आत्मबोध
हमें यह विचार करना चाहिए
कि हम कौन है, और हमारा वास्तविक स्वरूप
क्या है। क्या हम केवल एक नाम और रूप है, क्या हम केवल एक शरीर है, या इस सबके
अतिरिक्त भी कुछ हैं। हमें ऐसे प्रश्न अपने आप से अवश्य करने चाहिए। गीता के आठवें
अध्याय के प्रथम दो श्लाकों में अर्जुन ने भगवान कृष्ण से आठ प्रश्न पूछें हैं।
जरा विचार कीजिए कि जब द्वापर युग में
अर्जुन जो कि भगवान कृष्ण के परम सखा थे, उन्होंने भी भगवान से
अपनी जिज्ञासायें अनेकों प्रश्नों के माध्यम से शांत की, तब हमें भी अपने प्रश्नों के उत्तर उन्हीं धर्म ग्रंथो के माध्यम से प्राप्त करने
चाहिए।
(1) ब्रह्म क्या है ? (2) अध्यातम क्या है ?
(3) कर्म क्या है ? (4) अधिभूत क्या है ?
(5) अधिदेव किसको कहते हैं? (6) अधियज्ञ कौन है ?
(7) वह इस शरीर में कैसे हैं? (8) अंत समय मे आप किस प्रकार जानने में आते है?
श्री भगवान कहते है कि
परम अक्षर ब्रह्य है। जो सबसे श्रेष्ठ और समक्ष होता है उसको परम कहते है। अतः
ब्रह्म शब्द निर्गुण, निराकार, सच्चिदानन्द परमात्मा का वाचक है। अपना स्वरूप अर्थात
जीवात्मा, अध्यात्म, नाम से कहा जाता है। अतः यदि हम अध्यात्म के मार्ग पर चलना
चाहते है, और अध्यात्मिक होना चाहते
है, यानि अपने आप को आध्यात्मिक कहते है, तब यह आवश्यक हो जाता है, कि हमें अपने
वास्तविक स्वरूप का ज्ञान करना चाहिए या होना चाहिए। हमें यह विचार करना चाहिए कि
क्या हम नाम एवं रूप है या एक शरीर मात्र
है, या मन, बुद्धि और इन्द्रिय है,
या इन सबसे पृथक
एक चेतन तत्व है? विचार करने पर हम सभी
जानते है कि हमारा नाम जन्म के पश्चात हमारी पहचान के लिए रखा गया था, उस समय हमारा नाम जो आज है इससे भिन्न कुछ भी हो सकता था, हम न तो पूर्व जन्म में इस नाम से थें, न ही गर्भ में इस नाम से थे, न इस शरीर नाश के
बाद इस नाम से रहेंगे, यह तो केवल एक सांकेतिक और कल्पित नाम है जो बदला भी जा
सकता है। अतः कोई इस नाम की निन्दा करें या प्रशंसा करे, हमें इससे सुखी या दुखी नहीं होना चाहिए। जब हम अपने आप को
एक नाम से मान लेते है तब इस अवस्था से प्रभावित होते रहते है, यदि हम नाम से उपर उठते है तब निन्दा और स्तुति में समभाव
रहते है। (तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः 14/24)। अतः इससे सिद्ध होता है
कि हम नाम से नहीं है।
यदि हम नाम से नहीं है तब
क्या हम देह या एक शरीर है। हम जानते है कि हमारा शरीर एक जड़ पदार्थ है जिसको मृत्यु
के पश्चात जला दिया जाता है, और हम जीवात्मा रूप में
जो कि एक चेतन तत्व इस शरीर के जन्म के पूर्व में भी था, इस शरीर के समाप्त हो जाने के बाद एक अन्य शरीर में चला
जाता है, वह नित्य है, अविनाशी है, मलरहित है, वही हमारा स्वरूप है। यह हमारा शरीर परिवर्तित होता रहता है, शिशु अवस्था से बाल्य अवस्था फिर युवाअवस्था, और फिर पौढा़वस्था में चला जाता है, लेकिन हम इस शरीर को जानने वाले इसके अंदर वहीं रहते है।
यदि किसी ने हमे बाल्यावस्था में देखा है और यदि वही हमें आज पौढ़ावस्था में देखे
तब हमें वह पहचान नहीं पायेगा, लेकिन हम अपने आप की सभी
अवस्थाओं को भलिभांति से पहचानते है। इन
सबसे सिद्ध होता है कि हम शरीर नहीं है जो हर समय बदलता रहता है वह सत्य नहीं हो
सकता। किन्तु हम अपने आप को शरीर मान लेते हैं और शरीर के मान-अपमान, निन्दा-स्तुति, हर्ष-शोक, गर्मी-सर्दी, आदि में सुखी और दुखी
होते रहते है। लेकिन जब हम समझ लेते है कि हम यह जड़ शरीर नहीं
है इससे अलग है, हम तो एक चेत्तन स्वरूप, ब्रह्म के अंश है, ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः
सनातनः (गीता 15/7) तब विभिन्न परिस्थितियों
में समान रहते है। हम यह भी जानते हैं कि मन में आते-जाते अनेकों विचारों को हम
देखते रहते हैं, लेकिन उन सभी में हम
लिप्त नहीं होते। इसी तरह बुद्वि भी हमें उपाय सुझाती है और उस सबे उपरान्त हम
अपने विवके से एक निर्णय लेते हैं, यदि हमारा अन्तःकरण पूरी
तरह से पवित्र है तब हम अपनी आत्माकी आवाज सुनकर अर्थात् आत्मतत्व से निर्णय लेते
हैं जो कि पूरी तरह से धर्मसंगत होता है। अतः हम शरीर, मन और बुद्वि से अलग हैं। अपने इसी वास्तविक रूप अर्थात्
आत्मा को जानना ही को जानना ही अध्यात्म है और इसमें स्थित रहना ही आध्यात्मिक
अवस्था है।
हम यह भली प्रकार से
जानते है कि सभी प्राणियों के मन में हर समय अनगिनत भाव या विचार आते रहते हैं, उनमें से हम समय परिस्थिति एवं अपने विवेक के अनुसार कुछ
भाव को अपनी इन्द्रियों द्वारा प्रकट करके जो त्याग करते हैं वही कर्म है। जब हम
धर्म संगत एवं शास्त्रों के अनुसार आसक्ति और फल को त्याग करके कर्म करते हैं तब
वह सात्विक कर्म कहलाते हैं। अतः हमें कोई भी कर्म करने से पूर्व एक क्षण का चिंतन
करना चाहिए कि हमारा कर्म किस तरह का है। यदि हम आसक्ति एवं फल की इच्छा से कर्म
करते हैं, तब हमें अपने प्रत्येक
कर्म फल को अपने शरीर के माध्यम से इस जन्म में या अगले जन्म में प्रारब्ध रूप से
भुगतना भी पडेगा, अतः कर्म करने में पूरी
सावधानी की आवश्यकता है। कर्मो की प्रेरणा भगवान मनुष्य के स्वभाव के अनुसार करते
हैं यदि हमारे स्वभाव में राग या द्वेष है तब हमारे कर्म भी उसी प्रकार से होंगे।
लेकिन हम अपने स्वभाव को शास्त्रों के अनुसार बदल सकते हैं इसके लिए हम स्वतंत्र
हैं अतः हमें अपने स्वभाव पर स्वंय ही निरीक्षण करते रहना चाहिए और अपने दोषो से
अपने आपको मुक्त करते रहना चाहिए। मनुष्य योनि ही ऐसी है जिसमें मनुष्य अपने
प्रारब्ध को भोगने के अलावा नए कर्म करने के लिए स्वतंत्र है। अतः हमें अपने सभी
कर्म राग द्वेष रहित, आसक्ति एवं कर्म फल को
छोडकर पुर्ण निष्काम भाव से करते रहना चाहिए। ताकि, हमारे कर्म हमे
बाधे नहीं बल्कि मुक्त कर सके।
हमारा शरीर पांच महाभुतो पृथ्वी,जल,तेज(अग्नि), वायु और आकाश से बना है और यह प्रतिक्षण परिवर्तित होता है
और अंत में नष्ट हो जाता है। अर्थात् उत्पत्ति एवं विनाशशील जितने भी पदार्थ इस सृष्टि में हैं उन्हें अधिभूत कहते हैं। अधिदैव आदि पुरूष हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का
वाचक है।सृष्टि के शुरू में भगवान के संकल्प
से सबसे पहले ब्रह्मा जी ही प्रकट होते हैं और फिर वे ही सब सृष्टि की रचना
करते हैं। गीता में भगवान कहते हैं कि शरीर में, आत्मा रूप में, अधियज्ञ में मैं ही हू। ईश्वर सर्व भूताना दृद्वेशेअर्जुन
तिष्ठति (गीता 18/61) सभी मनुष्यों के हृदय में
मैं ही अंतर्यामी रूप से विराजमान हू। सभी देह धारियों में वही मनुष्य श्रेष्ठ है
जो इस शरीर में परमात्मा है-ऐसा जान लेता है। कण-कण में परमात्मा है, वासुदेव सर्वमिति समहात्मा सुदुर्लभः (गीता 7/19) सब कुछ वासुदेव ही हैं ऐसा जिसे ज्ञान हो जाता है, ऐसा महापुरूष दुर्लभ है। जैसे एक ही जलतत्व, भाप, बादल, वर्षा की क्रिया, बुंदे और ओले (बर्फ) के
रूप में भिन्न-भिन्न दिखता है पर वास्तव में एक जल ही है। इसी प्रकार एक ही सोना
विभिन्न नामों अंगूठी, चैन आदि रूपों में जाना
जाता है लेकिन मूलरूप से सोना ही है। उसी प्रकार से एक ही परमतत्व ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के रूप
में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हुए भी तत्वतः एक ही है। अतः जब हम यह जान लेते हैं
कि मैं नाम मन, बुद्वि और यह शरीर नहीं हॅूं, तब एक ही परमतत्व ब्रम्ह का आभास होता है और उसमें स्थित
रहते हैं और अन्तसमय में उसी में विलिन हो जाते हैं।
डा.
बी.के.शर्मा
11/440, वसुन्धरा
9811666162