Friday, December 25, 2020

गीता जयंती समारोह

 *ॐ*https://meet.google.com/tnu-sdqb-veu

श्री कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्

श्री सद्गुरु कृपा हि कैवलम्


श्री गीता जयंती समारोह

माध्यम भगवदनुग्रह

ओनलाईन गूगल मीटिंग सत्संगति

श्रीमद्भगवद्गीता स्वाध्याय समूह एवं हरिओम ऑनलाइन सत्संग समूह सहित सभी सतसंग समूहों द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता जयंती पर्व त्रिदिवसीय मनाया जा रहा है! 

पूज्य श्रद्धैय स्वामी सच्चिदानन्द सरस्वती जी महाराज आणंद गुजरात वालों की सांनिध्यता अध्यक्षता के साथ अनेकों संत महापुरुषों एवं विद्वतजनों की सांनिध्यता का एवं आर्शीवचन आशीर्वाद प्राप्त करने का सद्सौभाग्य प्राप्त होगा! 

कार्यक्रम का विवरण निम्न प्रकार हैं!

विशेष आमंत्रित महापुरुष संत----------------------------------

दिनाङ्क 27-12-2020.समय 9:00 pm to 9:30 pm

अनंत विभूषित श्रद्धैय पूज्यनीय महामण्डलेश्वर स्वामी श्री प्रणवानंद सरस्वती जी महाराज श्री धाम वृंदावन

---------------------------------------दिनाङ्क 26-12-2020 समय 8:30 pm to 9:00 pm

अनंत विभूषित श्रद्धैय पूज्यनीय महामंडलेश्वर स्वामी श्री अभयानंद सरस्वती जी महाराज लखनऊ 

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दिनाङ्क 25-12-2020

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समय:- रात्रि 8:00 से 8:30 तक 

पूज्य श्रद्धैय स्वामी सच्चिदानन्द सरस्वती जी महाराज(आणंद गुजरात)(गीता का हमारे जीवन में महत्व)

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8:30 से 9:00 तक पूज्य श्रृद्धैय आचार्य श्री सिद्धार्थ कृष्ण जी (ऋषिकेश उत्तराखंड)(कर्मयोग) 

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9:00 से 9:30 तक पूज्य श्रृद्धैय कार्ष्णि स्वामी रामानंद जी महाराज जी(गोवर्धन)

----------------------------------------9:30 से 10:00 तक पूज्य श्री भवर सिंह सारस्वत जी(गीता ज्ञानमंडल आगरा.अ.8.श्लोक.7)

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दिनाङ्क 26-12-2020

समय 8:00 से 8:30 तक

पूज्य श्रद्धैय स्वामी विष्णु वल्लभानन्द जी महाराज , पता - शंकर निकेतन, 54 /1 हजारी बाग, कनखल हरिद्वार - उत्तराखण्ड , पिन कोड - 249408 

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8:30 से 9:00 तक श्री गोविंद मोहन शर्मा जी गीता ज्ञान मंडल आगरा(अ.11/श्लोक. 55)

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9:00 से 9:30 तक पूज्य श्रृद्धैय स्वामी अखंण्डानंद जी महाराज आंध्रप्रदेश(आत्मसंयम योग) 

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9:30 से 10:00 पूज्य श्रृद्धैय आचार्य श्री सुधीर दिक्षित जी लखनऊ(अ.12.भक्तियोग)

----------------------------------------दिनाङ्क 27-12-2020

समय-8:00 से 8:30 पूज्य श्रृद्धैय स्वामी दयानंद सरस्वती महाराज जी गोविन्दमठ वाराणसी  (कर्मसन्यांसयोग अ.5.)

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8:30 से 9:00 पूज्य श्रृद्धैय स्वामी विश्वेश्वरानंद जी महाराज (कैलाश आश्रम ऋषिकेश उत्तराखंड अ.17/श्लोक.3)

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9:00 से 9:15 तक पूज्य डॉ.श्री बालकृष्ण शर्मा जी गाजियाबाद (अ.16.दैवासुरसम्पदा)

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9:15 से 9:30 तक पूज्य श्री सी. एल वर्मा जी आगरा(अ.12.भक्तियोग)

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9:30 से 9:45 तक श्री दिलीप देवनानी जी श्रीगीताज्ञानमंडल आगरा

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9:45 से पूज्य श्रद्धैय स्वामी सच्चिदानन्द सरस्वती जी महाराज आणंद गुजरात वालों के द्वारा आर्शीवचन आशीर्वाद एवं समापन संदेश आप सभी सद्भाग्यवान् सौभाग्यशाली श्रुतिपरायणाः भगवत्प्रेमी महानुभावों को परिवार एवं इष्टमित्रों सहित सादर आमंत्रण है! आप सभी गीता जयंती समारोह में उपस्थित होकर पुण्य के भागी बनें एवं सभी को लाभान्वित कराने की कृपा करें आपकी अति कृपा होगी! 

श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॐ 

चरण-सेवक दासानुदास कार्ष्णि धर्मेंद्र वर्मा उदासीन आगरा 

                              निवेदक 

                          आप और हम

विशेष निवेदन

प्रतिदिन सभी श्रुतिपरायणाः भगवत्प्रेमी श्रीमद्भगवद्गीता जी की आरती में अवश्य शामिल हो!

https://youtu.be/v-ybST_uP9s

श्रीमद्भगवद्गीता आरती के लिए लिंक पर क्लिक करें 👆

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https://anchor.fm/swami-sacchidananda-swami/episodes/PARIVRAJANAM--NAARADA-PARIVRAJAK-UPANISHAD-PROCLAIMS-THIS-SPIRITUAL-PROCESS-OF--TRAVELLING-ekmufv/WHY-SADHOO-TRAVELS-a3m5lou


Tuesday, December 22, 2020

इसीलिए किसी को उपदेश देने से पहले स्वयं वैसा आचरण करना जरुरी है - 20.12.2020

 

    अक्सर हम देखते हैं कि मनुष्य उन व्यक्तियों के आचरण का अनुसरण करता है जिन्हें वह धन, प्रतिष्ठा, राजनीति में उच्च स्थान, उच्च पद या व्यापार में अपने से श्रेष्ठ समझता है। वह वैसा ही बनना चाहता है। इसी प्रकार परिवार में भी प्रमुख व्यक्ति या मुखिया जैसा आचरण करता है, परिवार के अन्य सदस्य भी करीब-करीब वैसा ही आचरण करना सीख जाते हैं। गीता में भगवान कहते हैं कि ‘श्रेष्ठ पुरुष जैसा-जैसा आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाणित कर देता है, समस्त समुदाय उसी के अनुसार करने लग जाता है।’ यानी समाज को सुचारु रुप से मार्गदर्शन देने में श्रेष्ठ पुरुषों का बहुत बड़ा योगदान रहता है।

यदि उच्च पद पर आसीन एक प्रमुख अधिकारी समय पर कार्यालय आता है और देर तक बैठकर अपना कार्य पूरी ईमानदारी, मेहनत, तत्परता के साथ करता है तो उसे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को इन विषयों पर कुछ ज़्यादा कहने की आवश्यकता नहीं होगी। वे उसके आचरण और कार्यशैली को देखकर स्वयं ही उसके अनुसार ही कार्य करते रहेंगे। इसके विपरीत यदि वह स्वयं ही रिश्वत लेगा और कार्य में मेहनत नहीं करेगा, तब सभी कर्मचारियों का व्यवहार भी वैसा ही बनने लगेगा। यदि वह स्वयं को न बदलकर केवल भाषण या प्रमाण से दूसरों को बदलने का प्रयास भी करेगा, तब वह असफल ही रहेगा। इसी तरह से सभी क्षेत्रों में चाहें वह राजनीति का क्षेत्र हो, व्यपार का या पारमार्थिक क्षेत्र हो, यही नियम लागू होता है। आचरण का प्रभाव प्रमाण से बहुत ज्यादा होता है। इसलिए श्रेष्ठ पुरुषों को, चाहे वे किसी भी क्षेत्र में क्यों न हों, सबसे पहले अपने आचरण में ही सुधार लाना होगा। तब उसका प्रभाव उनके आचरण का अनुसरण करने वालों पर रहेगा।

    एक छोटा सा दृष्टांत है। एक बार एक महिला अपने पुत्र को लेकर अपने गुरुजी के पास गयी और बोली ‘महाराज, यह मिठाई बहुत खाता है और इसके कारण इसे कुछ रोग होने लगा है। आप इसे समझाकर इसकी इस आदत को छुड़वा दें।’ गुरूजी ने उसे पंद्रह दिन के बाद बुलाया। पंद्रह दिन बाद जब महिला आई तो गुरुजी ने उस बालक से कहा ‘बेटा मिठाई खाना छोड़ दो, यह तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।’ महिला ने कहा, ‘गुरुजी, यह बात तो आप पंद्रह दिन पहले भी कह सकते थे।’ तब गुरुजी ने कहा, ‘मैं स्वयं भी काफी मिठाई खाने का शौकीन था और इन पंद्रह दिनों में मैंने मिठाई खाना पूरी तरह से बंद कर दिया। अब मैं इसे मिठाई छोड़ने के लिए कह सकता हूँ। मैं स्वयं मिठाई खाऊँ और इसे मिठाई छोड़ने के लिए कहुँ, तब इस पर मेरी बातों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। पहले स्वयं का आचरण या व्यवहार ठीक करने के बाद ही मुझे इसे उपदेश देने का अधिकार है, अन्यथा सब व्यर्थ ही रहेगा।’

    गीता में भगवान कहते हैं, ‘मेरे लिए इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्म करता हूँ। कदाचित मैं कर्म म करुँ तो बड़ी हानि हो जाए, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।’ इसी प्रकार से विभिन्न क्षेत्रों में समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपना प्रत्येक कार्य बहुत ही सावधानी, पूरी ईमानदारी, तत्परता, निस्वार्थ भाव से, दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए करें। तब उनके आचरण को ध्यान में रखते हुए अन्य व्यक्ति उन्हें अपना आदर्श मान सकते हैं।

 

                                             धन्यवाद
                                          डॉ. बी. के. शर्मा

 

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 10 December 2020 को प्रकाशित हुआ है)

जो राग और द्वेष का गुलाम नहीं, वही सबसे ज्यादा सुखी है - 15.12.2020

    सभी मनुष्यों के अंदर राग और द्वेष कम या अधिक मात्रा में रहते हैं। अनुकूल परिस्थिति के आने पर हमें उसके साथ राग हो जाता है और हम चाहते हैं कि यह परिस्थिति हमेशा बनी रहे, कभी हमसे अलग न हो। इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर हमें उससे द्वेष होता है और हम चाहते हैं कि यह कभी न आए। लेकिन हम देखते हैं कि अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों का आना जाना हमारे वश में नहीं है। यह हमारे जीवन में समय-समय पर आती-जाती रहती है और हमें इसे झेलना ही पड़ता है। समय-समय पर परिस्थिति के कारण बदले रहते हैं। बचपन में जिन चीज़ों के साथ हमारा लगाव था, बड़े होने पर वह बदल गया और हमने औरों के साथ राग कर लिया। संसार के सब कुछ परिवर्तनशील है, अस्थाई है, इसलिए हमारे राग और द्वेष के संबंध भी बदलते रहते हैं।

    गीता में आता है कि ‘‘प्रत्येक इन्द्रिय में राग और द्वेष छिपे हुए हैं। मनुष्य को इन दोनों के वश में नहीं आना चाहिए, क्योंकि ये दोनों ही कल्याण के मार्ग में रुकावट डालने वाले महान शत्रु हैं।’’ उदाहरण के लिए हम अपने कान से उन बातों को सुनना ज्यादा पसंद करते हैं जिनमें हमें लगाव होता है। दूसरा पहलू यह है कि जिन बातों से हम द्वेष करते हैं, उन्हें सुनना भी पसंद नहीं करते हैं, चाहें वे हमारे हित में ही क्यों न हों। जब कोई व्यक्ति गलत रास्ते पर चलता हुआ गलत काम करता है तब अगर उसका कोई हितैषी उसके हित के लिए उसे समझाए, तो वह उसकी बातों को बिल्कुल भी सुनना नहीं चाहता। वह ऐसे शब्दों से और उस व्यक्ति के साथ भी द्वेष करने लग जाता है। इसी प्रकार से दूसरी इंद्रियों और उनसे संबंधित विषयों के साथ भी हमारा राग-द्वेष लगा रहता है। अपना कल्याण या हित चाहने वाले व्यक्ति को इन दोनों के काबू में नहीं आना चाहिए।

    गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है।’ इसलिए पहले द्वेष को छोड़ने के लिए हमें बताया है, फिर उसी के साथ जो हमारी अनेक वस्तुओं में राग या आसक्ति है उसकी इच्छा या संबंध से त्याग की बात आती है। अगर हम राग-द्वेष से परे होकर अर्थात निष्काम भाव से लोकहित या दूसरों की भलाई को ध्यान में रखते हुए कर्म करते हैं, तब ऐसा कर्मयोगी व्यक्ति सन्यासी ही है, यानी वह कर्मबन्धन से मुक्त रहता है। दूसरों के हित की दृष्टि से जब हम अपने कर्म करते हैं तब इससे हमारे मन और बुद्धि पवित्र होती है। हमसे फिर कोई बुरा कर्म हो ही नहीं पाता क्योंकि मन, बुद्धि शुद्ध होने पर हमें स्वयं ही ज्ञान की प्राप्ति होने लगती है।

इसलिए राग और द्वेष दोनों ही हमारे शत्रु हैं और हमारे बन्धन के कारण हैं। हमें यह विचार करना चाहिए कि हमारा राग किन वस्तुओं, व्यक्तियों और पदार्थों में है और हम किनसे द्वेष करते हैं और इनके क्या कारण हैं। ऐसा जानकर विवेक का सहारा लेकर मन और अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में रखने का प्रयास करते रहना चाहिए। इन्द्रियों का तो स्वभाव ही विषयों की तरफ भागना है। हमें ही उन्हें अपने नियंत्रण में रखते हुए निष्काम भाव से कर्म करना होगा, इसी में हमारा हित है।

                                       धन्यवाद                                               डॉ. बी. के. शर्मा


(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 25 नवंबर 2020 को प्रकाशित हुआ है)

Thursday, December 10, 2020

उत्तम सुख आरंभ काल में विष की तरह लेकिन परिणाम में अमृत की तरह होता है - 12.10.2020

     आजकल हम देखते हैं कि अधिकांश मनुष्य सांसारिक भोग विलास को ही सच्चा सुख समझकर भौतिक उन्नति की चेष्टा में लगे रहते हैं। अनैतिक या शास्त्र विरुद्ध तरीकों का इस्तेमाल करते हुए ज्यादा से ज्यादा धन एकत्र करते हुए सुख की प्राप्ति करना ही वह जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझते हैं। लेकिन वह यह नहीं जानते कि विषय इंद्रिय संयोग जनित भौतिक सुख नाशवान, क्षणिक तथा परिणाम में दुख स्वरूप है ।

गीता में तीन तरह के सुख के विषय में आता है। उत्तम या सात्विक सुख में मनुष्य भजन, ध्यान और दूसरों की सेवा या उनके हित के लिए कार्य करता है और जिससे दुखों के अंत को प्राप्त हो जाता है - ऐसा जो सुख है वह आरंभ काल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है। उदाहरण के लिए जब मनुष्य निष्काम भाव से अपना कर्तव्य कर्म लोकहित या दूसरों का हित को ध्यान में रखते हुए करता है तब आरंभ काल में तो उसे यह सब अच्छा नहीं लगता लेकिन परिणाम स्वरूप उसे एक प्रकार की शांति का अनुभव होता है और इससे उसका अंतःकरण अर्थात मन और बुद्धि आदि भी शुद्ध और पवित्र होते रहते हैं। इसी प्रकार एक विद्यार्थी को बाल्यकाल में विद्या का अध्ययन करने पर कष्ट का अनुभव होता है या किसी परीक्षा को उत्तीर्ण करने के लिए बहुत ही मेहनत करनी होती है अर्थात आरंभ में तो उसे यह सब विष की तरह लगता है लेकिन उसकी मेहनत का परिणाम उसके हित में ही होता है। अतः सात्विक पुरुष कार्य के आरंभ करने से पूर्व ही उसके परिणाम के विषय में विचार करते हैं कि वह उसके एवं दूसरों के हित में होगा या उससे कोई आहित भी हो सकता है। दूसरे प्रकार का राजस सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है वह पहले भोग काल में अमृत के समान होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है। जब मनुष्य अपने मन में आने वाली इच्छा या कामना की पूर्ति के लिए बिना उसके परिणाम पर विचार करके कार्य करता है। जैसे अनैतिक तरीके से धन का संग्रह करते हुए उसका भोग करते हुए अच्छा लगता है लेकिन कुछ समय के पश्चात ऐसा मनुष्य सरकारी कानूनों में फंसकर कष्ट भोगता है। इसी प्रकार कोई मनुष्य अधिक मदिरापान या दूसरे नशे करते हुए शुरू में तो सुख का अनुभव करता है लेकिन परिणाम स्वरुप अनेकों रोगों से ग्रसित हो जाता है। कभी-कभी मनुष्य अपने आहार में ऐसे पदार्थों का सेवन करते हुए सुख का अनुभव करता है जो कि कुछ समय के पश्चात उसके स्वास्थ्य पर विपरीत असर डाल देते हैं अतः उनका परिणाम ठीक नहीं होता। इस प्रकार के सभी सुख जो मनुष्य को भोगते हुए तो अच्छे लगते हैं लेकिन परिणाम में दुख देते हैं, मध्यम श्रेणी के या राजस सुख के अंतर्गत आते हैं। अतः मनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा जो भी विषयों का भोग करता है उनके परिणाम पर उसे भोग करने से पूर्व ही उनपर भली-भांति विचार करना चाहिए। लेकिन आधुनिक समय में अधिकांश मनुष्य केवल वर्तमान में क्षणिक सुख  का ही आनंद लेना चाहते हैं कुछ समय के पश्चात इसके परिणामस्वरूप क्या कष्ट होगा इसका विचार उचित समय पर नहीं करते।

तीसरे प्रकार का सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी मनुष्य को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख  तामस या निम्न श्रेणी का कहा गया है। हम देखते हैं कि कुछ मनुष्य आलस्य के कारण अपना कर्तव्य कर्म टालते रहते हैं और उस आलस्य रुपी सुख का अज्ञान के कारण भोग करने में आनंद लेते हैं। कभी-कभी ऐसे व्यक्ति अपना कर्तव्य कर्म को टालते हुए अपना मन बहलाने के लिए व्यर्थ की क्रियाओं जैसे ताश खेलना या कंप्यूटर पर गेम खेलते रहना, गपशप करते रहना आदि में अपना समय व्यतीत करते हुए सुख का अनुभव करते हैं, जबकि उनका अपना जीविका संबंधी कार्य या नियत कार्य टलता रहता है। सरकार के किसी-किसी विभाग में कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो आलस या प्रमाद का सुख लेते हुए अपना नियत कार्य को टालते रहते हैं कि बाद में कर लेंगे । ऐसा सुख अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है और अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। ऐसे मनुष्यों को यह ज्ञान ही नहीं होता कि हमारे पास एक निश्चित समय है उसको या चो हम आलस्य में समाप्त करते हुए अपना मनुष्य जीवन व्यर्थ कर लें या अपना नियत कर्म ठीक समय पर दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए स्वयं भी आनंद की प्राप्ति करें और दूसरों को भी सुख पहुँचाएँ।

अतः हमें उपरोक्त तीनों प्रकार के सुखों पर भली-भांति विचार करते हुए अपने अंदर भी देखना चाहिए कि हमें कौन सा सुख अच्छा लगता है और कौन सा सुख हमारे हित में है । 

 

डॉ. बी. के. शर्मा
सेवानिवृत्त, निदेशक (योजना)
दिल्ली सरकार

Friday, November 20, 2020

सामर्थ्य से ज्यादा की कामना पाप के रास्ते पर ले जाती है - 20.11.202

 

मनुष्य अपने जीवन में जाने या अनजाने या अकारण कुछ अच्चे और कुछ बुरे कर्म कर देता है। इसी का परिणाम है कि वह सुखी-दुखी होता रहता है। जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियां या दुख आने पर मनुष्य कभी-कभी दूसरों को दोषी मानता है, जबकि यह सब पूर्व में किए गए उसी के कर्मों का ही परिणाम है। कोई अन्य इसके लिए उत्तरदायी नहीं है। मनुष्यों के कर्मों का अच्छा-बुरा या मिला हुआ, ऐसे तीन प्रकार के फल उसे अवश्य ही मिलते हैं। यह कर्मों का ही फल है कि कोई अपने जीवन में निर्धन से धनवान हो जाता है और कोई धनवान से निर्धन हो जाता है।

अब प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य यह जानता है कि बुरे कर्म का फल उसे बुरा ही मिलेगा, तब वह बुरे कर्म करता ही क्यों है? गीता का उपदेश सुनते हुए अर्जुन के मन में भी ऐसी ही जिज्ञासा उत्पन्न हो गई और उसने भगवान से पूछा हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है अर्थात मनुष्य के अंदर ऐसा कौन है जो उसके न चाहने पर भी उसे बलपूर्वक खींचकर पापकर्म में लगा देता है। और वह स्वयं भी उसमें लग जाता है। इसके उत्तर में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला, यानी भोगों से कभी संतुष्ट न होने वाला और बड़ा पापी है इसे ही तू इस विषय में बैरी जान।

ऐसी कामना जो मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर की है, उसे पूरा करने के लिए मनुष्य रिश्वत लेता है, व्यपार में बेईमानी करता है, दूसरों को धोखा देता है। अगर कोई कामना पूर्ति में बाधा डालता है तब वह उसकी हत्या तक कर डालता है और न जाने कितने गलत तरीकों को अपनाकर जीवन भर बस अपनी कामनाओं की पूर्ति में लगा रहता है। हम जानते हैं कि कामनाओं का कभी अंत ही नहीं होता। एक के पूरा हो जाने के बाद तुरन्त दूसरी कामना पैदा हो जाती है, फिर मनुष्य उसकी पूर्ति में लग जाता है। यही क्रम जीवन भर चलता रहता है। यदि कभी कामना पूरी न हो, तब मनुष्य को क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव आता है और मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम होता है। उसके परिणाम स्वरुप मनुष्य की बुद्धि और विवेक का नाश हो जाता है और कामना की पूर्ति करने के लिए वह पाप का आचरण करने लग जाता है। इसके पश्चात वह कामनाओं के चक्रव्यूह में ऐसा फंस जाता है कि उससे बाहर ही नहीं निकल पाता और पाप के रास्ते पर चलने के कारण अपने आप को अधोगति में डाल देता है।

रामचरितमानस में काम, क्रोध, मद और लोभ को नरक का रास्ता बताया है। शंकरार्चाय द्वारा रचित भजगोविन्दम में भी आता है कि काम, क्रोध, मोह को छोड़कर स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ। सत्यता के पथ का अनुसरण करो। अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो।

इसलिए मनुष्य को शरीर के नाश होने से पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने का सतत् अभ्यास करते रहना चाहिए। इससे उसका वर्तमान जीवन भी सुधर जाएगा। यह अभ्यास पाप या बुरे कर्मों से भी दूर होकर अपनी आत्मा को उन्नति के मार्ग पर ले जाएगा, जो मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य भी है।

 

    धन्यवाद

डॉ. बी. के. शर्मा
सेवानिवृत्त, निदेशक (योजना)
दिल्ली सरकार

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 10 नवंबर 2020 को प्रकाशित हुआ है)

Friday, October 16, 2020

जैसा खाएंगे अन्न वैसा रहेगा मन, जानिए क्यों होता है ऐसा? - दिनांक- 16.10.2020

     आहार का सभी प्राणियों के जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान हैहम जैसा आहार लेते हैं उसका वैसा ही प्रभाव हमारे मन और बुद्धि पर पड़ता है। उपनिषद में आता है ‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः’, यानी हमारा आहार शुद्ध होगा, तो हमारा अंतःकरण भी शुद्ध होगी। अंतःकरण के अनुरूप ही हमारे विचार होते हैं, बुद्धि होती हैकार्य होते हैं और अंत में हम स्वयं भी वैसे ही बन जाते हैं। एक प्रसिद्ध कहावत भी है, जैसा खाए अन्न, वैसा हो जाए मन। लेकिन आज के आधुनिक एवं व्यस्त समय में अक्सर हम आहार लेने से पहले उसके गुण दोष पर विचार ही नहीं करते, और इसके चलते हम किसी न किसी रोग से भी ग्रसित हो जाते हैं।

गीता में तीन तरह के आहार के विषय में बताया गया है। पहला, जो सात्विक या श्रेष्ठ पुरुष को प्रिय होता है। यह वैसा आहार है जो आयुबुद्धिबलआरोग्यसुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसों से युक्त होता है। ये आहार मन को प्रिय होता है। दूसरा, जो राजस या मध्यम पुरुष को प्रिय होता हैजैसे कड़वेखट्टेलवणयुक्तबहुत गर्मतीखेरूखेदाहकारक। ऐसे आहार चिंता और रोगों को उत्पन्न करने वाले होते हैं। तीसरा, तामसिक आहार जो अधपकारसरहितदुर्गंधयुक्तबासी और उच्छिष्ट है। यह अपवित्र माना जाता है।

भोजन के विषय में विचार करने पर हम पाएंगे कि सात्विक पुरुष खाने से पहले भोजन के पदार्थों के विषय में भली-भांति विचार करता हैं कि ऐसा भोजन लेना चाहिए जिससे मेरी आयु और बल बढ़े, वह रोगी न बन जाए। बुद्धि सात्विक बने। राजस पुरुष कड़वेखट्टेतीखेदाहकारक पदार्थ वाले भोजन को पहले ग्रहण करता है, उसके बाद वह विचार करता है कि इस भोजन से रोग उत्पन्न हो रहे हैंचिंता और दुख बढ़ रहे हैं। लेकिन तामस पुरुष न तो भोजन लेने से पहले सोचता है और न ही बाद में उसके गुण-दोष पर विचार करता है बस उसकी दृष्टि केवल भोजन पर ही रहती है। तामसिक पदार्थ लेने के कारण उसके अंदर आलस्य, निद्रा का बढ़नाहिंसाकर्मों में मन का न लगना आदि अवगुण बढ़ते जाते हैं। सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से लोभ और तमोगुण से प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं।

गीता में आता है कि दुखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहारविहार करने वाले काकर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। यानी कि हमें न तो ज्यादा और न कम अर्थात अपने शरीर और आयु के अनुसार भोजन करना चाहिए। ऊपर बतायी गयी पांच चीजों, जिसमें सर्वप्रथम आहार का वर्णन आता है, ग्रहण करना चाहिए। उसके पश्चात  विहार (घूमनायोग आदि)कर्तव्य-कर्मसोना और जागना शामिल है, पर उचित ध्यान देना चाहिए।

सभी प्राणियों में मनुष्य जन्म ही विवेक प्रधान है। वह उचितअनुचितनित्यअनित्य आदि का निर्णय ले सकता है। इसलिए अंतःकरण (मन और बुद्धि) की शुद्धि के लिए और शरीर को निरोग बनाए रखने के लिए मनुष्य को भोजन में शामिल पदार्थों को ग्रहण करने से पहले उनके गुण-दोष का भली-भांति विचार कर लेना चाहिए। सात्विक भोजन से हमारा मन और बुद्धि भी पवित्र रहेंगेउचित चिंतन भी होता रहेगा और शरीर निरोग रहने के कारण हमारी कार्य क्षमता भी यथावत बनी रहेगी। 

 धन्यवाद
                           डॉ. बी. के. शर्मा

 

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत
15 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित हुआ है)

Saturday, October 10, 2020

अपने गुणों को पहचान कर उन्हें बेहतर बना सकते हैं - दिनांक- 10.10.2020

    मनुष्यों का स्वभाव, व्यवहार और व्यक्तित्व अलग-अलग होता है। यह प्रकृति की त्रिगुणात्मक माया से उत्पन्न सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से प्रभावित होता है। जिस मनुष्य में जिस गुण की अधिकता होती है उसका वैसा ही स्वभाव, व्यवहार और कार्य करने का तरीका होता है। इसलिए संसार में अच्छे, बुरे, शांत या हिंसात्मक प्रवृत्ति के मनुष्य अपने-अपने गुणों के आधार पर होते हैं। भगवान ने गीता में कहा है कि कोई ऐसा प्राणी नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।

    मनुष्य अपने अंदर के गुणों का कैसे विश्लेषण करे और एक गुण को दबाकर दूसरे गुण को कैसे बढ़ाए कि उसका स्वभाव या व्यवहार अच्छा बन जाए, इसके लिए सभी गुण उसके चित्त से ही संबंध रखते हैं। एक ही माता-पिता की संतान का एक से ही वातावरण में पालन-पोषण होने पर भी उनके स्वभाव या व्यक्तित्व अलग-अलग प्रकार के होते हैं। लेकिन मनुष्य अपने स्वभाव में परिर्वतन करके उसे अच्छा या बुरा बनाने में सक्षम हो सकता है। इसके लिए उसे अपने अंदर मौजूद गुणों का अवलोकन स्वयं ही करना पड़ेगा।

    श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित्त है। इन्हीं गुणों के कारण जीव शरीर या धन आदि में आसक्त होकर बन्धन में पड़ जाता है। सत्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर बढ़ता है, उस समय मनुष्य सुख, धर्म और ज्ञान आदि का भाजन हो जाता है। रजोगुण भेदबुद्धि का कारण है उसका स्वभाव है आसक्ति। जिस समय तमोगुण और सत्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है उस समय मनुष्य दुख, कर्म, यश और लक्ष्मी से संपन्न होता है। तमोगुण का स्वरुप है अज्ञान, उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है तब मनुष्य तरह-तरह की आशाएँ करता है, शोक-मोह में पड़ जाता है, हिंसा करने लग जाता है या फिर निद्रा, आलस्य के वशीभूत होकर पड़ा रहता है।

    जब चित्त प्रसन्न हो, इन्द्रियाँ शान्त हों, देह निर्भय हो और मन में आसक्ति न हो तब सत्वगुण की वृद्धि समझनी चाहिए। सत्वगुण भगवान की प्राप्ति का साधन है। जब काम करते-करते जीव की बुद्धि चंचल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियाँ विकारयुक्त, मन भ्रांत और शरीर अस्वस्थ हो तब समझना चाहिए कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है। जब चित्त ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से इसके पाँचों विषयों गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द को ठीक-ठीक समझने में असमर्थ हो जाये और अज्ञान, विषाद की वृद्धि हो तब समझना चाहिए कि तमोगुण वृद्धि पर है।

    इसलिए हमें अपने अंदर मौजूद सभी अच्छे गुणों को पहचानकर अपनी बुद्धि और विवेक से अपने मन को निरंतर अभ्यास से नियंत्रण में रखते हुए पहले तमोगुण को दबाकर रजोगुण की वृद्धि और फिर रजोगुण को भी कम करके सत्वगुण की वृद्धि करना चाहिए ताकि हम अपने व्यक्तित्व, स्वभाव और दैनिक व्यवहार में निरंतर परिवर्तन ला सकें। लेकिन यह सब हमें स्वयं के ही प्रयास से करना पड़ेगा। इससे हमारा दूसरों के साथ व्यवहार भी अच्छा हो जायेगा और हम भी एक सुखी एवं प्रसन्नचित्त जीवन का आन्नद प्राप्त कर सकेगें।   

                                                                                        धन्यवाद
                           डॉ. बी. के. शर्मा

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 28 सितम्बर 2020 को प्रकाशित हुआ है)

Wednesday, September 30, 2020

अध्यात्म क्या है? - दिनांक- 30.09.2020

 व्यवहारिक गीता ज्ञान

परमात्मा, जीव, प्रकृति और संसार इन प्रश्नों पर अधिकांश मनुष्य समय - समय पर अपने जीवन में विचार करते रहते हैं। इनका आपस में क्या संबंध है इस पर भी सभी के मन में स्वाभाविक रूप से विचार आते रहते हैं क्योंकि केवल मनुष्य योनि ही विवेक प्रधान है और वह इन सबके विषय में जानने का सतत् प्रयास करता रहता है। परमात्मा का शुद्ध अंश ही आत्मा है, लेकिन वह अविद्या (अज्ञान) के कारण प्रकृति और उसके कार्यों के साथ अपना संबंध कर लेने के कारण ही जीव बन जाता है और स्वरूप से मुक्त होते हुए भी, बंधन में पड़ जाता है।

गीता के श्लोक 13/21 में भगवान कहते हैं-

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भूक्तङे प्रकृतिजान्गुणान।
कारणं गुणसग्ङोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।

प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।

प्रकृति और पुरुष दोनों ही अनादि हैं। इनमें पुरुष तो अनादि और अनन्त है तथा प्रकृति अनादि और सान्त है। पुरुष सर्वव्यापी, चेतन, नित्य तथा आन्नदस्वरुप है और प्रकृति विकारवाली होने के कारण जड़, अनित्य और दुखरूप है। यह समस्त जड़वर्ग संसार प्रकृति का ही विकार है। जब पुरुष (आत्मा) अज्ञान के कारण प्रकृति में स्थित हो जाता है अर्थात अपने आपको शरीरमनबुद्धि आदि मान लेता है तब वह त्रिगुणात्मक प्रकृति के साथ संबंध रखने के कारण सुख-दुख एवं जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ जाता है। इस सुख-दुख की निवृत्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक इस चेतन आत्मा का शरीर के साथ अज्ञानजन्य संबंध नहीं छूट जाता। ज्ञान हो जाने के पश्चात मनुष्य का प्रकृति से संबंध छूट जाता है और वह अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर उस में स्थित हो जाता है। अर्थात प्रकृति और उसके कार्यों में संबंधित आत्मा ही जीवात्मा है, और प्रकृति के साथ संबंध हो जाने के कारणआना-जाना सा प्रतीत होता रहता है।

पांच महाभूत पृथ्वीजलअग्निवायु और आकाश जिनसे हमारा  स्थूल शरीर बना है और मनबुद्धिअहंकार  अर्थात हमारा अंतःकरण इन आठों को भगवान ने अपरा या जड़ प्रकृति कहा है और दूसरी को जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति कहा है। अर्थात चेतन और जड़ या पुरुष और प्रकृति दोनों ही भिन्न है। जब चेतन स्वयं ही जड़ के साथ संबंध बनाकर बंधन में पड़ता है तब ज्ञान के कारण उसे स्वयं ही अपने आपको जड़ से अलग जानना होगा और मुक्त हो जाएगा।

भगवान ने गीता के श्लोक 7/26 में अर्जुन से कहा कि पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूंपरंतु मुझको कोई भी श्रद्धा – भक्ति रहित पुरुष नहीं जानता।” और श्लोक 29-30 में भगवान कहते हैं कि जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैंवे पुरुष उस ब्रह्म कोसंपूर्ण अध्यात्म कोसंपूर्ण कर्म को जानते हैं। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अंतकाल में भी जानते हैं वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं।” इस प्रकार भगवान के समग्र रूप को जानकर अर्जुन ने भगवान से आठवें अध्याय के प्रथम दो श्लोकों में जो सात प्रश्न पूछे उनमें एक प्रश्न है किमध्यात्मं” अर्थात अध्यात्म क्या है?

इस प्रश्न के उत्तर में भगवान अध्यात्म के विषय में कहते हैं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते अर्थात अपना स्वरूप या जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जाता है। अर्थात अपने स्वरूप को जानना ही अध्यात्म है। इस प्रकार जो मनुष्य अपने स्वरूप को जानता है और सब कार्य करते हुए भी अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है वही अध्यात्मिक मनुष्य है। शास्त्रों का अध्ययन या उनका श्रवण ही पर्याप्त नहीं हैबल्कि उनके द्वारा सत और असत वस्तु का विवेक हो जाना आवश्यक है। जीवात्मा परमात्मा से भिन्न नहीं हैवह तो परमात्मा का ही अंश है। भगवान गीता के श्लोक 15/में कहते हैं-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है। मानस में भी आता है - ईश्वर अंश जीव अविनाशीचेतनअमलसहजसुखराशि

गीता के श्लोक 10/20 में भगवान कहते हैं कि मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।’’ सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ जीवनं सर्वभूतेषु” अर्थात मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मनियों के सदृश्य मुझमें गुँथा हुआ है ऐसा भगवान ने श्लोक 7/में कहा है। यह सब जानना ही अध्यात्म है कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। सृष्टि का आदि और अंत तथा मध्य भी परमात्मा ही है। जीव अज्ञान के कारण और शरीर के साथ संबंध रखने के कारण ही शरीर की उत्पत्ति और विनाश में आत्मा का जन्मना-मरना मानता है। भगवान ने गीता के श्लोक 15में कहा है-

शरीरं यदवाप्रोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्र्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।

वायु गंध  के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता हैवैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता हैउससे इन मनसहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस  शरीर को प्राप्त होता है-उसमें जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध में भी श्री शुकदेव जी राजा परीक्षित से कहते हैं कि ‘‘जो गृहस्थ घर के काम धंधों में उलझे हुए हैंअपने स्वरूप को नहीं जानतेउनके लिए हजारों बातें कहने सुनने एवं सोचनेकरने की रहती है। उनकी सारी उम्र यूं ही बीत जाती है। उनकी रात नींद आदि में कटती है। और दिन धन की हाय हाय या कुटिम्बियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है। संसार में जिन्हें अपना अत्यंत घनिष्ठ संबंधी कहा जाता है वे शरीरपुत्रस्त्री आदि कुछ नहीं हैअसत हैपरंतु जीव उनके मोह में ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं। जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है उसे तो सर्वात्मासर्वशक्तिमान भगवान श्री कृष्ण की ही लीलाओं का श्रवणकीर्तन और स्मरण करना चाहिए। मनुष्य जन्म का यही - इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो - ज्ञान सेभक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाए की मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे।

कठोपनिषद के द्वितीय अध्याय के तृतीय वल्ली के मंत्र चार में यमराज नचिकेता से कहते हैं कि यदि शरीर का पतन होने से पहले पहले इस मनुष्य शरीर में ही साधक यदि परमात्मा को साक्षात कर सका तब तो ठीक हैनहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है। मुंडकोपनिषद के तृतीय मुंडक के प्रथम खंड के मंत्र 10 में आता है कि विशुद्ध अंतःकरण वाला मनुष्य जिस लोक को मन से चिंतन करता है तथा जिन भोगों की कामना करता है उन-उन लोकों को जीत लेता है और उन भोगों को भी प्राप्त कर लेता है, इसलिए ऐश्वर्य की कामना वाला मनुष्य शरीर से भिन्न आत्मा को जानने वाले महात्मा की सेवा पूजा करे।’’

क्योंकि विशुद्ध अंतःकरणयुक्त विवेकी पुरुष अपने लिए और दूसरों के लिए भी जो-जो कामना करते हैं वह पूर्ण हो जाती है।

भगवान द्वारा दिए गए गीता का उपदेश पूरा हो जाने पर अर्जुन के द्वारा कहे गए अंतिम श्लोक 18/73 में अर्जुन ने कहा कि ‘‘हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूं अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।’’ अर्थात गीता का उपदेश सुनने के पश्चात् अर्जुन को अपने स्वरूप की स्मृति हो गई जिसको वह मोह के कारण युद्ध के प्रारंभ में विस्मृत कर चुका था। यही स्थिति हमारी भी है हम भी अपने स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं क्योंकि अनन्त जन्मों के अनेकों शरीरों में रहते चले आ रहे हैं और अपने को शरीर ही मानने लगे हैं इसी के साथ-साथ अपना भी जन्म और मृत्यु मानते हैं। जबकि हमारा वास्तविक स्वरूप परमात्मा का अंश हैं और सच्चिदानन्द स्वरूप है। इन समस्त जड़ पदार्थों से हमारा कोई संबंध नहीं है। हमारा शरीर माता के गर्भ में बना है, पृथ्वी पर हमारा शरीर घूमता-फिरता है और अंत में पृथ्वी पर ही हमारा यह शरीर लीन हो जाता है। हम इस शरीर से पहले भी थे और इस शरीर के समाप्त होने के बाद भी हम समाप्त नहीं होंगे जब तक हम मुक्त होकर परमात्मा में लीन नहीं हो जाते। अतः हमें अध्यात्म अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास करना चाहिए जिससे हमारा जीव भाव या अज्ञान का नाश हो जाए और हम भावी आवागमन के चक्र से छूट जायें। 

धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा