Wednesday, August 26, 2015

आत्मबोध

            हमें यह विचार करना चाहिए कि हम कौन है, और हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है। क्या हम केवल एक  नाम और रूप है, क्या हम केवल एक शरीर है, या इस सबके अतिरिक्त भी कुछ हैं। हमें ऐसे प्रश्न अपने आप से अवश्य करने चाहिए। गीता के आठवें अध्याय के प्रथम दो श्लाकों में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से आठ प्रश्न पूछें हैं। जरा विचार कीजिए कि जब  द्वापर युग में अर्जुन जो कि भगवान कृष्ण के परम सखा थे, उन्होंने भी भगवान से अपनी जिज्ञासायें अनेकों प्रश्नों के माध्यम से शांत की, तब हमें भी अपने प्रश्नों के उत्तर  उन्हीं धर्म ग्रंथो के माध्यम से प्राप्त करने चाहिए।

(1) ब्रह्म क्या है ?              (2)   अध्यातम क्या है ?

(3) कर्म क्या है ?               (4)   अधिभूत क्या है ?

(5) अधिदेव किसको कहते हैं? (6)  अधियज्ञ कौन है ?

(7) वह इस शरीर में कैसे हैं?    (8) अंत समय मे आप किस प्रकार जानने में आते है?

     श्री भगवान कहते है कि परम अक्षर ब्रह्य है। जो सबसे श्रेष्ठ और समक्ष होता है उसको परम कहते है। अतः ब्रह्म शब्द निर्गुण, निराकार, सच्चिदानन्द परमात्मा का वाचक है। अपना स्वरूप अर्थात जीवात्मा, अध्यात्म, नाम से कहा जाता है। अतः यदि हम अध्यात्म के मार्ग पर चलना चाहते है, और अध्यात्मिक होना चाहते है, यानि अपने आप को  आध्यात्मिक कहते है, तब यह आवश्यक हो जाता है, कि हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान करना चाहिए या होना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि क्या हम  नाम एवं रूप है या एक शरीर मात्र है, या मन, बुद्धि और इन्द्रिय है, या इन सबसे पृथक एक चेतन तत्व है? विचार करने पर हम सभी जानते है कि हमारा नाम जन्म के पश्चात हमारी पहचान के लिए रखा गया था, उस समय हमारा नाम जो आज है इससे भिन्न कुछ भी हो सकता था, हम न तो पूर्व जन्म में इस नाम से थें, न ही गर्भ में इस नाम से थे, न इस शरीर नाश के बाद  इस नाम से रहेंगे, यह तो केवल एक सांकेतिक और कल्पित नाम है जो बदला भी जा सकता है। अतः कोई इस नाम की निन्दा करें या प्रशंसा करे, हमें इससे सुखी या दुखी नहीं होना चाहिए। जब हम अपने आप को एक नाम से मान लेते है तब इस अवस्था से प्रभावित होते रहते है, यदि हम नाम से उपर उठते है तब निन्दा और स्तुति में समभाव रहते है। (तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः 14/24)। अतः इससे सिद्ध होता है कि हम नाम से नहीं है।
         
         यदि हम नाम से नहीं है तब क्या हम देह या एक शरीर है। हम जानते है कि हमारा शरीर एक जड़ पदार्थ है जिसको मृत्यु के पश्चात जला दिया जाता है, और हम जीवात्मा रूप में जो कि एक चेतन तत्व इस शरीर के जन्म के पूर्व में भी था, इस शरीर के समाप्त हो जाने के बाद एक अन्य शरीर में चला जाता है, वह नित्य है, अविनाशी है, मलरहित है, वही हमारा स्वरूप है। यह हमारा शरीर परिवर्तित होता रहता है, शिशु अवस्था से बाल्य अवस्था फिर युवाअवस्था, और फिर पौढा़वस्था में चला जाता है, लेकिन हम इस शरीर को जानने वाले इसके अंदर वहीं रहते है। यदि किसी ने हमे बाल्यावस्था में देखा है और यदि वही हमें आज पौढ़ावस्था में देखे तब हमें वह पहचान नहीं पायेगा, लेकिन हम अपने आप की सभी अवस्थाओं को भलिभांति से पहचानते है।  इन सबसे सिद्ध होता है कि हम शरीर नहीं है जो हर समय बदलता रहता है वह सत्य नहीं हो सकता। किन्तु हम अपने आप को शरीर मान लेते हैं और शरीर के मान-अपमान, निन्दा-स्तुति, हर्ष-शोक, गर्मी-सर्दी, आदि में सुखी और दुखी होते रहते है। लेकिन जब हम समझ लेते है कि हम यह जड़ शरीर नहीं है इससे अलग है, हम तो एक चेत्तन स्वरूप, ब्रह्म के अंश है, ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः (गीता 15/7) तब विभिन्न परिस्थितियों में समान रहते है। हम यह भी जानते हैं कि मन में आते-जाते अनेकों विचारों को हम देखते रहते हैं, लेकिन उन सभी में हम लिप्त नहीं होते। इसी तरह बुद्वि भी हमें उपाय सुझाती है और उस सबे उपरान्त हम अपने विवके से एक निर्णय लेते हैं, यदि हमारा अन्तःकरण पूरी तरह से पवित्र है तब हम अपनी आत्माकी आवाज सुनकर अर्थात् आत्मतत्व से निर्णय लेते हैं जो कि पूरी तरह से धर्मसंगत होता है। अतः हम शरीर, मन और बुद्वि से अलग हैं। अपने इसी वास्तविक रूप अर्थात् आत्मा को जानना ही को जानना ही अध्यात्म है और इसमें स्थित रहना ही आध्यात्मिक अवस्था है।
            
     हम यह भली प्रकार से जानते है कि सभी प्राणियों के मन में हर समय अनगिनत भाव या विचार आते रहते हैं, उनमें से हम समय परिस्थिति एवं अपने विवेक के अनुसार कुछ भाव को अपनी इन्द्रियों द्वारा प्रकट करके जो त्याग करते हैं वही कर्म है। जब हम धर्म संगत एवं शास्त्रों के अनुसार आसक्ति और फल को त्याग करके कर्म करते हैं तब वह सात्विक कर्म कहलाते हैं। अतः हमें कोई भी कर्म करने से पूर्व एक क्षण का चिंतन करना चाहिए कि हमारा कर्म किस तरह का है। यदि हम आसक्ति एवं फल की इच्छा से कर्म करते हैं, तब हमें अपने प्रत्येक कर्म फल को अपने शरीर के माध्यम से इस जन्म में या अगले जन्म में प्रारब्ध रूप से भुगतना भी पडेगा, अतः कर्म करने में पूरी सावधानी की आवश्यकता है। कर्मो की प्रेरणा भगवान मनुष्य के स्वभाव के अनुसार करते हैं यदि हमारे स्वभाव में राग या द्वेष है तब हमारे कर्म भी उसी प्रकार से होंगे। लेकिन हम अपने स्वभाव को शास्त्रों के अनुसार बदल सकते हैं इसके लिए हम स्वतंत्र हैं अतः हमें अपने स्वभाव पर स्वंय ही निरीक्षण करते रहना चाहिए और अपने दोषो से अपने आपको मुक्त करते रहना चाहिए। मनुष्य योनि ही ऐसी है जिसमें मनुष्य अपने प्रारब्ध को भोगने के अलावा नए कर्म करने के लिए स्वतंत्र है। अतः हमें अपने सभी कर्म राग द्वेष रहित, आसक्ति एवं कर्म फल को छोडकर पुर्ण निष्काम भाव से करते रहना चाहिए। ताकि, हमारे कर्म हमे बाधे नहीं बल्कि मुक्त कर सके।
        
      हमारा शरीर पांच महाभुतो पृथ्वी,जल,तेज(अग्नि), वायु और आकाश से बना है और यह प्रतिक्षण परिवर्तित होता है और अंत में नष्ट हो जाता है। अर्थात् उत्पत्ति एवं विनाशशील जितने भी पदार्थ इस सृष्टि में हैं उन्हें अधिभूत कहते हैं। अधिदैव आदि पुरूष हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का वाचक है।सृष्टि के शुरू में भगवान के संकल्प  से सबसे पहले ब्रह्मा जी ही प्रकट होते हैं और फिर वे ही सब सृष्टि की रचना करते हैं। गीता में भगवान कहते हैं कि शरीर में, आत्मा रूप में, अधियज्ञ में मैं ही हू। ईश्वर सर्व भूताना दृद्वेशेअर्जुन तिष्ठति (गीता 18/61) सभी मनुष्यों के हृदय में मैं ही अंतर्यामी रूप से विराजमान हू। सभी देह धारियों में वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो इस शरीर में परमात्मा है-ऐसा जान लेता है। कण-कण में परमात्मा है, वासुदेव सर्वमिति समहात्मा सुदुर्लभः (गीता 7/19) सब कुछ वासुदेव ही हैं ऐसा जिसे ज्ञान हो जाता है, ऐसा महापुरूष दुर्लभ है। जैसे एक ही जलतत्व, भाप, बादल, वर्षा की क्रिया, बुंदे और ओले (बर्फ) के रूप में भिन्न-भिन्न दिखता है पर वास्तव में एक जल ही है। इसी प्रकार एक ही सोना विभिन्न नामों अंगूठी, चैन आदि रूपों में जाना जाता है लेकिन मूलरूप से सोना ही है। उसी प्रकार से एक ही परमतत्व ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के रूप में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हुए भी तत्वतः एक ही है। अतः जब हम यह जान लेते हैं कि मैं नाम मन, बुद्वि और यह शरीर नहीं हॅूं, तब एक ही परमतत्व ब्रम्ह का आभास होता है और उसमें स्थित रहते हैं और अन्तसमय में उसी में विलिन हो जाते हैं। 
                                                                       

डा. बी.के.शर्मा
11/440, वसुन्धरा

 9811666162

Tuesday, August 25, 2015

जीव और ईश्वर  

          मनुष्य का शरीर अन्य सभी शरीरों में श्रेष्ठ एवं देवताओं के लिए भी अत्यन्त दुर्लभ है, हम बडे़  भाग्यशाली हैं कि हमें यह शरीर, ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त हुआ है। हमारा मुख्य उद्देश्य जन्म मृत्यु रूप संसार समुद्र से पार पाना है, किन्तु ईश्वर की माया के वशीभूत होकर हम अपने उद्देश्य से भटक गये है। गीता में भगवान कहते है कि मेरी माया से पार पाना बहुत ही कठिन है, बिना भगवान के शरण में जाये इससे पार नहीं पाया जा सकता है, जो केवल भगवान को ही अपना आश्रय, परमप्रिय, परमगति मानते है तथा सब कुछ भगवान का ही है, ऐसा समझकर, इस शरीर में स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि में ममता और आसक्ति न रखकर इन सबको भगवान की ही पूजा सामाग्री बनाकर और  भगवान के रचे हुए विधान में सदा संतुष्ठ रहकर, अपने को सब प्रकार से निरन्तर भगवान के ही द्वारा हमें दिये गये कर्म को पूरी तन्मयता, ईमानदारी, निष्ठा एवं तत्परता से पूर्ण समर्पण भाव एवं कत्र्तापन के अभिमान से रहित होकर निष्काम भाव से अपने को भक्तिपूर्वक लगाये रखते है, वे ही इस माया से पार हो जाते है अर्थात संसार से तर जाते हैं। भगवान गीता में कहते है कि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्त त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाको उल्लघ्ड़न कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।
                   दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
                        मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।              (गीता 7/14)

          मनुष्यों के लिए, ईशावास्योपनिषद् में वेद भगवान कहते है, कि इस पूरे संसार में जो कुछ भी जड़ एवं चेतन स्वरूप है, यह सब ईश्वर से ही व्याप्त है अर्थात् उन्ही से परिपूर्ण है। इसका कोइ भी हिस्सा ईश्वर से रहित नहीं है। अतः ईश्वर को हमेशा याद रखते हुए, ममता  और आसक्ति को त्यागकर, केवल कत्र्तव्य पालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपभोग करो। ये भोग पदार्थ किसी के भी नहीं हैं हमने ममता और आसक्ति के कारण ही इन्हें अपना मान रखा है, और इनसे स्वंय ही बंधे हुए हैं। यह सब ईश्वर के हैं, और उन्हीं की प्रसन्नता के लिए इनका उपयोग करना चाहिए। अतः इस संसार के साथ व्यवहार करते समय यदि हम भोग की भावना का त्याग करके सेवा की भावना हृद्य में ले आते हैं तब प्रकृति जो कि हमारी माता है, के साथ हमारा सेवा का संबंध स्थापित हो जाता है।

                   ईशा  वास्यमिद्सर्वं यत्किच्ञ जगत्यां जगत्।
                   तेन त्यक्तेन भुज्था मा गृघः कस्य स्विद् धनम।।
{ईशावास्योपनिषद्-1}

जब हम यह समझ लेते हैं कि ईश्वर नित्य, अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वात्मा और सर्वश्रेष्ठ हैं, तथा देवता, पितर और मनुष्य आदि जितनी भी योनिंया तथा  भोगसामाग्री है सभी विनाशशील, क्षणभंगुर और जन्म-मृत्युशील होने के कारण दुःख के कारण हैं, तथापि इनमें जो शक्ति  और चेतना है, वह सभी भगवान की है। भगवान के इस संसार को सुचारू रूप से चलते रहने के लिए ही हमें इसमें सेवा-पूजा हेतु लगना है, न कि इनमें ममता और आसक्ति करनी है। कब यह शरीर छोड़ कर इस संसार से जाना है, अगला सांस आयेगी या नहीं इसकी भी हमें जानकारी नहीं है, तब हमें हर क्षण सत्र्तक  रहते हुए सभी कार्यों को करते रहना चाहिए। इससे जीवनयात्रा सुखपूर्वक चलती है और अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है एवं भगवत्कृपा से हम सहज ही मृत्युमय संसार-सागर से तर जाते हैं। जब तक यह  दुर्लभ मानव शरीर हमारे पास है और ईश्वर की कृपा से साधन-सामग्री भी उपलब्ध है तभी तक  शीघ्र-से-शीघ्र  ईश्वर को जान लिया जाये तो सब प्रकार से कुशल है और मनुष्य  जन्म की सार्थकता है। यदि यह अवसर अबकी बार हाथ से निकल गया  तब पता नहीं दुबारा कब प्राप्त होगा भी या नहीं, या इसी प्रकार अनेकों योनियों में जन्म मृत्यु के इस चक्र में भटकते  रहेगें। अतः हमें आज और अभी से ही इस मार्ग पर चल पड़ना है और जहां हैं , जो भी परिस्थिति ईश्वर के द्वारा प्रदान की गयी है, उसी में अपने स्वरूप को पहचान कर, जीव जो कि ईश्वर का ही अंश है केवल  माया के वशीभूत होकर अपने स्वरूप को भूल चूका है, इन दोनों को मिलन करना है। जब तक जीवात्मा, और परमात्मा का मिलन नहीं होता तब तक ही हम अशान्त हैं, दुखी हैं, भटक रहे हैं, जब इनमें भेद समाप्त हो जाता है जब नदी सागर में मिल कर सागर का ही रूप ले लेती है, तब हम हम नहीं रहते सब ईश्वर मय हो जाता है, अंश अपने अंशी में मिल जाता है, द्वैत भाव समाप्त होकर जीवात्मा और परमात्मा के बीच का परदा समाप्त हो जाता है। केनोपनिषद में वेद भगवान कहते हैः-

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।।
{द्वितीय खण्ड-3}

जो महापुरूष ईश्वर का साक्षात कर लेते हैं उन्हें यह अभिमान नहीं रह जाता कि हमने ईश्वर को जान लिया है।  वे परमात्मा के अनन्त असीम महीमा में मग्न रहते हुए यही मानते हैं कि परमात्मा स्वंय ही अपने को जानते है, दूसरा कोई भी ऐसा नहीं है जो उनका पार पा सके। अतः जो यह मानता है कि मैंने ब्रह्म को जान लिया है, मैं ज्ञानी हॅूं, वह वस्तुतः भ्रम में है, क्योंकि ब्रह्म इस प्रकार ज्ञान का विषय नहीं हैं। जितने भी ज्ञान के साधन हैं, उनमें से एक भी ऐसा नहीं, जो ब्रह्म तक पहुंच सके। अतएव इस प्रकार के जानने वालों के लिए परमात्मा सदा अज्ञात है। जब तक जानने का अभिमान रहता है, तबतक परमात्मा का साक्षत्कार नहीं होता है। परमेश्वर का साक्षात्कार उन्हीं भाग्यवान महापुरूषों को होता है जिनमें जानने का अभिमान नहीं रह गया है। जब हमारा अन्तःकरण पूरी तरह से शुद्ध हो जाता है, सभी  दुर्गण दूर हो जाते हैं, प्रत्येक क्षण ईश्वर को जानने की ही इच्छा रहती है, हमारे सभी कार्य ईश्वर भक्ति के रूप में ही होते हैं, तब ईश्वर ही हम पर दया करके जीवात्मा और परमात्मा के बीच में जो मायारूपी परदा है उसे स्वयं ही हटा लेते हैं तब उसी क्षण वहीं भगवान की प्राप्ति हो जाती है क्योंकि वे तो सदा से ही सर्वत्र विद्यमान  हैं। हमारे अत्यन्त ही समीप हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जीव अपनी शक्ति से इस मायारूपी परदे को नहीं हटा सकता, भगवान की शरण ग्रहण करने पर भगवान की दया के बल से ही हम इससे पार हो सकते है। हमारी इन्द्रियों पर, मन और बुद्धि आदि पर आत्मा का अधिकार है, अतः हम स्वयं मन, बुद्धि और इन्द्रियों को वश में करके भगवान की और बढ़ सकते हैं। परन्तु आत्मा से भी बलवान यह भगवान की माया है, जिसके वशीभूत होकर हम ममता, आसक्ति आदि के द्वारा इस शरीर से वंध गये हैं। अतः  हमें भगवान की शरण में ही जाना चाहिए ताकि, वह स्वयं ही अपनी माया रूपी परदे को हटा कर जीवात्मा एवं परमात्मा का मिलन करा सके। कठोपनिषद में वेद भगवान कहते हैं-
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा।
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते।।
{तृतीयवल्ली 12}
वह परब्रह्म परमात्मा वाणी आदि कर्मोन्द्रियों से, चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों से और मन-बुद्धिरूप अन्तःकरण से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि वह इन सबकी पहुंच से परे है। परन्तु वह है अवश्य और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखने वाले को वह अवश्य मिलता है इस बात को जो नहीं स्वीकार करता उसको वह केसे मिल सकता है। अतः हमें दृढ़ निश्चय से निरन्तर उसकी प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए।

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।
अथ मत्र्योऽमृतो भवत्येतावद्धयनुशासनम्।।
{तृतीयवल्ली 15}

कठोपनिषद में यमराज नचिकेता से कहते है कि जब साधक के हृद्य  की ममता, आसक्ति, अभिमान, कत्र्ताभव आदि समस्त  अज्ञान ग्रान्थ्यिां भलीभांति कट जाती है, उसके सब प्रकार के संशय सर्वथा नष्ठ हो जाते है, उसे दृढ़ निश्चय हो जाता है, कि परब्रह्म परमेश्वर अवश्य है और वह अपने हृद्य में ही विराजमान हैं, और वह निश्चय ही मिलते हैं, तब वह इस शरीर में रहते हुए ही परमात्मा का साक्षात करके अमर हो जाता है, अर्थात परमात्मा का वह तात्विक दिव्य स्वरूप उसके विशुद्ध हृद्य में अपने आप प्रकट हो जाता है, उसका प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। बस इतना ही वेदान्त का सनातन उपदेश है।
                        


डा बी के शर्मा
11/440, वसुन्धरा (गाजियाबाद)
9811666162


Wednesday, August 19, 2015

आत्मतत्व

मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है और एक निश्चित अवधि के लिए ईश्वर ने हम पर कृपा करके हमें अपने वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए दिया है यह हम सब जानते हैं। परन्तु इसके बाद भी हम वाह्य विषयों की चमक-दमक में ही अधिकतर आसक्त हो जाते हैं और उसको पाने भोगने में ही इस दुर्लभ एवं अमूल्य मनुष्य जीवन को खो देते हैं। दीर्घकाल तक नाना प्रकार की योनियों में जन्म धारण करके बार-बार जन्मते-मरते रहे हैं।  परब्रह्म परमात्म तत्वनित्य होने पर भी अज्ञान के अंधकार में पड़े हुए जीव के दुःख को दूर करने में समर्थ नहीं है, जिस प्रकार सूर्य यदि जितना ज्येष्ठ के महीने में तप जाये लेकिन वह सूर्य उल्लू को किंचित प्रकाश नहीं दे सकता। परन्तु जो बुद्विमान हैं जिसका अज्ञान दूर हो गया है वे इस विषय पर गहराई से विचार करते हैं कि ये इन्द्रियों के भोग तो जीव को दूसरी योनियों में भी पर्याप्त मिल सकते हैं। मनुष्य शरीर उन सबमें विलक्षण है। अतः इसका वास्तविक उद्देश्य विषय भोग नहीं हो सकता। इस प्रकार जब जीव विचार करता है तब उसे यह महसूस होता है कि इसका वास्तविक उद्देश्य अमृतस्वरूप नित्य परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करना है और वह मनुष्य शरीर से ही प्राप्त किया जा सकता है। फिर वह मनुष्य इस तरह से ज्ञान प्राप्त हो जाने पर विनाशशील जगत में क्षणभंगुर भोगों को प्राप्त करने की इच्छा नही करते और परमार्थ साधन में लग जाते हैं।
        
एक शुद् ब्रह्म् के अतिरिक्त और जो कुछ भी है सो वास्तव में नहीं है, केवल स्वप्नवत प्रतीति होती है। वेद, वेदांत और उपनिषद का यही सर्वोच्च सिद्वान्त है। श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध के नवें अध्याय में चर्तुश्लोकी भागवत के प्रथम श्लोक में भगवान, ब्रह्मा जी से कहते हैं कि,
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च यो वषिष्येत सो स्म्यहम्।। (श्रीमद् भागवत 2/9/32)

            सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था मेरे अतिरिक्त स्थूल था सूक्ष्म और तो दोनों का कारण अज्ञान। जहां यह सृष्टि नहीं है, वहा मैं ही मैं हूं और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा हे वह भी मैं ही हूं ओर जो कुछ बचा रहेगा वह भी मैं ही हूं इसको समझने के लिए यदि हम स्वर्ण और आभूषण के विषय में विचार करें, तब हमें ठीक से ज्ञान होता है कि आभूषण बनने से पहले भी स्वर्ण था, आभूषण बनने पर भी स्वर्ण ही मौजूद है और आभूषण की समाप्ति होने पर स्वर्ण ही शेष रहेगा। अतः शुरू से अन्त तक स्वर्ण ही स्वर्ण है, बीच की अवस्था में आभूषण द्वारा उसकी प्रतीति हो रही है। अतः जो कुछ भी हमें इस जगत में दिख रहा है वह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। यदि हम जीव भाव में ही लगे रहेगें तब इसके मूल तत्व में नहीं जा पाएंगे और परमात्मा का ज्ञान नहीं हो पाएगा।
ईशा वास्यमिदॅंसर्वं यत्किच्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भूज्जींथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।(ईशा.उपनिषद।)

            मनुष्यों के प्रति वेद भगवान का पवित्र आदेश है कि अखिल विश्व-ब्राह्माण्ड में जो कुछ भी यह चराचरात्मक जगत तुम्हारे देखने सुनने में रहा है, सब का सब सर्वाधार, सर्वनियन्ता, सर्वाधिपति, सर्वज्ञ परमेश्वर से व्याप्त है। इसका कोई भी अंश उनसे रहित नहीं है। यों समझकर उन ईश्वर को निरन्तर अपने साथ रखते हए सदा सर्वदा उनका स्मरण करते हुए ही तुम इस जगत में ममता और आसक्ति का त्याग करके केवल कर्तव्य पालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपभोग करो। अर्थात् विश्वरूप ईश्वर की पूजा के लिए ही कर्मो का आचरण करों। विषयों में मन को मत फॅंसने दो। इसी में तुम्हारा कल्याण है।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्वजिज्ञासुना  त्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदाः।। ( श्रीमद् भागवत् 2/9/35)

            भगवान कहते हैं कि यह ब्रह्म नही, यह ब्रह्म नहीं - इस प्रकार निषेध की पद्वति से, और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है- इस अन्वय की पद्वति से यही सिद्व होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्व है। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्व जानना चाहते हैं उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है। गीता में भगवान कहते हैं कि
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्नयस्य मत्परः।
बुद्वियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।। (गीता 18/57)

            अपने मन, इन्द्रिय और शरीर को उनके द्वारा किए जाने वाले कर्मो को और संसार की सभी वस्तुओ को केवल भगवान की मानकर उनमें ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देना तथा मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं है केवल भगवान ही मुझे शक्ति प्रदान करके मेरे द्वारा ही  सब कर्म करवा रहे हैं, मैं तो केवल निमित्तमात्र हूं मेरे माध्यम से भगवान इस कर्म को संसार के हित के लिए करा रहे हैं, ऐसा मानकर कर्म करना चाहिए। यदि उस कर्म का परिणाम हमारे हित में हो या अहित में हो, लाभ हो या हानि हो, सब ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार करना चाहिए, इससे विचलित नहीं होना चाहिए।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्रव्तम्।। (गीता 18/62)

            गीता में भगवान कहते है कि हमें परमेश्वर की ही शरण में जाना चाहिए उस परमात्मा की कृपा से ही हम परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होंगे। अतः हमें इस पर विचार करके उस परमतत्व पर ही एकाग्र रहते हुए, सभी सांसारिक दायित्वों को निमित्त मात्र बनकर पूरा करते रहने चाहिए। एक प्रकार से समभाव में स्थित रहने पर एवं जाहे विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए को पूर्ण रूपेण अपना कर पूरी तत्परता, ईमानदारी, कठोर परिश्रम, पूर्ण निष्ठा से ईश्वर द्वारा दिए गये सभी दायित्वों को निभाते हुए ही हम शांति को प्राप्त कर सकते हैं।  

डा. बी.के.शर्मा
11/440, वसुन्धरा

 9811666162