Friday, December 25, 2020

गीता जयंती समारोह

 *ॐ*https://meet.google.com/tnu-sdqb-veu

श्री कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्

श्री सद्गुरु कृपा हि कैवलम्


श्री गीता जयंती समारोह

माध्यम भगवदनुग्रह

ओनलाईन गूगल मीटिंग सत्संगति

श्रीमद्भगवद्गीता स्वाध्याय समूह एवं हरिओम ऑनलाइन सत्संग समूह सहित सभी सतसंग समूहों द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता जयंती पर्व त्रिदिवसीय मनाया जा रहा है! 

पूज्य श्रद्धैय स्वामी सच्चिदानन्द सरस्वती जी महाराज आणंद गुजरात वालों की सांनिध्यता अध्यक्षता के साथ अनेकों संत महापुरुषों एवं विद्वतजनों की सांनिध्यता का एवं आर्शीवचन आशीर्वाद प्राप्त करने का सद्सौभाग्य प्राप्त होगा! 

कार्यक्रम का विवरण निम्न प्रकार हैं!

विशेष आमंत्रित महापुरुष संत----------------------------------

दिनाङ्क 27-12-2020.समय 9:00 pm to 9:30 pm

अनंत विभूषित श्रद्धैय पूज्यनीय महामण्डलेश्वर स्वामी श्री प्रणवानंद सरस्वती जी महाराज श्री धाम वृंदावन

---------------------------------------दिनाङ्क 26-12-2020 समय 8:30 pm to 9:00 pm

अनंत विभूषित श्रद्धैय पूज्यनीय महामंडलेश्वर स्वामी श्री अभयानंद सरस्वती जी महाराज लखनऊ 

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दिनाङ्क 25-12-2020

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समय:- रात्रि 8:00 से 8:30 तक 

पूज्य श्रद्धैय स्वामी सच्चिदानन्द सरस्वती जी महाराज(आणंद गुजरात)(गीता का हमारे जीवन में महत्व)

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8:30 से 9:00 तक पूज्य श्रृद्धैय आचार्य श्री सिद्धार्थ कृष्ण जी (ऋषिकेश उत्तराखंड)(कर्मयोग) 

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9:00 से 9:30 तक पूज्य श्रृद्धैय कार्ष्णि स्वामी रामानंद जी महाराज जी(गोवर्धन)

----------------------------------------9:30 से 10:00 तक पूज्य श्री भवर सिंह सारस्वत जी(गीता ज्ञानमंडल आगरा.अ.8.श्लोक.7)

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दिनाङ्क 26-12-2020

समय 8:00 से 8:30 तक

पूज्य श्रद्धैय स्वामी विष्णु वल्लभानन्द जी महाराज , पता - शंकर निकेतन, 54 /1 हजारी बाग, कनखल हरिद्वार - उत्तराखण्ड , पिन कोड - 249408 

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8:30 से 9:00 तक श्री गोविंद मोहन शर्मा जी गीता ज्ञान मंडल आगरा(अ.11/श्लोक. 55)

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9:00 से 9:30 तक पूज्य श्रृद्धैय स्वामी अखंण्डानंद जी महाराज आंध्रप्रदेश(आत्मसंयम योग) 

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9:30 से 10:00 पूज्य श्रृद्धैय आचार्य श्री सुधीर दिक्षित जी लखनऊ(अ.12.भक्तियोग)

----------------------------------------दिनाङ्क 27-12-2020

समय-8:00 से 8:30 पूज्य श्रृद्धैय स्वामी दयानंद सरस्वती महाराज जी गोविन्दमठ वाराणसी  (कर्मसन्यांसयोग अ.5.)

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8:30 से 9:00 पूज्य श्रृद्धैय स्वामी विश्वेश्वरानंद जी महाराज (कैलाश आश्रम ऋषिकेश उत्तराखंड अ.17/श्लोक.3)

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9:00 से 9:15 तक पूज्य डॉ.श्री बालकृष्ण शर्मा जी गाजियाबाद (अ.16.दैवासुरसम्पदा)

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9:15 से 9:30 तक पूज्य श्री सी. एल वर्मा जी आगरा(अ.12.भक्तियोग)

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9:30 से 9:45 तक श्री दिलीप देवनानी जी श्रीगीताज्ञानमंडल आगरा

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9:45 से पूज्य श्रद्धैय स्वामी सच्चिदानन्द सरस्वती जी महाराज आणंद गुजरात वालों के द्वारा आर्शीवचन आशीर्वाद एवं समापन संदेश आप सभी सद्भाग्यवान् सौभाग्यशाली श्रुतिपरायणाः भगवत्प्रेमी महानुभावों को परिवार एवं इष्टमित्रों सहित सादर आमंत्रण है! आप सभी गीता जयंती समारोह में उपस्थित होकर पुण्य के भागी बनें एवं सभी को लाभान्वित कराने की कृपा करें आपकी अति कृपा होगी! 

श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॐ 

चरण-सेवक दासानुदास कार्ष्णि धर्मेंद्र वर्मा उदासीन आगरा 

                              निवेदक 

                          आप और हम

विशेष निवेदन

प्रतिदिन सभी श्रुतिपरायणाः भगवत्प्रेमी श्रीमद्भगवद्गीता जी की आरती में अवश्य शामिल हो!

https://youtu.be/v-ybST_uP9s

श्रीमद्भगवद्गीता आरती के लिए लिंक पर क्लिक करें 👆

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https://anchor.fm/swami-sacchidananda-swami/episodes/PARIVRAJANAM--NAARADA-PARIVRAJAK-UPANISHAD-PROCLAIMS-THIS-SPIRITUAL-PROCESS-OF--TRAVELLING-ekmufv/WHY-SADHOO-TRAVELS-a3m5lou


Tuesday, December 22, 2020

इसीलिए किसी को उपदेश देने से पहले स्वयं वैसा आचरण करना जरुरी है - 20.12.2020

 

    अक्सर हम देखते हैं कि मनुष्य उन व्यक्तियों के आचरण का अनुसरण करता है जिन्हें वह धन, प्रतिष्ठा, राजनीति में उच्च स्थान, उच्च पद या व्यापार में अपने से श्रेष्ठ समझता है। वह वैसा ही बनना चाहता है। इसी प्रकार परिवार में भी प्रमुख व्यक्ति या मुखिया जैसा आचरण करता है, परिवार के अन्य सदस्य भी करीब-करीब वैसा ही आचरण करना सीख जाते हैं। गीता में भगवान कहते हैं कि ‘श्रेष्ठ पुरुष जैसा-जैसा आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाणित कर देता है, समस्त समुदाय उसी के अनुसार करने लग जाता है।’ यानी समाज को सुचारु रुप से मार्गदर्शन देने में श्रेष्ठ पुरुषों का बहुत बड़ा योगदान रहता है।

यदि उच्च पद पर आसीन एक प्रमुख अधिकारी समय पर कार्यालय आता है और देर तक बैठकर अपना कार्य पूरी ईमानदारी, मेहनत, तत्परता के साथ करता है तो उसे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को इन विषयों पर कुछ ज़्यादा कहने की आवश्यकता नहीं होगी। वे उसके आचरण और कार्यशैली को देखकर स्वयं ही उसके अनुसार ही कार्य करते रहेंगे। इसके विपरीत यदि वह स्वयं ही रिश्वत लेगा और कार्य में मेहनत नहीं करेगा, तब सभी कर्मचारियों का व्यवहार भी वैसा ही बनने लगेगा। यदि वह स्वयं को न बदलकर केवल भाषण या प्रमाण से दूसरों को बदलने का प्रयास भी करेगा, तब वह असफल ही रहेगा। इसी तरह से सभी क्षेत्रों में चाहें वह राजनीति का क्षेत्र हो, व्यपार का या पारमार्थिक क्षेत्र हो, यही नियम लागू होता है। आचरण का प्रभाव प्रमाण से बहुत ज्यादा होता है। इसलिए श्रेष्ठ पुरुषों को, चाहे वे किसी भी क्षेत्र में क्यों न हों, सबसे पहले अपने आचरण में ही सुधार लाना होगा। तब उसका प्रभाव उनके आचरण का अनुसरण करने वालों पर रहेगा।

    एक छोटा सा दृष्टांत है। एक बार एक महिला अपने पुत्र को लेकर अपने गुरुजी के पास गयी और बोली ‘महाराज, यह मिठाई बहुत खाता है और इसके कारण इसे कुछ रोग होने लगा है। आप इसे समझाकर इसकी इस आदत को छुड़वा दें।’ गुरूजी ने उसे पंद्रह दिन के बाद बुलाया। पंद्रह दिन बाद जब महिला आई तो गुरुजी ने उस बालक से कहा ‘बेटा मिठाई खाना छोड़ दो, यह तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।’ महिला ने कहा, ‘गुरुजी, यह बात तो आप पंद्रह दिन पहले भी कह सकते थे।’ तब गुरुजी ने कहा, ‘मैं स्वयं भी काफी मिठाई खाने का शौकीन था और इन पंद्रह दिनों में मैंने मिठाई खाना पूरी तरह से बंद कर दिया। अब मैं इसे मिठाई छोड़ने के लिए कह सकता हूँ। मैं स्वयं मिठाई खाऊँ और इसे मिठाई छोड़ने के लिए कहुँ, तब इस पर मेरी बातों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। पहले स्वयं का आचरण या व्यवहार ठीक करने के बाद ही मुझे इसे उपदेश देने का अधिकार है, अन्यथा सब व्यर्थ ही रहेगा।’

    गीता में भगवान कहते हैं, ‘मेरे लिए इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्म करता हूँ। कदाचित मैं कर्म म करुँ तो बड़ी हानि हो जाए, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।’ इसी प्रकार से विभिन्न क्षेत्रों में समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपना प्रत्येक कार्य बहुत ही सावधानी, पूरी ईमानदारी, तत्परता, निस्वार्थ भाव से, दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए करें। तब उनके आचरण को ध्यान में रखते हुए अन्य व्यक्ति उन्हें अपना आदर्श मान सकते हैं।

 

                                             धन्यवाद
                                          डॉ. बी. के. शर्मा

 

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 10 December 2020 को प्रकाशित हुआ है)

जो राग और द्वेष का गुलाम नहीं, वही सबसे ज्यादा सुखी है - 15.12.2020

    सभी मनुष्यों के अंदर राग और द्वेष कम या अधिक मात्रा में रहते हैं। अनुकूल परिस्थिति के आने पर हमें उसके साथ राग हो जाता है और हम चाहते हैं कि यह परिस्थिति हमेशा बनी रहे, कभी हमसे अलग न हो। इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थिति के आने पर हमें उससे द्वेष होता है और हम चाहते हैं कि यह कभी न आए। लेकिन हम देखते हैं कि अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों का आना जाना हमारे वश में नहीं है। यह हमारे जीवन में समय-समय पर आती-जाती रहती है और हमें इसे झेलना ही पड़ता है। समय-समय पर परिस्थिति के कारण बदले रहते हैं। बचपन में जिन चीज़ों के साथ हमारा लगाव था, बड़े होने पर वह बदल गया और हमने औरों के साथ राग कर लिया। संसार के सब कुछ परिवर्तनशील है, अस्थाई है, इसलिए हमारे राग और द्वेष के संबंध भी बदलते रहते हैं।

    गीता में आता है कि ‘‘प्रत्येक इन्द्रिय में राग और द्वेष छिपे हुए हैं। मनुष्य को इन दोनों के वश में नहीं आना चाहिए, क्योंकि ये दोनों ही कल्याण के मार्ग में रुकावट डालने वाले महान शत्रु हैं।’’ उदाहरण के लिए हम अपने कान से उन बातों को सुनना ज्यादा पसंद करते हैं जिनमें हमें लगाव होता है। दूसरा पहलू यह है कि जिन बातों से हम द्वेष करते हैं, उन्हें सुनना भी पसंद नहीं करते हैं, चाहें वे हमारे हित में ही क्यों न हों। जब कोई व्यक्ति गलत रास्ते पर चलता हुआ गलत काम करता है तब अगर उसका कोई हितैषी उसके हित के लिए उसे समझाए, तो वह उसकी बातों को बिल्कुल भी सुनना नहीं चाहता। वह ऐसे शब्दों से और उस व्यक्ति के साथ भी द्वेष करने लग जाता है। इसी प्रकार से दूसरी इंद्रियों और उनसे संबंधित विषयों के साथ भी हमारा राग-द्वेष लगा रहता है। अपना कल्याण या हित चाहने वाले व्यक्ति को इन दोनों के काबू में नहीं आना चाहिए।

    गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा सन्यासी ही समझने योग्य है।’ इसलिए पहले द्वेष को छोड़ने के लिए हमें बताया है, फिर उसी के साथ जो हमारी अनेक वस्तुओं में राग या आसक्ति है उसकी इच्छा या संबंध से त्याग की बात आती है। अगर हम राग-द्वेष से परे होकर अर्थात निष्काम भाव से लोकहित या दूसरों की भलाई को ध्यान में रखते हुए कर्म करते हैं, तब ऐसा कर्मयोगी व्यक्ति सन्यासी ही है, यानी वह कर्मबन्धन से मुक्त रहता है। दूसरों के हित की दृष्टि से जब हम अपने कर्म करते हैं तब इससे हमारे मन और बुद्धि पवित्र होती है। हमसे फिर कोई बुरा कर्म हो ही नहीं पाता क्योंकि मन, बुद्धि शुद्ध होने पर हमें स्वयं ही ज्ञान की प्राप्ति होने लगती है।

इसलिए राग और द्वेष दोनों ही हमारे शत्रु हैं और हमारे बन्धन के कारण हैं। हमें यह विचार करना चाहिए कि हमारा राग किन वस्तुओं, व्यक्तियों और पदार्थों में है और हम किनसे द्वेष करते हैं और इनके क्या कारण हैं। ऐसा जानकर विवेक का सहारा लेकर मन और अपनी समस्त इन्द्रियों को वश में रखने का प्रयास करते रहना चाहिए। इन्द्रियों का तो स्वभाव ही विषयों की तरफ भागना है। हमें ही उन्हें अपने नियंत्रण में रखते हुए निष्काम भाव से कर्म करना होगा, इसी में हमारा हित है।

                                       धन्यवाद                                               डॉ. बी. के. शर्मा


(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 25 नवंबर 2020 को प्रकाशित हुआ है)

Thursday, December 10, 2020

उत्तम सुख आरंभ काल में विष की तरह लेकिन परिणाम में अमृत की तरह होता है - 12.10.2020

     आजकल हम देखते हैं कि अधिकांश मनुष्य सांसारिक भोग विलास को ही सच्चा सुख समझकर भौतिक उन्नति की चेष्टा में लगे रहते हैं। अनैतिक या शास्त्र विरुद्ध तरीकों का इस्तेमाल करते हुए ज्यादा से ज्यादा धन एकत्र करते हुए सुख की प्राप्ति करना ही वह जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझते हैं। लेकिन वह यह नहीं जानते कि विषय इंद्रिय संयोग जनित भौतिक सुख नाशवान, क्षणिक तथा परिणाम में दुख स्वरूप है ।

गीता में तीन तरह के सुख के विषय में आता है। उत्तम या सात्विक सुख में मनुष्य भजन, ध्यान और दूसरों की सेवा या उनके हित के लिए कार्य करता है और जिससे दुखों के अंत को प्राप्त हो जाता है - ऐसा जो सुख है वह आरंभ काल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है। उदाहरण के लिए जब मनुष्य निष्काम भाव से अपना कर्तव्य कर्म लोकहित या दूसरों का हित को ध्यान में रखते हुए करता है तब आरंभ काल में तो उसे यह सब अच्छा नहीं लगता लेकिन परिणाम स्वरूप उसे एक प्रकार की शांति का अनुभव होता है और इससे उसका अंतःकरण अर्थात मन और बुद्धि आदि भी शुद्ध और पवित्र होते रहते हैं। इसी प्रकार एक विद्यार्थी को बाल्यकाल में विद्या का अध्ययन करने पर कष्ट का अनुभव होता है या किसी परीक्षा को उत्तीर्ण करने के लिए बहुत ही मेहनत करनी होती है अर्थात आरंभ में तो उसे यह सब विष की तरह लगता है लेकिन उसकी मेहनत का परिणाम उसके हित में ही होता है। अतः सात्विक पुरुष कार्य के आरंभ करने से पूर्व ही उसके परिणाम के विषय में विचार करते हैं कि वह उसके एवं दूसरों के हित में होगा या उससे कोई आहित भी हो सकता है। दूसरे प्रकार का राजस सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है वह पहले भोग काल में अमृत के समान होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है। जब मनुष्य अपने मन में आने वाली इच्छा या कामना की पूर्ति के लिए बिना उसके परिणाम पर विचार करके कार्य करता है। जैसे अनैतिक तरीके से धन का संग्रह करते हुए उसका भोग करते हुए अच्छा लगता है लेकिन कुछ समय के पश्चात ऐसा मनुष्य सरकारी कानूनों में फंसकर कष्ट भोगता है। इसी प्रकार कोई मनुष्य अधिक मदिरापान या दूसरे नशे करते हुए शुरू में तो सुख का अनुभव करता है लेकिन परिणाम स्वरुप अनेकों रोगों से ग्रसित हो जाता है। कभी-कभी मनुष्य अपने आहार में ऐसे पदार्थों का सेवन करते हुए सुख का अनुभव करता है जो कि कुछ समय के पश्चात उसके स्वास्थ्य पर विपरीत असर डाल देते हैं अतः उनका परिणाम ठीक नहीं होता। इस प्रकार के सभी सुख जो मनुष्य को भोगते हुए तो अच्छे लगते हैं लेकिन परिणाम में दुख देते हैं, मध्यम श्रेणी के या राजस सुख के अंतर्गत आते हैं। अतः मनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा जो भी विषयों का भोग करता है उनके परिणाम पर उसे भोग करने से पूर्व ही उनपर भली-भांति विचार करना चाहिए। लेकिन आधुनिक समय में अधिकांश मनुष्य केवल वर्तमान में क्षणिक सुख  का ही आनंद लेना चाहते हैं कुछ समय के पश्चात इसके परिणामस्वरूप क्या कष्ट होगा इसका विचार उचित समय पर नहीं करते।

तीसरे प्रकार का सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी मनुष्य को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख  तामस या निम्न श्रेणी का कहा गया है। हम देखते हैं कि कुछ मनुष्य आलस्य के कारण अपना कर्तव्य कर्म टालते रहते हैं और उस आलस्य रुपी सुख का अज्ञान के कारण भोग करने में आनंद लेते हैं। कभी-कभी ऐसे व्यक्ति अपना कर्तव्य कर्म को टालते हुए अपना मन बहलाने के लिए व्यर्थ की क्रियाओं जैसे ताश खेलना या कंप्यूटर पर गेम खेलते रहना, गपशप करते रहना आदि में अपना समय व्यतीत करते हुए सुख का अनुभव करते हैं, जबकि उनका अपना जीविका संबंधी कार्य या नियत कार्य टलता रहता है। सरकार के किसी-किसी विभाग में कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो आलस या प्रमाद का सुख लेते हुए अपना नियत कार्य को टालते रहते हैं कि बाद में कर लेंगे । ऐसा सुख अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है और अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। ऐसे मनुष्यों को यह ज्ञान ही नहीं होता कि हमारे पास एक निश्चित समय है उसको या चो हम आलस्य में समाप्त करते हुए अपना मनुष्य जीवन व्यर्थ कर लें या अपना नियत कर्म ठीक समय पर दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए स्वयं भी आनंद की प्राप्ति करें और दूसरों को भी सुख पहुँचाएँ।

अतः हमें उपरोक्त तीनों प्रकार के सुखों पर भली-भांति विचार करते हुए अपने अंदर भी देखना चाहिए कि हमें कौन सा सुख अच्छा लगता है और कौन सा सुख हमारे हित में है । 

 

डॉ. बी. के. शर्मा
सेवानिवृत्त, निदेशक (योजना)
दिल्ली सरकार