश है और यह संबंध अटूट है। यदि हम संसार के
पदार्थों के साथ अपना राग कम करेंगे तब परमात्मा के साथ हमारा राग या संबंध उतना
ही घनिष्ट होता जाएगा, क्योंकि हमारा परमात्मा के साथ संबंध तो अनन्त या आदिकाल से
है। इसी प्रकार हम जिस शरीर में रहते हैं उसी को अपना स्वरूप मान लेने के कारण
उससे भी राग करने लग जाते हैं, यह जानते हुए भी कि एक दिन
इस शरीर को छोड़कर जाना पड़ेगा, इसी कारण मृत्यु के समय शरीर छोड़ने पर अत्यंत
कष्ट होता है । इन सब पर हमें विचार करने की आवश्यकता है। इस शरीर से पहले भी हम
किसी और शरीर में तथा किसी अन्य परिवार के अंग थे, ऐसा अनन्त समय से होता आ रहा
है। ज़रा विचार कीजिए कि ऐसा कब तक चलता रहेगा, कभी तो मुक्त होने के विषय में भी
प्रयास करना आरम्भ करना चाहिए।
भगवान ने गीता के श्लोक 5/3
में कहा है:-
ज्ञेयः सं नित्यसन्यासी यो न द्वेष्टि
न काङक्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।
हे
अर्जुन ! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह
कर्मयोगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्दों से रहित
पुरुष सुखपूर्वक संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है।
यहाँ
पर भगवान ने पहले हमें द्वेष को छोड़ने के लिए कहा है, फिर उसी के साथ कामना,
आसक्ति का त्याग करना है। यदि हम राग-द्वेष से रहित होकर अर्थात निष्काम और
निर्लिप्त भाव से अपने कर्तव्यकर्म लोकहित की दृष्टि रखते हुए करते हैं तब ऐसे
कर्मयोगी व्यक्ति कर्म करते हुए भी सन्यासी ही है। और सभी द्वन्दों जिसमें राग
द्वेष भी आते हैं, से रहित पुरुष इस संसार बन्धन से सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है।
अन्यथा राग-द्वेष आदि द्वन्दों के साथ अपना संबंध बनाए रखने के कारण ऐसा पुरुष
जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकता रहता है और उसके अपने स्वभाव या गुणों के कारण वह
मनुष्य जन्म न प्राप्त करके किसी अन्य योनि में भी जा सकता है। लेकिन अधिकांश पुरुषों
को तो इन सब पर विचार करने का समय ही नहीं मिलता और सोचते हैं कि यह तो भोग योनि
है, और बार-बार मनुष्य जन्म लेकर भोग भोगते रहेंगे। भोग योनि तो पशु-पक्षी आदि की
भी है लेकिन उनमें विवेक बुद्धि न होने के कारण वह इन सब पर विचार ही नहीं कर
सकते। फिर हममें और अन्य योनियों में क्या अंतर है यदि हम भी इन सब पर विचार न
करें और यह मनुष्य जीवन ही यों ही व्यर्थ हो जाने दें। अतः यदि हम अपना कर्तव्यकर्म
शास्त्रों में बतलाए गए अनुसार करते रहें तब भी हमारा उद्धार निश्चित है। भगवान ने
गीता के श्लोक 5/5 में स्पष्ट कहा है कि ‘‘ज्ञानयोगियों द्वारा
जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है।
इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरुप में एक देखता है, वही
यथार्थ देखता है।” दोनों में से एक में भी सम्यक प्रकारसे स्थित
पुरुष दोनों के फलरुप परमात्मा को प्राप्त होता है। भगवान ने गीता के श्लोक 7/28 में
कहा है “निष्काम
भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे
राग-द्वेष जनित द्वन्दरूप मोह से मुक्त दृढ़निश्चयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैं।” अर्थात
जब हम निष्काम भाव से श्रेष्ठ (पुण्य) कर्म करते हैं तब हमारा अंतःकरण शुद्ध हो
जाता है और यदि हम यह निश्चय कर लेते हैं कि अब मैं कोई पाप कर्म नहीं करूंगा तब हमारे
पिछले पाप कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। निष्काम भाव से कर्म करने पर राग द्वेष भी
समाप्त होने लगता है और संसार में राग न होने पर उनका परमात्मा में राग हो जाता
है। भगवान ने श्लोक 13/6 में इच्छा, द्वेष, सुख, दुख आदि को शरीर या क्षेत्र
(प्रकृति) के विकार बतलाया है, अतः आत्मा (चेतन तत्व) का इन विकारों के साथ कोई
संबंध नहीं है। पुरुष स्वयं तो परमात्मा का अंश है और इच्छा, द्वेष आदि प्रकृति के
विकार हैं, दोनों पूर्णतय भिन्न हैं। लेकिन जब जीव अपना संबंध प्रकृति के विकारों
के साथ कर लेता है, तब वह बंधंन में पड़ जाता है, और सुखी-दुखी होता रहता है।
श्लोक 13/9 में
भगवान कहते हैं कि प्रकृति और पुरुष- इन दोनों को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि
विकारों को तथा त्रिगुणात्मक संपूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान।
भगवान ने गीता के श्लोक 15/9 में
कहा है
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्र्चायं विषयानुपसेवते।।
“यह जीवात्मा
अपनी ज्ञानेंद्रियों (श्रोत्र, चक्षु, त्वचा, रसना, घ्राण) और मन के सहारे विषयों
(शब्द, रूप, स्पर्श, रस, गन्ध) का सेवन करता है।’’ श्लोक 3/34 में
भगवान कहते हैं कि ‘‘प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित
हैं।’’ उदाहरण के लिए हम अपने श्रोत्र द्वारा उन बातों (शब्दों) को सुनना पसंद
करते हैं जिनमें हमें राग होता है और कुछ बातें (शब्दों) से हम द्वेष करते हैं और
उन्हें सुनना भी पसंद नहीं करते, इसी प्रकार दूसरी इंद्रियाँ और उनसे संबंधित
विषयों के साथ भी हमारा राग-द्वेष लगा रहता है। भगवान इसी श्लोक में आगे कहते हैं
कि ‘‘मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके
कल्याणमार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं।’’ अर्थात राग और द्वेष रखने के
कारण ही हमारा उन विषयों के साथ संबंध हो जाता है और हम प्रकृति के साथ जुड़ जाते
हैं। पुरुष और प्रकृति दोनों पूरी तरह से भिन्न है एक चेतन है और एक जड़ है। शरीर
और इंद्रियों का संबंध प्रकृति से है और स्वयं का संबंध परमात्मा से है। इस तरह का
ज्ञान हो जाने पर मनुष्य अपने अंतःकरण (मन, बुद्धि आदि) और इंद्रियों को अभ्यास
द्वारा अपने वश में कर लेता है तब वह बिना राग-द्वेष से विषयों का सेवन कर सकता
है। भगवान ने गीता के श्लोक 2/64 में कहा है कि ‘‘अपने अधीन किए हुए अंतःकरण वाला
साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरण
करता हुआ अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।’’ और अगले श्लोक में भगवान कहते
हैं कि ‘‘अंतःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और
उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में
ही भलीभांति स्थिर हो जाती है।’’ ज्ञान हो जाने और अंतःकरण शुद्ध होकर वश में हो
जाने पर ऐसा मनुष्य इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण तो करता है लेकिन उनमें राग
नहीं रखता और विषयों का त्याग भी द्वेषभाव से नहीं करता। वह राग-द्वेष से रहित
होकर सब कर्म करता हुआ भी कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है। राग और द्वेष यह दोनों ही
हमारे शत्रु हैं और हमारे बंधन के कारण हैं अतः हमें यह भी विचार करना चाहिए कि
हमारा राग किन वस्तुओं या पदार्थों में है और द्वेष किनमें है और इसके क्या कारण
हैं, ऐसा जानकर फिर विवेक द्वारा बुद्धि से मन को वश में करके एवं मन द्वारा
इंद्रियों को वश में रखे रहने का प्रयास निरंतर करते रहना चाहिए। इंद्रियों का तो
स्वभाव ही विषयों की तरफ भागना है, बस हमें ही उन्हें अपने नियंत्रण में रखना है और
राग-द्वेष से रहित होकर अपना व्यवहार करते हुए हमें इस संसार बंधन से मुक्त होने
का प्रयास करते रहना है इसी में हमारा कल्याण निहित है।
धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा
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