Tuesday, December 22, 2020

जो राग और द्वेष का गुलाम नहीं, वही सबसे ज्यादा सुखी है - 15.12.2020

    सभी मनुष्यों के अंदर राग और द्वेष कम या अधिक मात्रा में रहते हैं। अनुकूल परिस्थिति के आने पर हमें उसके साथ राग हो जाता है और हम चाहते हैं कि यह परिस्थिति हमेशा बनी रहे, कभी हमसे अलग न हो। इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर हमें उससे द्वेष होता है और हम चाहते हैं कि यह कभी न आए। लेकिन हम देखते हैं कि अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों का आना जाना हमारे वश में नहीं है। यह हमारे जीवन में समय-समय पर आती-जाती रहती है और हमें इसे झेलना ही पड़ता है। समय-समय पर परिस्थिति के कारण बदले रहते हैं। बचपन में जिन चीज़ों के साथ हमारा लगाव था, बड़े होने पर वह बदल गया और हमने औरों के साथ राग कर लिया। संसार के सब कुछ परिवर्तनशील है, अस्थाई है, इसलिए हमारे राग और द्वेष के संबंध भी बदलते रहते हैं।

    गीता में आता है कि ‘‘प्रत्येक इन्द्रिय में राग और द्वेष छिपे हुए हैं। मनुष्य को इन दोनों के वश में नहीं आना चाहिए, क्योंकि ये दोनों ही कल्याण के मार्ग में रुकावट डालने वाले महान शत्रु हैं।’’ उदाहरण के लिए हम अपने कान से उन बातों को सुनना ज्यादा पसंद करते हैं जिनमें हमें लगाव होता है। दूसरा पहलू यह है कि जिन बातों से हम द्वेष करते हैं, उन्हें सुनना भी पसंद नहीं करते हैं, चाहें वे हमारे हित में ही क्यों न हों। जब कोई व्यक्ति गलत रास्ते पर चलता हुआ गलत काम करता है तब अगर उसका कोई हितैषी उसके हित के लिए उसे समझाए, तो वह उसकी बातों को बिल्कुल भी सुनना नहीं चाहता। वह ऐसे शब्दों से और उस व्यक्ति के साथ भी द्वेष करने लग जाता है। इसी प्रकार से दूसरी इंद्रियों और उनसे संबंधित विषयों के साथ भी हमारा राग-द्वेष लगा रहता है। अपना कल्याण या हित चाहने वाले व्यक्ति को इन दोनों के काबू में नहीं आना चाहिए।

    गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है।’ इसलिए पहले द्वेष को छोड़ने के लिए हमें बताया है, फिर उसी के साथ जो हमारी अनेक वस्तुओं में राग या आसक्ति है उसकी इच्छा या संबंध से त्याग की बात आती है। अगर हम राग-द्वेष से परे होकर अर्थात निष्काम भाव से लोकहित या दूसरों की भलाई को ध्यान में रखते हुए कर्म करते हैं, तब ऐसा कर्मयोगी व्यक्ति सन्यासी ही है, यानी वह कर्मबन्धन से मुक्त रहता है। दूसरों के हित की दृष्टि से जब हम अपने कर्म करते हैं तब इससे हमारे मन और बुद्धि पवित्र होती है। हमसे फिर कोई बुरा कर्म हो ही नहीं पाता क्योंकि मन, बुद्धि शुद्ध होने पर हमें स्वयं ही ज्ञान की प्राप्ति होने लगती है।

इसलिए राग और द्वेष दोनों ही हमारे शत्रु हैं और हमारे बन्धन के कारण हैं। हमें यह विचार करना चाहिए कि हमारा राग किन वस्तुओं, व्यक्तियों और पदार्थों में है और हम किनसे द्वेष करते हैं और इनके क्या कारण हैं। ऐसा जानकर विवेक का सहारा लेकर मन और अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में रखने का प्रयास करते रहना चाहिए। इन्द्रियों का तो स्वभाव ही विषयों की तरफ भागना है। हमें ही उन्हें अपने नियंत्रण में रखते हुए निष्काम भाव से कर्म करना होगा, इसी में हमारा हित है।

                                       धन्यवाद                                               डॉ. बी. के. शर्मा


(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 25 नवंबर 2020 को प्रकाशित हुआ है)

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