व्यवहारिक गीता ज्ञान
पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई मनुष्य आदि प्राणी या अन्य प्राणरहित वस्तु नहीं है जो कि प्रकृति से उत्पन्न हुए सात्विक, राजस और तामस गुणों से रहित हो। शंकर भाष्य में आता है कि प्रणियों के जन्मान्तर में किये हुए कर्मों के संस्कार, जो वर्तमान जन्म में अपने कार्य के अभिमुख होकर व्यक्त हुए है, इनका नाम स्वभाव है। ऐसा स्वभाव जिन गुणों की उत्पत्ति का कारण है वे स्वभावप्रभव गुण हैं। गुणों का प्रादुर्भाव बिना कारण के नहीं बन सकता। इसलिए स्वभाव उनकी उत्पत्ति का कारण है। यह सारा संसार सत्व, रज, तम- इन तीन गुणों का ही विस्तार है और अविद्या से कल्पित है। इन्ही तीन गुणों पर आधरित त्याग , ज्ञान , कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के विषय में गीता के अध्याय 18 में भगवान ने हम सभी मनुष्यों के हित के लिए विस्तार से बताया है। इनका ज्ञान होने पर हम इनके लाभ और हानि के विषय में जानकर अपने अंदर सत्वगुण की वृद्धि कर सकते हैं। जब हमारे अंत:करण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है, उस समय समझना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ रहा है। जब लोभ प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकाम भाव से आरंभ , अशांति और विषयभोगों की लालसा बढ़ रही हो तब जानना चाहिए कि रजोगुण बढ़ रहा है और यदि अंत:करण और इन्द्रियों में अप्रकाश, कर्त्यव्यकर्मों में अप्रवृति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहनी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हों तब समझना चाहिए कि तमोगुण हमारे अंदर बढ़ रहा है। ऐसा भगवान ने गीता के अध्याय 14 के श्लोक 11,12, और 13 में हमें बतलाया है ताकि हम उसने अंदर होने वाले परिवर्तनों को जानकर उन्हें सत्वगुण की तरफ ले जा सकें और रजोगुण एवं तमोगुण को बढ़ने पर समय रहते दबा सकें।
भगवान गीता के अध्याय 18 के श्लोक 36,37,38 और 39 में तीन प्रकार के सात्विक, राजस ओर तामस सुखों के विषय में बताते है।
सात्विक सुख
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुखानतं च निगच्छति।
यत्दग्रे विषमिब परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्विकं प्रोत्कामात्मबुद्धिप्रसादजम्।
हे भरतश्रेष्ठ अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है जो ऐसा सुख है वह आरम्भकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बु़द्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्विक कहा जाता है।
शंकर भाष्य में भगवान शंकराचार्य कहते है कि परमात्मविषयक बुद्धि अर्थात आत्मविषयक या आत्मा को अवलम्बन करने वाली बुद्धि का नाम आत्मबुद्धि है। उसके प्रसाद की अधिकता से उत्पन्न सुख आत्मबुद्धिप्रसाद से उत्पन्न है, इसलिए वह सात्विक है।
हम देखते है कि सात्विक पुरूष कोई कर्म करने से पूर्व उसके परिणाम के विषय में विचार करता है और यदि परिणाम उसके और अन्य सभी के हित में होगा तक वह कर्म का आरम्भ करता है । जबकि अज्ञानी पुरूष परिणाम का विचार ही नहीं करता और न उसके हित या अनहित के विषय में सोचता है वस कार्य आरम्भ कर देता है। उदाहरण के लिए जैसे छोटे बच्चे को उसके माता-पिता तथा अध्यापक पढाई के लिए कहते हैं तब उसको उसमें कष्ट महसूस होता है और खेलते रहना अच्छा लगता है। अत: उसको पढ़ाई के परिणाम का ज्ञान न होने के कारण आरम्भ में अच्छा नहीं लगता जबकि उसका मेहनत से पढ़ाई करना अंततः उसके लिए काफी लाभकारी होता है। इसी प्रकार मनुष्य को ज्ञान न होने के कारण निष्काम कर्म बिना असक्ति और फल की इच्छा से रहित होकर लोकहित की दृष्टि से करने अच्छे नहीं लगते चूंकि उसकी भोग दृष्टि रहती है। लेकिन जिसको शास्त्रों का ज्ञान है वह जानता है कि निष्काम भाव से कर्म करने पर उसका अंतःकरण शुद्ध होगा और उसमें विवेक जाग्रत हो जायेगा और अंत में वह कर्म करते हुए भी उस अविनाशी परमपद को प्राप्त कर लेगा जो उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य है अतः इस तरह के कर्म में यदि आरम्भ में कुछ कष्ट भी होता है तब भी उसका परिणाम बहुत ही अच्छा होता है। उसी परिणाम का विचार करके ज्ञानी पुरूष अपने कर्म का आरम्भ करता है और आत्मा के आनन्द का सुख प्राप्त करता है जो उसके पास हमेशा रहता है। इसी सात्विक सुख जो कि बहुत ही उत्तम श्रेणी का सुख है का ज्ञान होने के पश्चात ऐसा मनुष्य परमात्मा के भजन, ध्यान और चिंतन में लग जाता है और आत्मबुद्धि के प्रसाद से सात्विक सुख का आनन्द लेता है। परन्तु जिस मनुष्य की भोग बुद्धि है और विषयों में आसक्ति है उसको परमात्मा का भजन, ध्यान, स्वाध्याय, चिंतन आदि कार्य का ज्ञान न होने के कारण विष की तरह लगते हैं और वह उनका आरम्भ ही नहीं करता।
राजस सुख
राजस सुख के विषय में भगवान गीता के श्लोक 18/38 में कहते हैं कि
विषयेन्द्रिय संयोगाद्यत्तदग्रे ऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से होता है वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है, इसलिए वह सुख राजस कहा जाता है।
रागरूप रजोगुण कामना ओर आसक्ति से उत्पन्न होता है और यह मुनष्य को कर्मों के और उनके फल के संबंध से बाँधता है। जब मनुष्य विषयों का चिन्तन करता रहता है तब उसकी उनमें आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न हो जाती है फिर वह अपनी उस कामना की पूर्ति करने में लग जाता है। उस समय वह उसके परिणाम के विषय में नहीं विचार करता। उदाहरण के लिए यदि मनुष्य का अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं है तब वह जैसे धुम्रपान या मदिरापान आदि दूसरों को देखकर शुरू कर देता है, जिसके परिणाम स्वरूप उसे भयंकर रोग हो जाने के कारण अंत में कष्ट उठाना पड़ता है। लेकिन शुरू में उसे यह सब अमृत के समान लगता है और इन सबका परिणाम विष की तरह होता है। इसी तरह से यदि किसी मनुष्य को मधुमेह की बीमारी है लेकिन मीठे में उसकी आसक्ति होने के कारण वह मीठे का सुख लेता रहता है और परिणाम में मृत्यु तक पहुंच जाता है। कामना और असक्ति के कारण ऐसा रजोगुणी मनुष्य कार्य के आरम्भ में सुख का आनंद लेने के कारण उसके अंतिम परिणाम का विचार ही नहीं करता और अंत में वह पछताता रहता है।
भगवान ने गीता के श्लोक 5/22 में कहा है कि ‘‘जो ये इन्द्रियाँ तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरूष को सुखरूप भासते हैं तो भी दुख के ही हेतु हैं और आदि अन्त वाले अर्थात अनित्य है। बुद्धिमान विवेकी पुरूष उनमें नहीं रमता।’’ इसलिए रजोगुणी पुरूष इन्द्रियों द्वारा विषयों के भोग में लगकर कार्य का आरम्भ करके क्षणिक सुख का आनंद प्राप्त कर लेता है। लेकिन अंत में दुखी होता है। भगवान ने तो गीता के श्लोक 2/68 में कहा है कि ‘‘जिस पुरूष की इन्द्रियां इन्द्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है।’’ अत: रजोगुणी मनुष्य स्थिर बुद्धि न होने के कारण अर्थात भोग बुद्धि रखने के कारण इन्द्रियों द्वारा विषयों का भोग करता रहता है। ऐसे सुख को ही राजस सुख कहा है। जो आरंभ में
कुछ समय के लिए बहुत अच्छा लगता है लेकिन परिणाम दुखदायी ही होता है। आजकल अधिकांश मनुष्यों में इसी भोगबुद्धि होने के कारण और इन्द्रियों द्वारा क्षणिक आनन्द लेने के कारण, बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं, हमारा अपनी इन्दियों पर वश ही नहीं है और हम इनके वश में आ गये हैं। विवेकपूर्वक विचार करने पर ही राजस सुख को छोड़ा जा सकता है।
तामस सुख
तामस सुख के विषय में भगवान गीता के श्लोक 18/39 में कहते हैं
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहतम्।।
जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है।
तमोगुण अज्ञान से होता है और मनुष्य को मोह में डालकर प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा बाँधता है। तामसी व्यक्ति घमंडी, घूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घ सूत्री होता है। तामसी मनुष्य अज्ञान के कारण परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचार कर कर्म को आरम्भ कर देता है। अज्ञान के कारण ऐसे मनुष्य की बुद्धि अधर्म को भी यह धर्म है तथा अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है। इस तरह भी ऐसा मनुष्य सुख का अनुभव करता है, क्योंकि प्रमाद के कारण जो उसका कर्तव्यकर्म है अर्थात जहां वह नौकरी करता है वहां पर वह अपना काम ठीक प्रकार से नहीं करता और उसे टालने का उसका स्वभाव बन जाता है कि बाद में कर लेंगे। वह व्यर्थ के कामों में लगा रहता है, अपना समय ताश खेलने, मोबाइल
पर गेम खेलने, दूसरों की निन्दा करने और गपशप द्वारा व्यर्थ करता रहता है। उसे इसका ज्ञान नहीं होता कि उसके पास सीमित समय है जल्द मृत्यु का समय आ जायेगा। इन्ही व्यर्थ के कार्य करके वह सुख का अनुभव करता है। ऐसे तामस सुख को ही भगवान ने कहा है कि यह भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है। तामस सुख की पूर्ति के लिए ऐसा व्यक्ति चोरी करता है, दूसरों की हत्या कर देना आदि अनेकों पाप कर देता है चूंकि उसकी बुद्धि तो अर्धम को भी धर्म और अकर्तव्य को कर्तव्य मान लेती है किसी भी प्रकार से वह बिना विचार के अपना सुख चाहता है और उसे कुछ भी ज्ञान नहीं रहता । इसलिए अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को इस प्रकार मोहित करने वाले क्षणिक सुख में अपना जीवन बर्बाद नहीं करना चाहिए।
हमें उपरोक्त तीनों सुखों सात्विक, राजस और तामस पर भलीभांति विचार करना चाहिए और अपने अंदर भी देखना चाहिए कि अधिकाशंतः हम किस प्रकार के सुख में रहते हैं। अपने अंतःकरण को निष्काम कर्म, द्वारा शुद्ध आहार और स्वाध्याय द्वारा शुद्ध करना चाहिए तभी विवेक के जाग्रत होने पर हम तामस और राजस सुख की इच्छा को अपने से दूर करके सात्विक सुख को प्राप्त करके और अंत में सात्विक सुख को भी छोडने का प्रयास करेंगे। भगवान ने गीता के श्लोक 13/21 में कहा है कि” प्रकृति में स्थित ही पुरूष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक (सत्वगुण,रजोगुण,तमोगुण) पदार्थो को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।’’ यह तीनों गुण ही इस जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं, क्योंकि सत्वगुण भी निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और विकाररहित है वह सुख के संबंध से और ज्ञान के संबंध से अर्थात अभिमान से बाँधता है। ऐसा भगवान ने गीता के श्लोक 14/6 में कहा है। सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त मनुष्य उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होकर और भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते है। अर्थात पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते है और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में आते हैं। अत: ज्ञान ओर विवेक द्वारा हमें अपने स्वरूप को जानना चाहिए कि हम तो परमात्मा का ही अंश है, इस प्रकृति से पूर्णतया भिन्न है और प्रकृति के गुणों से भी हमारा संबंध नहीं हैं। अर्थात सात्विक सुख के साथ भी हमें अपने आप को बांधना नहीं चाहिए उसमें कोई भी आसक्ति न रखें। यह आसक्ति ही हमारे बंधन का कारण है। इन सब पर हमें विचार और चिंतन लगातार करते रहना चाहिए।
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