आत्मतत्व
मनुष्य जीवन का
उद्देश्य केवल सुख सुविधाओं को प्राप्त करने हेतु कर्म करना, और उनका भोग करना
नहीं है, वस्तुतः इस सबसे
उपर उठकर अपने आपको जानना है। अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा को जानना ही अध्यात्म
है। भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग एवं कर्म मार्ग में से हम किसी एक
का अनुसरण करें या फिर तीनों का ही, उद्देश्य केवल एक ही उस परमसत्ता को जानना होना चाहिए, जिसके जानने के
बाद और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। इसी के लिए ही देवता भी मनुष्य शरीर धारण करके
इस पृथ्वी लोक पर आना चाहते हैं चॅूकि वह भी केवल भोग योनि का ही आनन्द ले रहें
हैं, इस मनुष्य शरीर के द्धारा वह भी निष्काम भाव, पूर्ण समर्पण एवं
भक्ति भाव से कर्म करके, इस जन्म-मरण के
चक्र से छुटना चाहते हैं। अतः विचार कीजिये कि जिस शरीर को सभी देवता धारण करना
चाहते हैं उसको प्राप्त करने के पश्चात् भी क्या हम इसे यों ही व्यर्थ होने देगें
। फिर यह शरीर दुबारा कब मिलेगा या नहीं मिलेगा इसके विषय में हम कुछ भी निश्चित
रूप से नहीं कह सकते, अतः अभी भी समय है, इस मनुष्य शरीर
में रहते हुए ही हम उस आत्मतत्व को जानने का प्रयास करें जो कि हमारा एक प्रमुख उद्देश्य
है। गीता में भगवान कहते हैं “अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः”
अर्थात् सभी भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा मैं ही
हॅू। अतः पमामात्मा को जानने के लिए हमें कहीं बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है केवल अंर्तमुखी होना पड़ेगा। बाहर के
पदार्थो से, भोग बिलास, एवं इंद्रिय सुख
से थोड़ा हटकर अपने मन को अपने स्वरूप में स्थित करना पड़ेगा।
वेदों में सुख के
दो साधन बताये गये हैं - (1)
श्रेय अर्थात्
सदा के लिए सब प्रकार के दुःखों से सर्वथा छूटकर नित्य आनन्दस्वरूप परब्रह्म
परमेश्वर को प्राप्त करने का उपाय और (2) प्रेय अर्थात् स्त्री,पुत्र,धन,मकान,सम्मान यश आदि
जितनी भी सुखभोग की सामिग्रीयां हैं उनकी
प्राप्ति का उपाय। अधिकतर मनुष्य यह समझकर की भोगों में प्रत्यक्ष एवं तत्काल सुख
मिलता है और यही हमारा उद्देश्य है, पर उसका परिणाम सोचे समझे बिना ही प्रेय की ओर खिंच जाते
हैं। परन्तु कोई-कोई भाग्यवान मनुष्य यह चिंतन करते हैं कि मेरा इस संसार में आने
का क्या उद्देश्य है, मैं कौन हॅू मेरा
वास्तविक स्वरूप क्या है,
तब वह ईश्वर की
कृपा से श्रेय को अपना लेते हैं और उसके साधन में लग जाते हैं, तब ही उनका
कल्याण होता है। वह सदा के लिए सब प्रकार के दुःखो से छूटकर अनन्त असीम आनन्द
स्वरूप परमात्मा को पा लेता है। परन्तु इसके विपरीत जो सांसारिक सुखो के साधनों
में ही अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं तब जीवन के अंतिम समय में उन्हें कभी-कभी यह
आभास होता है कि हमने मानव जीवन के परम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्तिरूप कोई साधन
नहीं किया और हम अपने मनुष्य जीवन के मुख्य उद्देश्य से ही वंचित रह गये। आजकल हम
देखते हैं कि अधिकांश मनुष्य तो पुनर्जन्म में विश्वास ही नहीं करते, और यह सोचते हैं
कि बस यही एक जन्म है, जिसमें हमे खा
पीकर ही मौज उड़ानी है, इसके अतिरिक्त वह
विचार ही नहीं कर पाते और भोगों में आसक्त रहकर अपने देवदुर्लभ मनुष्य जीवन को
पशुवत भोगों के भोगने में ही समाप्त कर देते हैं। उनके मन में इस प्रकार के विचार
उत्पन्न ही नहीं होते कि मरने के बाद उन्हें अपने समस्त कर्मो का फल भोगने के लिए
बाध्य होकर बार-बार विभिन्न योनियों में जन्म लेना पडे़गा। वह तो बस यही समझता है
कि जो कुछ यहां प्रत्यक्ष दिखायी देता है, यही लोक है, इसी की सत्ता है यहां जो सुःख भोग लिए जायें बस यही एक उद्देश्य
है। किंतु जिनका पुनर्जन्म में और परलोक में विश्वास होता है उन विचारशील मनुष्यों
के सामने जब ये श्रेय और प्रेय दोनों आते हैं तब वे इनके गुण-दोषों पर गहराई से
विचार करते हैं और प्रेय की उपेक्षा करके श्रेय को ही ग्रहण करते हैं। गीता में
भगवान कहते हैं -
तेषां
सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं
तं येन मामुपयान्ति ते।।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं
तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो
ज्ञानदीपेन भास्वता।। गीता (10/10-11)
उन निरन्तर मेरे
ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेम पूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्व-ज्ञानरूप योग देता हॅू , जिससे वे मुझको
ही प्राप्त होते हैं। हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिये उनके अन्तःकरण में
स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञान जनित अन्धकार को प्रकाशमय तत्वज्ञानरूप दीपक
के द्धारा नष्ट कर देता हॅू ।
यह सम्पूर्ण
संसार एक अत्यन्त दुर्गम गहन वन के समान है किंतु यह परब्रह्म परमेश्वर से पूरी
तरह से व्याप्त है। “ईश्वर
सर्वभूतानां हृद्देशेअर्जुन तिष्ठति“ वह ईश्वर सबके हृदय में स्थित है। इस तरह से जन्म से लेकर
मृत्यु तक वह ही नित्य हमारे साथ लगातार रहता है, बस हम उसकी तरफ न देखकर संसार और अपने
संबंधियों एवं मित्रों में ही व्यस्त रहकर इस अमूल्य मानव जीवन को नष्ट कर देते
हैं। विवेक चूड़ामणि में भगवान शंकराचार्य ब्रह्मनिष्ठा का महत्व बताते हुए कहते
हैं कि ”भले ही कोई
शास्त्रो की व्याख्या करे,
देवताओं का यजन
करे, नाना शुभ कर्म
करे अथवा देवताओं को भजे,
तथापि जब तक
ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता
तब तक सौ ब्रम्हाओं के बीत जाने पर भी (
अर्थात् सौ कल्पों में भी) मुक्ति नहीं हो
सकती”। अतः हमें गीता
में कहे गये भगवान के उपदेश के अनुसार कि सभी भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा
मैं ही हॅू और मैं ही सभी के हृदय रूपी गुफा में स्थित हॅू, को पूर्ण रूप से
मानते हुए अपने ही आत्मतत्व को जानने के लिए प्रयास करना चाहिए। हमें केवल
बहिर्मुखी से अंर्तमुखी होना है, इस संसार में रहते हुए अपने दायित्वों का पालन करते हुए, अपने स्वरूप में
स्थित रहते हुए अपने आपको ही जानना है। राग,द्धेष,आसक्ति एवं ममता आदि से ऊपर उठने का प्रयास करना है, तब हम उस असीम
शांति को प्राप्त कर सकते हैं। हमारे अन्तःकरण में स्थित वह ईश्वर ही हमारे
अज्ञानजनित अंधकार को दूर करता है बस हमें केवल उसकी शरण में पूर्ण रूप से अपने
आपको समर्पित करना है।
ओउम् शान्ति
शान्ति शान्ति!
(डा0 बी0 के0 शर्मा)
11/440, वसुन्धरा