Wednesday, July 29, 2020

कर्तव्यपालन का सृष्टिचक्र पर प्रभाव - दिनांकः- 28-07-2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान


भगवान गीता के अध्याय के श्लोक 14 से 16 में मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य पालन करने या न करने से सृष्टिचक्र पर क्या प्रभाव होता है के विषय में बताते हैं:


अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादत्रसम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।

तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।

अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।


संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैंअन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती हैवृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है। कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परमअक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ (विहित कर्म) में प्रतिष्ठित है। हे पार्थ! जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं वरतता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इंद्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।

गीता के इन श्लोकों में भगवान ने सृष्टिचक्र के अंतर्गत बातें क्रम से हम मनुष्यों को बताई हैं 

1.    संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। तैत्तिरीयोपनिषद में अन्न  की महिमा का वर्णन किया गया है। कि इस पृथ्वी लोक में निवास करने वाले जितने भी प्राणी हैंवे सब अन्न से ही उत्पन्न हुए हैंअन्न से ही उनका पालन पोषण होता है अतः अन्न से ही वह जीते हैं। फिर  अंत में इस अन्न में ही- अन्न उत्पन्न करने वाली पृथ्वी में ही विलीन हो जाते हैं। खाया हुआ अन्न तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो अत्यंत स्थूल भाग होता हैवह मल हो जाता हैजो मध्यम भाग है वह मांस हो जाता है और जो अत्यंत सूक्ष्म होता है वह मन हो जाता है। अतः कहा है जैसा खाए अन्न वैसा हो जाए मन। अन्न को सर्वौषधरुप कहा है क्योंकि इसी से प्राणियों का क्षुघाजन्य संताप दूर होता है । अन्न ही सब भूतों में श्रेष्ठ है इसलिए यह सर्वौषधमय कहलाता है। जो साधक इस अन्न की ब्रह्म रूप में  उपासना करते हैं अर्थात यह अन्न ही सर्वश्रेष्ठ है सबसे बड़ा है वे समस्त अन्न को प्राप्त कर लेते हैं। उन्हें अन्न का अभाव नहीं रहता। अतः हमें  अन्न का तिरस्कार नहीं करना चाहिए । सब प्राणी अन्न को खाते हैं तथा यह भी सब प्राणियों को खा जाता अर्थात अपने में विलीन कर लेता है इसलिए अन्न नाम से जाना जाता है अघतेअत्ति च भूतानि, तस्मादन्नं तदुच्यत इति ।

 

2.   अन्न  की उत्पत्ति वर्षा से होती है। जैसा कि हम जानते ही हैं कि अन्नफलसब्जी और सभी वनस्पतियों की उत्पत्ति का आधार जल है अर्थात मिट्टी (भूमि) के साथ-साथ उन्हें जल की भी आवश्यकता होती है। इसी प्रकार सभी प्राणियों को जीवित रहने के लिए भी जल की आवश्यकता होती है और जल वर्षा द्वारा प्राप्त होता है। अतः समय पर और उचित मात्रा में वर्षा का होना सभी के लिए आवश्यक है। यदि एक साल भी ठीक से वर्षा न हो तब कितना बड़ा अकाल या जल का संकट सभी के सामने उपस्थित हो जाता है और यदि ज्यादा वर्षा हो जाए तब बाढ़ और अन्य संकट आ जाते हैं। क्योंकि उनकी उत्पत्ति जल से होती है अतः जल ही अन्न  की अपेक्षा उत्कृष्ट है। छान्दोग्योपनिषद में आता है कि यह जो पृथ्वी है मूर्तिमान जल ही है अतः तुम जल की उपासना करो। वह जो कि जल की यह ब्रह्म है” ऐसी उपासना करता हैसंपूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर लेता है और तृप्तिमान होता है। अतः हमें कभी भी जल को निरर्थक बर्बाद नहीं करना चाहिएइसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । सृष्टिचक्र में जल का बहुत महत्व है । पिया हुआ जल तीन प्रकार का हो जाता है । उसका जो स्थूलतम भाग होता है वह मूत्र हो जाता हैजो मध्यम भाग है वह रक्त हो जाता है और जो सूक्ष्मतम भाग है वह प्राण हो जाता है। ऐसा छान्दोग्योपनिषद में आता है।

 

3.   वर्षा (वृष्टि) यज्ञ से होती है। मनुष्य मन, वाणी और शरीर से जो क्रिया करता है वह कर्म है। गीता के श्लोक 4/27 में भगवान कहते हैं कि योगीजन इंद्रियों की संपूर्ण क्रियाओं को और प्राणों की समस्त क्रियाओं को ज्ञान से प्रकाशित आत्मसंयमयोग रूप अग्नि में हवन किया करते हैं । अतः कर्मयोग के सिद्धांत के अनुसारमनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा जो क्रियापूर्ण निष्काम और निलिप्त भाव सेआसक्ति और फल की इच्छा से रहित होकर लोकहित को दृष्टि में रखते हुए करता है वह ही यज्ञ है। जैसे यज्ञ में आहुतियों द्वारा घी और अन्य सामग्री का अग्नि के द्वारा देवताओं को भेंट किया जाता है उसी प्रकार कर्म योग में आसक्तिममता और फल आदि के त्याग द्वारा दूसरों के हित के लिए कर्म किया जाता है। बृहदारण्यकोपनिषद में आता है कि देवमनुष्य और असुर  इन पुत्रों ने पिता प्रजापति के यहाँ तपस्या की तब तपस्या पूरी होने के पश्चात प्रजापति ने उन तीनों को 'अक्षर कहा और पूछा समझ गए क्या । तब देवों ने कहा कि हम समझे हैं कि आपने हमसे कहा है “ दमन करो” । मनुष्यों ने कहा कि हम समझे हैं कि आप ने हमसे कहा है “ दान करो” । और असुरों ने कहा कि हम समझे हैं कि “ दया करो” । इस प्रजापति के अनुशासन की मेघगर्जनारुप दैवी वाणी आज भी द-द-द इस प्रकार अनुवाद करती है कि भोग प्रधान देवों ! इंद्रियों का दमन करोसंग्रह प्रधान मनुष्यों भोग सामग्री का दान करोक्रोध, हिंसा प्रधान असुरों ! जीवों पर दया करो । अतः मेघ भी हमें कर्म करने की प्रेरणा देते रहते हैं। गीता में भी श्लोक 18/में भगवान कहते हैं कि यज्ञदान और तपरूप कर्मों को तथा और भी संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिएयह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।

 

4.   यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है । गीता में अनेकों श्लोकों में शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों को यज्ञ कहा है । गीता के श्लोक 3/में भगवान कहते हैं कि तू शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।” और अगले ही श्लोक में कहते हैं यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय, कर्मों से बंधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भली भांति कर्तव्य कर्म कर। श्लोक 3/11 में कहते हैं इस यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं को उन्नत करो और वह देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। कर्मयोग में फल और आसक्ति दोनों के त्याग की बात आती है लेकिन पदार्थों में आसक्ति का त्याग होने से उन पदार्थों के प्राप्त करने की इच्छा यानी फल का त्याग स्वत: ही हो जाता है। अतः फल की इच्छा उत्पन्न होने में आसक्ति ही मुख्य कारण है। अतः आसक्ति के त्याग के साथ कर्मफल का त्याग हो जाता है। लेकिन आज के युग में ऐसे मनुष्यों का मिलना थोड़ा कठिन हो गया है जो आसक्ति और फल के त्याग के साथ कर्म करें। सर्वप्रथम तो यही सोचते हैं कि इस कर्म को करने से मुझे क्या लाभ होगा अतः कार्य के प्रारंभ में ही हमारी स्वार्थ बुद्धि हो जाती है। ज्ञानी पुरुष तो कर्म के आरंभ में ही स्वार्थ बुद्धि को वश में कर लेते हैं। अंतःकरण शुद्ध न होने के कारण हमारी बुद्धि में विवेक उत्पन्न नहीं हो पाता और अपने अपने स्वार्थ के साथ सभी अपने कर्म में लग जाते हैं। लोक हित की चिंता ही नहीं करते यदि एक भी मनुष्य अपने कर्म अपने स्वार्थ की पूर्ति और आसक्ति के साथ करता है तब इससे सृष्टि चक्र में प्रभाव पड़ता है। जैसे किसी मशीन का एक भी पुर्जा ठीक से काम ना करें तब पूरी मशीन पर उसका प्रभाव पड़ता है । आज हम देख भी रहे हैं कि जैसे महामारी, ठीक समय पर वर्षा का ना होना और प्रकृति में जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए काफी सीमा तक हम ही जिम्मेदार हैं। जब मनुष्य अपना कर्तव्य निष्काम भाव से न करके स्वार्थ बुद्धि या अनुचित तरीके से करने लग जाते हैं, उससे प्रकृति कुपित हो जाती है और तब मनुष्य मिलकर भी उसका सामना नहीं कर पाते। यदि देखा जाए तब 40-50 वर्ष पूर्व इस तरह की समस्याएं कम होती थी, मनुष्य भी अपना कर्तव्य काफी कुछ ठीक ही निभा रहे थे लेकिन आजकल तो सभी में स्वार्थ बहुत बढ़ गया है और किसी भी उचित या अनुचित तरीके से धन कमा कर भोग करना ही एकमात्र लक्ष्य बनता जा रहा है। इसी कारण सृष्टि चक्र में विघ्न आ रहे हैं। और सभी मनुष्य और देश इस परेशानी का सामना कर रहे हैं। अतः सभी को इस विषय पर विचार करके अपने कर्तव्य कर्म को शास्त्रानुसार ही करने की आवश्यकता है।

 

5.   कर्म समुदाय को वेद से उत्पन्न जान। मनुष्य को कौन सा कर्म उसके वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और जीविका आदि के लिए किस प्रकार से करना उसका कर्तव्य है के विषय में चारों वेद ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदअथर्ववेद और स्मृतिपुराणरामायणमहाभारत आदि शास्त्रों में कर्तव्य कर्म की विधि के विषय में विस्तार पूर्वक बतलाया गया है। चारों वेदों के एक लाख श्लोकों में से 80000 श्लोक तो केवल कर्म संपादन संबंधित हैं और 16000 श्लोक उपासना एवं 4000 श्लोक ज्ञान से संबंधित हैं। अतः वेदों में कर्म के विषय में काफी विस्तार से बताया गया है । अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्य का ज्ञान शास्त्रों द्वारा या महापुरुषों द्वारा प्राप्त कर लेना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य को सकाम और निष्काम कर्म के विषय में और उनके लाभ एवं हानि के विषय में अवश्य जानना चाहिए। बिना ज्ञान के किए कर्म केवल बंधन के कारण बन जाते हैं। इस जन्म में किए हुए कर्म ही हमारा भविष्य और अगला जन्म निर्धारित करते हैं। गीता के श्लोक 2/50 में भगवान कहते हैं कि समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उन से मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग में लग जा यह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात कर्म बंधन से छुटने का उपाय है

 

6.   वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान । वेद अपौरुषेय है अर्थात किसी पुरुष के बनाए हुए नहीं हैं। सृष्टि के आदि में परमात्मा से वेद प्रकट होते हैं और अंत में परमात्मा में ही विलीन हो जाते हैं।

 

उपरोक्त बातों से सिद्ध होता है कि परमात्मा सदा ही यज्ञ अर्थात विहित कर्म में प्रतिष्ठित हैं। अतः हमें अपने सभी कर्तव्य कर्म शास्त्रानुसार अर्थात आसक्ति, ममता, कामना और फल के त्याग के साथ पूर्ण निर्लिप्त भाव से दूसरों के हित के लिए ही करने चाहिए ताकि हम प्रकृति के अनुकूल कर्म करके इस सृष्टिचक्र में व्यवधान उत्पन्न न करें। यदि अपने कर्म केवल अपना स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए आसक्ति और फल की इच्छा के साथ अपने भोगों की पूर्ति के लिए करेंगे और दूसरों का हित या आहित की भी चिंता नहीं करेंगे इससे प्रकृति कुपित होगी और सृष्टि चक्र में व्यवधान होगा। भगवान कहते हैं कि जो पुरुष इस संसार में इस प्रकार परंपरा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं चलता अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता वह भोगों में रमण करने वाला पापायु मनुष्य व्यर्थ ही जीता है। भगवान ने ऐसे मनुष्य को पापी कहा है और कहा है कि उसका जीना व्यर्थ ही है। यह भगवान की काफी कड़ी चेतावनी है इस पर हमें अवश्य ध्यान देना चाहिए। अभी भी हमारे पास जो समय शेष है कम से कम उसमें तो अपने कर्तव्य कर्म का ठीक प्रकार से पालन करें जिससे अन्य व्यक्ति भी जो हमारे संपर्क में आएं, वह भी हमें देखकर अपने कर्तव्यकर्म का शास्त्रानुसार पालन कर सकें।

 

 

धन्यवाद

डॉ. बी. के. शर्मा


Thursday, July 23, 2020

मनुष्य के व्यक्तित्व पर गुणों का प्रभाव - दिनांक- 23.07.2020


व्यावहारिक गीता ज्ञान                  

संसार में सभी मनुष्यों का स्वभाव, व्यवहार और उनका व्यक्तित्व अलग-अलग होता है। यह सब प्रकृति से उत्पन्न सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण अर्थात प्रकृति का त्रिगुणात्मक माया से प्रभावित होता है। जिस मनुष्य में जिस गुण की अधिकता होती है उसका वैसा ही स्वभाव, व्यवहार, विचार करने और निर्णय लेने का तरीका आदि होता है। इसलिए संसार में अच्छे और बुरे, शांत और क्रोधित या हिंसात्मक प्रवृति के मनुष्य अपने गुणों के आधार पर होते हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने अंदर के गुणों को पहचान कर उन्हें बदलने का प्रयास करके अपना स्वभाव या व्यवहार आदि में परिर्वतन करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र है। भगवान ने गीता के श्लोक 18/40 में कहा है-


    न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
    सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्रिभिर्गुणैः।।


    पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई भी सत्व (सभी प्रकार के प्राणी और समस्त पदार्थ) नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।
  

  श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादशस्कंध में भी भगवान श्री कृष्ण उद्धव जी से कहते हैं कि वस्तु, स्थान (देश), फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, देव, मनुष्य त्रियगादि शरीर और निष्ठा-सभी त्रिगुणात्मक हैं। पुरुष और प्रकृति के आश्रित जितने भी भाव हैं- सभी गुणमय हैं- वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियों से अनुभव किये हुए हों, शास्त्रों के द्वारा लोक-लोकान्तर के संबंध में सुने गये हों अथवा बुद्धि के द्वारा सोचे-विचारे गये हों। जीव को जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ प्राप्त होती हैं वे सब इनके गुणों और कर्मों के अनुसार ही होती हैं। सब के सब गुण चित्त से ही संबंध रखते हैं, इसलिए जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता है।
    

हमारा स्थूल शरीर जो कि 23 तत्वों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच भूत, पाँच इन्द्रियों के विषय तथा मन, बुद्धि, अहंकार) का पिण्ड है वह भी प्रकृति से उत्पन्न होने वाले तीनों गुणों का ही कार्य है। गुणों के कार्य इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि ही गुणों के कार्यरुप इन्द्रियों के विषयों में बरत रहे हैं अतः गुण ही गुणों को बरत रहे हैं। इसलिए हमारे व्यवहार, स्वभाव, कर्म आदि का गुणों से प्रभावित होना स्वभाविक ही है। भगवान गीता के श्लोक 14/19 में कहते हैं-


  नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
    गुणेभ्यच्श्र परं वेत्ति मदभावं सोऽधिगच्छति।।
  

  जिस समय द्रष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों के अत्यन्त परे मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है उस समय वह मेरे स्वरुप को प्राप्त होता है।
   

प्रत्येक मनुष्य में अलग अलग गुणों का प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियों के स्वभाव में भी भेद हो जाता है। शंकर भाष्य में आता है कि प्राणियों के जन्मान्तर में किए हुए कर्मों के संस्कारजो वर्तमान जन्म में अपने कार्य के अभिमुख होकर व्यक्त हुए हैंउनका नाम स्वभाव है। ऐसा स्वभाव जिन गुणों को उत्पत्ति का कारण हैवे स्वभावप्रभवगुण है। गुणों का प्रादुर्भाव बिना कारण के नहीं बन सकताइसलिए स्वभाव उनकी उत्पत्ति का कारण है। इस प्रकार स्वभाव से उत्पन्न हुएअर्थात प्रकृति से उत्पन्न हुए सत्वरजतम-इन तीनों गुणों द्वारा अपने अपने कार्य के अनुरूप शमादि कर्म विभक्त किए गए हैं। गीता के श्लोक 14/में भगवान कहते हैं कि सत्वगुणरजोगुण और तमोगुण यह प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं।
    

मनुष्य को अपने अंदर मौजूद गुणों की पहचान करने का सतत प्रयास करते रहना चाहिए क्योंकि सब के सब गुण उसके चित्त से ही संबंध रखते हैं और एक गुण की भी अधिकता या न्यूनता से उसके स्वभाव या व्यवहार में परिवर्तन आ सकता है। अब प्रश्न उठता है कि गुणों के आधार पर मनुष्य को कैसे पहचाना जाए या मनुष्य अपने अंदर के गुणों को कैसे विश्लेषण करें और एक गुण को दबा कर दूसरे गुण को कैसे बढ़ाए ताकि उसका स्वभाव अच्छा बन जाए और उसका उद्धार हो सके।


    श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में आता है कि भगवान श्री कृष्ण उद्धव जी से कहते हैं कि मानसिक शांति और जितेंद्रियता आदि गुणों से सात्विक पुरुष कीकामना आदि से रजोगुण पुरुष की और क्रोध-हिंसा आदि से तमोगुण पुरुष की पहचान करें। सत्त्वरज और तम- इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित्त है। इन्हीं गुणों के कारण जीव शरीर अथवा धन आदि में आसक्त होकर बंधन में पड़ जाता है। सत्वगुण प्रकाशकनिर्मल और शांत है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर बढ़ता है उस समय मनुष्य सुखधर्म और ज्ञान आदि का भाजन हो जाता है। रजोगुण भेद बुद्धि का कारण है उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है उस समय मनुष्य दुखकर्मयश और लक्ष्मी से संपन्न होता है। तमोगुण का स्वरूप है अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है तब मनुष्य तरह-तरह की आशाएं करता हैशोक-मोह में पड़ जाता हैहिंसा करने लगता है अथवा निद्राआलस्य के वशीभूत होकर पड़ा रहता है। जब चित्त प्रसन्न हो इंद्रियां शांत हो,  देह निर्भय हो और मन में आसक्ति न होतब सत्वगुण की बुद्धि समझनी चाहिए। सत्वगुण भगवान की प्राप्ति का साधन है। जब काम करते-करते जीव की बुद्धि चंचलइंद्रियां असंतुष्टकर्मेंद्रियां विकारयुक्तमन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाए तब समझना चाहिए कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है। जब चित्त ज्ञानेंद्रियां के द्वारा शब्दादि विषयों को ठीक-ठाक समझने में असमर्थ हो जाए और खिन्न होकर लीन होने लगेमन सूना सा हो जाए तथा अज्ञान और ओर विषाद की वृद्धि हो तब समझना चाहिए कि तमोगुण वृद्धि पर है। अतः हम अपने गुणों को पहचान कर जो कि हमारे ही चित्त से संबंध रखते हैं अपनी बुद्धि और विवेक द्वारा रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण की वृद्धि करके अपने स्वभाव और अपने दैनिक व्यवहार में परिवर्तन कर सकते हैं। लेकिन ये सब हमें स्वयं के प्रयास द्वारा ही करना पड़ेगा। शास्त्र या विवेकी पुरुष तो केवल मार्ग ही बतला सकते हैंचलना तो स्वयं को ही पड़ेगा।


  
    भगवान गीता के श्लोक 14 /14-15 में कहते हैं कि जब यह मनुष्य सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है तब वह उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्गादि लोकों को प्राप्त होता है। रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है, तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीट, पशु आदि मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है। अतः हमारे अंदर मौजूद यह गुण ही हमारे वर्तमान शरीर और भविष्य के शरीर की उत्पत्ति के कारण हैं। इसलिए हमें बहुत ही गंभीरता के साथ अपने अंदर मौजूद गुणों का आंकलन करते रहना चाहिए और रजोगुण एवं तमोगुण को दबाकर सत्वगुण को निरंतर बढ़ाते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए इससे हमारे वर्तमान शरीर द्वारा हमारा व्यवहार भी दूसरों के साथ एवं स्वयं के साथ बदल जाएगा और भविष्य भी सुधर जाएगा। यदि इस शरीर में रहते हुए आज के युग में संभव हो सके तब चित्तवृत्तियों को शांत करके निरपेक्षता के द्वारा सत्त्वगुण पर भी विजय प्राप्त कर ले। इस प्रकार गुणों से मुक्त होकर अर्थात गुणातीत होकर अपने जीवभाव को छोड़ देता है और मुक्त होकर भगवान से एक हो जाता है जो कि मनुष्य का अंतिम लक्ष्य है। 

  



धन्यवाद
              डॉ. बी. के. शर्मा




Friday, July 17, 2020

प्रकृति, गुणों और कर्मों का संबंध - दिनांक – 17-07-2020

व्यवहारिक गीता ज्ञान

     भगवान गीता के श्लोक 3/27 में कहते हैं कि वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं प्रकृतेः क्रियमाणनि गुणैः कर्माणि सर्वशः प्रकृति के दो भेद हैं - एक विद्या और एक अविद्या (अज्ञान)। विद्या के द्वारा भगवान सृष्टि की रचना करते हैं और अज्ञान (अविद्या) के कारण जीव मोहित हो जाता है। जब जीव का यह अज्ञान कि गुण ही गुणों में वरत रहे हैं, अर्थात प्रकृति के द्वारा ही सब कर्म हो रहे हैंमैं तो अहंकार के कारण और शरीरइंद्रियों आदि के साथ अपना संबंध मानने के कारण ही यह मानता था कि मैं सब कर्मों का कर्ता हूंदूर हो जाता है, तब वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है और कर्म करते हुए भी कर्मबंधन से मुक्त रहता है। हमारा स्वरूप अर्थात आत्मा तो परमात्मा का शुद्ध अंश है लेकिन प्रकृति और प्रकृति के कार्यों के साथ संबंध बना लेने के कारण इसी आत्मा को जीव कहते हैं। भगवान श्लोक 13/21 में कहते हैं कि

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङक्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसग्ङोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।

    प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा को अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।

प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक (सत्व, रज और तम) माया के कार्यरुप पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच विषय (शब्दस्पर्शरूपरसगंध) और मनबुद्धिअहंकार इस प्रकार चौबीस तत्व (प्रकृति के साथ) इन सबके समुदाय का नाम गुण विभाग है। और इनकी परस्पर चेष्टाओं का नाम कर्मविभाग है। जैसे आँख और पैर आदि इंद्रियाँ होने के कारण गुण विभाग के अर्न्तगत आते हैं लेकिन उनके द्वारा चेष्टा करना अर्थात पैरों द्वारा चलना आँख द्वारा देखना आदि आदि कर्म विभाग के अंर्तगत आते हैं। श्लोक 3/28 में भगवान कहते हैं-

तत्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।

    परंतु हे महाबाहो। गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानयोगी संपूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैंऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता।

    अगले श्लोक 3/29 में भगवान कहते हैं कि ‘‘प्रकृति के गुणों से अत्यंत मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैंउन पूर्णतया न समझने वाले मंदबुद्धि, अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करें।’’ अर्थात जो मनुष्य प्रकृति के गुणों और कर्मों में आसक्त रहता है उनको भगवान ने मन्दबुद्धि और अज्ञानी कहा है।

    हमने जाना कि चौबीस तत्वों का समुदाय जिसे गुण विभाग कहते हैं वह प्रकृति से ही उत्पन्न हुआ है और प्रकृति का अंश है और उन गुणों की चेष्टा का नाम कर्म विभाग है। अतः गुण और कर्म दोनों ही प्रकृति का कार्य है। इन गुणों को पदार्थ कहा गया है और क्रिया का नाम कर्म है। पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है और क्रिया का आरंभ और अंत होता है। जैसे खाना-पीना एक क्रिया है और खाने-पीने की सामग्री पदार्थ है। अतः पदार्थ और क्रिया या गुण और कर्म परिवर्तनशील, अनित्य, नाशवान और जड़ हैं, जबकि मनुष्य का वास्तविक स्वरूप (आत्मा) अपरिवर्तनशीलनित्य, चेतन, निर्विकार, अविनाशी, अनादि और अजन्मा है। जब जीव अपना संबंध प्रकृति अर्थात गुणों के साथ कर लेता है तब वह सुख-दुख का भोक्ता बन जाता है और कर्म बंधन में पड़ता है। आत्मा के प्रकाश से ही अर्थात उसकी शक्ति से हीप्रकृति के गुणों द्वारा कर्म किया जाता है आत्मा तो निर्लिप्त भाव से साक्षी रूप में रहता है। मनुष्य का जैसा स्वभाव होता है अर्थात उसके अंदर गुण (सत्व, रज, तम) होते हैं वैसे ही वह कर्म करता है। जीव द्वारा प्रकृति के गुणों के साथ संबंध बन जाने के कारण जीव अपने को उन कर्मों का कर्ता मान लेता है और इसके कारण उसका अनेकों शरीरों में आवागमन होता रहता है।

    जीव जब अपने स्थूल शरीर में आता है और जागृत अवस्था में रहता है उस समय इसका उपरोक्त चौबीस तत्वों वाले तीनों (स्थूलसूक्ष्मकारण) शरीर और पांचों कोशों (अन्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयआनंदमय) से संबंध होता है। जब जीव स्वप्न अवस्था में रहता है तब इसका सत्तर तत्वों (पांच प्राणदस इंद्रियांमनबुद्धि) के सुक्ष्म शरीर और तीन कोशों (प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय) के साथ संबंध रहता है। और सुषुप्ति अवस्था में केवल कारण शरीर (अविद्या प्रकृति) और सिर्फ आनन्दमय कोश के साथ संबंध रहता है। कारण शरीर भी मूल प्रकृति का अंश है।

    सुषुप्ति अवस्था में सभी तत्व कारणरूप प्रकृति में लय हो जाते हैंइसीलिए जीव को किसी बात का ज्ञान नहीं रहताइसी गाढ़ निन्द्रा को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं और आनन्दमय कोश भी कहते हैं। जागने पर जीव कहता है कि मैं बहुत सुख से सोया और उसे किसी बात का ज्ञान नहीं रहता। इसी अज्ञान को माया-प्रकृति कहते हैं। जब कर्मयोगज्ञानयोग या भक्तियोग द्वारा अंतःकरण शुद्ध हो जाता है तब जीव का अज्ञान दूर हो जाता है और उसे यह ज्ञान हो जाता है कि मैं तो परमात्मा का अंश हूं, “ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ” या ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन, अमल, सहज, सुखराशी

    प्रकृति जड़ है इसे भगवान ने अपरा प्रकृति कहा है और जीव (पुरुष) स्वयं परमात्मा का अंश होने के कारण चेतन या परा प्रकृति है। भगवान गीता के श्लोक 13/19 में कहते हैं कि ‘‘ प्रकृति या पुरुष इन दोनो को ही तू अनादि जान और राग-द्वेषादि विकारों को तथा त्रिगुणात्मक संपूर्ण पदार्थों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न जान।’’ संपूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं। भगवान ने श्लोक 13/20 में कहा है कि ‘‘कार्य और करण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दुखों के भोक्तापन में अर्थात भोगने में हेतु कहा जाता है।’’ इसलिए कर्म और उनके साधन (इंद्रियाँ) का संबंध प्रकृति के साथ है, परंतु प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण सत्वगुणरजोगुण और तमोगुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बांधते हैं। प्रकृति और उसके गुणों (तत्वों) के साथ संबंध के कारण आत्मा जीव कहलाता है। जब जीव को प्रकृति और उसके गुणों के विषय में ज्ञान हो जाता हैतब वह शरीर में स्थित रहते हुए भी निष्काम और निर्लिप्त भाव में अपने कर्तव्यकर्म ईश्वर अर्पण बुद्धि द्वारा लोकहित के लिए करता हुआ यह जानते हुए कि सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं और मैं कुछ नहीं करता हूंइस जन्म मृत्यु के चक्र से छूटकर मुक्त हो जाता है। अतः हमें प्रकृतिउसके गुण और कर्मों के संबंध को जानते हुए अपने स्वरूप को जानने का प्रयास करते रहना चाहिए। भगवान ने शरीर को क्षेत्र और जो इसे जानता हो उसे क्षेत्रज्ञ कहा है अतः दोनों ही अलग-अलग हैं वह तो अज्ञान (अविद्या) के कारण हमने अपने को ही शरीरमनबुद्धि आदि मान रखा है। भगवान ने तो गीता के श्लोक 13/23 में स्पष्ट कहा है कि ‘‘इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य तत्व से जानता है, वह सब प्रकार से कर्तव्य कर्म करता हुआ भी फिर नहीं जन्मता।’’ और श्लोक 13/29 में भगवान कहते हैं कि ‘‘जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है।’’ इसलिए हमें प्रकृति, उसके गुणों और कर्मों के संबंध के साथ-साथ अपने स्वरुप को जानने का सतत प्रयास और चिंतन करते रहना चाहिए तभी हमारा मनुष्य जन्म लेना सफल हो सकता है।

 

                              धन्यवाद
                           डॉ. बी. के. शर्मा


Monday, July 13, 2020

स्थिर बुद्धि वाले मनुष्य के लक्षण - दिनांक- 13.07.2020

व्यावहारिक गीता ज्ञान

गीता के अध्याय 2 के श्लोक 54 में आता है कि अर्जुन ने भगवान कृष्ण से प्रश्न किया कि हे केशव ! परमात्मा में स्थित, स्थिर बुद्धि वाले मनुष्यों के क्या लक्षण होते हैंवह स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता हैकैसे बैठता है और कैसे चलता हैइसका उत्तर भगवान ने आगे के 18 श्लोकों 55 से 72 तक विस्तार पूर्वक हम सभी मनुष्यों को स्थिर बुद्धि द्वारा परमात्मा की प्राप्ति के लिए दिया है। इनमें से कुछ मुख्य लक्षणों का संक्षेप में विवरण निम्न प्रकार है। भगवान श्लोक 55 में कहते हैं 

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।


हे अर्जुन ! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भलीभांति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता हैउस काल में वह स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धि) कहा जाता है।

    (1) स्थिर बुद्धि प्राप्त करने के लिए भगवान ने सर्वप्रथम मनुष्य को मन में आने जाने वाली संपूर्ण कामनाओं के त्याग के विषय में कहा है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारा मनबुद्धिचित्त और अहंकार यह मिलकर अंतःकरण कहलाता है। करण का अर्थ है साधन अर्थात कर्म करने की सामग्री। हमारा स्थूलशरीर पंचमहाभूतों (पृथ्वीआकाशजलअग्निवायु) से बना है और पंचमहाभूतों का संचालन करने वाला मन अध्यात्म (इंद्रिय) है और संकल्प उसका अधिभूत (विषय) है। इसी प्रकार विचार करने वाली बुद्धि अध्यात्म है और मन्तव्य उसका अधिभूत है। इस प्रकार हमारे मन में लगातार संकल्प विकल्प आते रहते हैं यह शांत नहीं रहताहमेशा चंचल रहता है अभ्यास द्वारा ही मन पर नियंत्रण कर सकते हैं। जब मन में कोई कामना (इच्छा) आती है और यदि बुद्धि का भी उसको पूरा करने का विचार (निश्चय) हो जाता है तब मनुष्य कर्म द्वारा उस इच्छा को पूरी करने की चेष्ठा करता हैजब वह पूरी हो जाती है तभी कोई दूसरी इच्छा मन में हो जाती हैक्योंकि उसका तो काम ही संकल्प विकल्प करना हैअतः कोई भी व्यक्ति अपने मन की सभी कामनाओं को पूरा नहीं कर सकता। जब कामना पूरी नहीं होती तब मन अशांत हो जाता है और व्यक्ति यदि अपने को मन और बुद्धि मान ले तब वह भी अशांत हो जाता है उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रह पाती। अतः इसका एक ही उपाय है कि हम अपने मन को ही कामना से रहित करने का प्रयास करते हुए अपना नियत कर्तव्य कर्म बिना आसक्ति फल की इच्छाआदि से रहित होकर पूर्ण निष्काम भाव से ईश्वर अर्पण बुद्धि द्वारा पूरी मेहनत से करते रहे। प्रारब्ध के अनुसार हमें फल प्राप्त होता रहेगा उसके विषय में हमें चिंता करने की आवश्यकता नहीं करनी चाहिए। जितना धन हमारे प्रारब्ध में होगा न तो उससे कम मिलेगा और न ज्यादातब हम कामना और इच्छा आदि रखकर क्यों कर्म करें। अपना कर्म पूर्ण निर्लिप्त और निष्काम भाव से करें और अपने स्वरूप में स्थित रहते हुएमन को शांत रखते हुए अपनी बुद्धि को स्थिर रखने का प्रयास करते रहे। भगवान ने गीता के श्लोक 4/19 में कहा है कि जिसके संपूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं उसी को बुद्धिमान पुरुष कहते हैं।

     (2)  स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है इसके विषय में भगवान श्लोक 2/56 में कहते हैं कि दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होतासुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा निःस्पृह (अपेक्षा रहित) रहा है तथा जिसके रागभय और क्रोध नष्ट हो गए हैंऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है। और श्लोक 57 में कहते हैं कि जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है। इसमें हमारे अंदर (अंतःकरण) के भावों के विषय में बतलाया है कि स्थिर बुद्धि प्राप्त करने के लिए हमें यदि अनुकूल वस्तु (परिस्थिति) मिल जाए तब हमें बहुत प्रसन्न नहीं होना चाहिए और यदि प्रतिकूल परिस्थिति आ जाए तब अधिक समय तक दुखी नहीं होना चाहिए। भगवान ने गीता में समान बुद्धि वाला होकर कर्तव्य कर्म को करने के लिए कहा है  'समत्व योग उच्यते'। समत्व ही योग कहलाता है। जब हम लाभ-हानि, सुख-दुख, जय-पराजय इत्यादि से ज्यादा विचलित नहीं होंगे या ज्यादा समय तक उनसे प्रभावित नहीं होंगे तब हमारा मन शांत रहेगा और बुद्धि भी स्थिर रहेगी। मन के चंचल या अशांत होने पर हमारी बुद्धि स्थिर न होने के कारण उचित निर्णय नहीं ले पाती। अतः हमें जितना जल्दी हो सके उस विषम परिस्थिति को ईश्वर की इच्छा या अपना कोई पूर्व संचित कर्म का फल समझकर अपने अंतःकरण को शांत करने का प्रयास करना चाहिए। भगवान ने गीता के श्लोक 2/50 में कहा है कि समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है। इससे तू समत्वरूप योग में लग जायह समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है 'योगः कर्मसु कौशलमअर्थात कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।

 

    (3) भगवान ने गीता में कहा है कि जब यह पुरुष इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है अर्थात इंद्रियों को अपने मन द्वारावश में कर लेता हैउसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। गीता में कछुआ का उदाहरण दिया गया है। जैसे कछुआ सब ओर से अपने अंगों (चार पैर, एक पूँछ, एक मस्तक) को समेट लेता है अर्थात् उसकी केवल पीठ ही दिखाई पड़ती है और वह सुरक्षित रहता है उसी प्रकार हमें अपनी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ और छटा मन को विषयों से हटा देना चाहिए, अन्यथा जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती हैवैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों में से मन जिस इंद्रिय के साथ रहता हैवह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है।

     श्लोक 2/59 में भगवान कहते हैं कि इंद्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत हो जाते हैं (जैसे कोई रोग हो जाने पर हमारे खाने-पीने पर कुछ पाबंदी लग जाती है) परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती अर्थात मन द्वारा हम उन खाने के पदaर्थो के बारे में सोचते रहते हैं हमारी उनमें आसक्ति नहीं समाप्त होती)। इसलिए हमें मन द्वारा भी विषयों का चिंतन नहीं करना चाहिए।  इस स्थिर बुद्धि वाले पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत हो जाती है।

     श्रोत्र (कान), त्वचानेत्ररसना और घ्राण (नासिका) यह पांच ज्ञानेंद्रियां हैं। श्रोत्र का विषय शब्दग्रहण, त्वचा का विषय स्पर्श ग्रहणनेत्र का विषय रूप ग्रहण व जिहवा (जीभ) का विषय रसग्रहण तथा नासिका का विषय गंध ग्रहण है। पाँचों ज्ञानेंद्रियों के यही कार्य हैं '' शब्द, स्पर्श रूपरस और गंध''। यह इन्हीं में लगी रहती हैं और यदि मन भी इन्हीं के साथ हो जाता है तब उस चंचल अवस्था में बुद्धि को भी स्थिर नहीं रहने देता। जैसे बहुत सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं वैसे ही जीव को जीभ एक और स्वादिष्ट पदार्थों की ओर खींचती हैं, तो त्वचा स्पर्श की ओरकान मधुर शब्द की ओरनेत्र रूप की ओर, नासिका सुंदर गंध की ओर खींचती है। सत्वरज और तम ये तीनों गुण इंद्रियों को उनके कर्मों में प्रेरित करते हैं अर्थात् मनुष्य को जैसा स्वभाव होता है या उसमें जैसे गुण होते हैं उसकी इंद्रियां वैसे ही कर्म करती है। जीव अज्ञानवश सत्वरज और तम आदि को और इंद्रियों को अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके द्वारा किए हुए कर्मों का फल सुख-दुख भोगने लगता है। इंद्रियां प्रकृति का अंश होने के कारण जड़ है जबकि हमारा स्वरूप (आत्मा) चेतन और परमात्मा का अंश है। अतः हमें अपनी बुद्धि द्वारा मन को वश में करके तथा मन द्वारा अपनी इंद्रियों को वश में रखने का सतत प्रयास करते रहना चाहिए। हम जिस शरीर रूपी रथ पर सवार होकर इस संसार की यात्रा कर रहे हैं उसमें हमारी इंद्रियां ही घोड़े हैंमन लगाम है और बुद्धि सारथी है। यदि सारथी (बुद्धि) का पूर्ण नियंत्रण मन रुपी लगाम पर है तब यह घोड़े (इंद्रियाँ) उसके वश में रहेंगी और शरीर रुपी (रथ) अपनी मंज़िल अर्थात परमतत्व (आत्मतत्व) तक पहुँच जायेगा। इसलिए बुद्धि को स्थिर रखने के लिए अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखना परम आवश्यक है।

    

        (4)  भगवान श्लोक 2/62, 63 में कहते हैं कि जब मनुष्य विषयों का चिंतन करता हैतब उसकी उन विषयों में आसक्ति हो जाती है,आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता हैक्रोध से मूढ़भाव और मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम और स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि का नाश हो जाता है। अर्थात स्थिर बुद्धि न रह पाने का एक कारण मनुष्य द्वारा विषयों का मन द्वारा चिंतन करना भी है। मन का तो काम ही संकल्प विकल्प करते रहना है अतः जब हम अपना नियत कर्तव्य कर्म न कर रहें हों तब खाली मन को भगवान नाम में लगा दें ताकि यह संसार के विषयों के चिंतन से बचा रहे और हमारी बुद्धि भी स्थिर रहे। हमें बुद्धि द्वारा अपने मन को वश में रखने का प्रयास करते रहना चाहिए। गीता के श्लोक 3/42 में भगवान ने कहा है कि स्थूल शरीर से श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म हमारी इन्द्रियाँ हैं और इन इन्द्रियों से बलवान और सूक्ष्म हमारा मन है, मन से भी बलवान और सूक्ष्म हमारी बुद्धि है और जो बुद्धि से भी बलवान और सूक्ष्म है वह आत्मा है। इस प्रकार श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके इस कामरुप दुर्जन शत्रु को मार डालना चाहिए। स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बैठता है अर्थात् संसार से उपराम होता है, इसके विषय में संक्षेप में उपरोक्त पैरा 3 और 4 में बतलाया गया है।
(5)           भगवान श्लोक 2/64, 65 में कहते हैं कि अपने अधीन किए हुए अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) वाला साधक अपने वश में की हुई राग-द्वेष से रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरता हुआ अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है और इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांति स्थिर हो जाती है।

 स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य संपूर्ण कामनाओं को त्यागकरममतारहितअहंकार रहित और स्पृहा रहित अर्थात् अपेक्षा रहित आचरण के साथ अपना जीवन यापन करते हुए शांति को प्राप्त होता है। स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे व्यवहार करता है या चलता है इसके विषय में संक्षेप में इस पैरा में बताया गया है।

     भगवान गीता के अध्याय के अंतिम श्लोक 72 में कहते हैं कि यह ब्रह्म को प्राप्त पुरुष की स्थिति हैइसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और अंत काल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर ब्राह्मानंद को प्राप्त हो जाता है। अतः हमें भगवान द्वारा गीता में बतलाए गए उपरोक्त उपायों द्वारा बुद्धि को स्थिर रखने का प्रयास करते रहना चाहिए यदि इसमें आंशिक सफलता भी हमने प्राप्त कर ली तब भी हम उस परमतत्व या आत्मतत्व को प्राप्त कर सकते हैं जिसके लिए हमें यह मनुष्य जन्म मिला है।

 

                              धन्यवाद

                           डॉ. बी. के. शर्मा