Thursday, July 9, 2020

कर्तापन के अभिमान का त्याग - 09-07-2020


 व्यवहारिक गीता ज्ञान               

भगवान गीता के मोक्ष सन्यास योग नामक अध्याय 18 के श्लोक 16 एवं 17 में कर्तापन का अभिमान और उसके त्याग के विषय में बतलाते हुए कहते हैं ।

    तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।

    पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।

परंतु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता मानता है वह मलिन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता।

यश्य नाह्रडकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।

   हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।

जिस पुरुष के अंतःकरण में “ मैं कर्ता हूं” ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होतीवह पुरुष इन सब लोकों  को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बंधता है ।

मनुष्य मनवाणी और शरीर द्वारा जो कुछ भी कर्म करता है उसके भगवान ने गीता में पाँच कारण, अधिष्ठान (शरीर)कर्ताकरण (इंद्रियाँ)नाना प्रकार की चेष्टाएँ और दैव (प्रारब्ध) बताए हैं । पाँच ज्ञानेंद्रियाँपाँच कर्मेंद्रियाँ और अंतःकरण (मनबुद्धिअहंकार) यह 13 करण (साधन) कर्म करने के लिए हैं। यह सभी करण प्रकृति का अंश है अर्थात जड़ हैं जबकि मनुष्य का वास्तविक स्वरूप (आत्मा) चेतन और परमात्मा का अंश हैअतः चेतन और जड़ पदार्थ दोनों ही भिन्न है । जीव अनंत काल से अनंत शरीरों में रहता आया है इसलिए अज्ञान के कारण उसने अपने आपको शरीर ही मान लिया है और इसी संबंध के कारण वह बंधन में पड़कर बार-बार जन्म मृत्यु के चक्र में पड़ गया है। गीता के श्लोक 3/27 में भगवान कहते हैं कि वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों (सत्वगुणरजोगुणतमोगुण) द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा हैऐसा अज्ञानी मैं कर्ता हूँ” ऐसा मानता है । और श्लोक 13/29 में भगवान कहते हैं कि जो पुरुष संपूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किए जाते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता हैवही यथार्थ देखता है।

हम देखते हैं कि मनुष्य मनबुद्धिचित्त और अहंकार जो उसका अंतःकरण है उसके द्वारा कर्तव्य (कर्म) का अनुमान करता हैजिसमें उसके अंतःकरण में संचित संस्कार और उसका स्वभाव और गुण का विशेष महत्व होता है। यदि उसे यह निश्चय होता है कि उस कर्तव्य का पालन सुख का कारण है तब वह अपनी सभी दस इंद्रियों को उस काम में नियुक्त कर देता है। और यदि उसे यह अनुभव होता है कि वह कर्तव्य दुख का कारण होगा तब वह तत्क्षण ही अपनी दसों इंद्रियों से उसका त्याग करने में लग जाता है। मनुष्य अपने समस्त कार्यों में इंद्रियों को यंत्रों की भांति लगाये रखता है और इसी कारण इन इंद्रियों को करण यानी साधन अथवा यंत्र नाम से कहा गया है। कर्ता इन करणों का उपयोग करके जो क्रियाएँ करता है उन क्रियाओं को ही कर्म कहते हैं। अब यदि कर्ता आसक्ति रखकरकामनाममता और फल की इच्छा रखकर कर्म करता है तब वह कर्मबंधन में पड़ जाता है और यदि निर्लिप्त और निष्काम भाव सेकर्तापन का अभिमान न रखते हुए, कर्म की सफलता या असफलता में समान भाव रखकरधैर्य और उत्साह के साथ कर्म करता है तब वह कर्म करते हुए कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है।

हमने देखा कि कर्म के होने में पाँच कारण है इसमें आत्मा या मनुष्य का वास्तविक स्वरूप का कर्मों के साथ कोई संबंध नहीं है इसलिए आत्मा को कर्ता मानना उचित नहीं है। कर्म का आरंभ और अंत होता हैपदार्थों की उत्पत्ति और विनाश होता है लेकिन आत्मा तो नाशरहितनित्यअजन्मासनातन और पुरातन एवं विकाररहित है। भगवान ने उपरोक्त श्लोक में कहा है कि जो मनुष्य आत्मा को कर्ता मानता है उसकी बुद्धि मलिन हैअशुद्ध है और वह अज्ञानी है। और जिस पुरुष के अंतःकरण में कर्म करते हुए भी कर्ता भाव नहीं है, वह जानता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा ही हो रहे हैं और उसका शरीर एवं इंद्रियाँ आदि भी प्रकृति का ही अंश है और वह स्वयं परमात्मा का अंश हैवह कर्म बंधन से मुक्त रहता है। इसके विपरीत जब मनुष्य प्रकृति द्वारा संपादित क्रियाओं में मिथ्या अभिमान करके स्वयं उन कर्मों का कर्ता बन जाता है तब वह कर्म, फल देने वाले बन जाते हैं क्योंकि मनुष्य ने अपना संबंध कर्म के साथ आसक्ति और अज्ञान के कारण जोड़ लिया है। इसलिए ऐसे प्रकृतिस्थ पुरुषों को अच्छी - बुरी योनियों में उसके द्वारा किए गए कर्म के आधार पर जन्म धारण करके उन कर्मों का फल भोगना पड़ता है । इसलिए पाँच कारण में से एक कर्ता है जो कि प्रकृति में स्थित पुरुष है। यदि वह निर्लिप्त और निष्काम भाव रखता है एवं आसक्ति और कामना से रहित है तब वह कर्म करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता और उसे उन कर्मों का फल भी नहीं भोगना पड़ता क्योंकि उसका लक्ष्य तो कर्मों को ईश्वर को अर्पण करके संसार के हित के लिए ही करना है, उसका अपना तो उनमें कोई स्वार्थ नहीं होता। इसके लिए कर्म योग के द्वारा अंतःकरण को शुद्ध करते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए। अंतःकरण जिसमें मनबुद्धिचित्त और अहंकार आते हैं वह जब शुद्ध हो जाते हैं अर्थात उसको ज्ञान हो जाता है तब उसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में लिप्त नहीं होती और वह निर्लिप्त भाव से अपने कर्तव्य कर्म लोक हित के लिए करता है। अतः हमें कर्म करते हुए कर्तापन का अभिमान नहीं रखना चाहिए कि मैं ही यह सब कर्म कर रहा हूँ। हमें यह दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर अपने उद्धार के लिए प्रयासरत रहना चाहिए यही हमारे जन्म का मुख्य उद्देश्य है।

   धन्यवाद

 डॉ. बी. के. शर्मा

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