Tuesday, August 25, 2015

जीव और ईश्वर  

          मनुष्य का शरीर अन्य सभी शरीरों में श्रेष्ठ एवं देवताओं के लिए भी अत्यन्त दुर्लभ है, हम बडे़  भाग्यशाली हैं कि हमें यह शरीर, ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त हुआ है। हमारा मुख्य उद्देश्य जन्म मृत्यु रूप संसार समुद्र से पार पाना है, किन्तु ईश्वर की माया के वशीभूत होकर हम अपने उद्देश्य से भटक गये है। गीता में भगवान कहते है कि मेरी माया से पार पाना बहुत ही कठिन है, बिना भगवान के शरण में जाये इससे पार नहीं पाया जा सकता है, जो केवल भगवान को ही अपना आश्रय, परमप्रिय, परमगति मानते है तथा सब कुछ भगवान का ही है, ऐसा समझकर, इस शरीर में स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि में ममता और आसक्ति न रखकर इन सबको भगवान की ही पूजा सामाग्री बनाकर और  भगवान के रचे हुए विधान में सदा संतुष्ठ रहकर, अपने को सब प्रकार से निरन्तर भगवान के ही द्वारा हमें दिये गये कर्म को पूरी तन्मयता, ईमानदारी, निष्ठा एवं तत्परता से पूर्ण समर्पण भाव एवं कत्र्तापन के अभिमान से रहित होकर निष्काम भाव से अपने को भक्तिपूर्वक लगाये रखते है, वे ही इस माया से पार हो जाते है अर्थात संसार से तर जाते हैं। भगवान गीता में कहते है कि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्त त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाको उल्लघ्ड़न कर जाते हैं अर्थात् संसार से तर जाते हैं।
                   दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
                        मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।              (गीता 7/14)

          मनुष्यों के लिए, ईशावास्योपनिषद् में वेद भगवान कहते है, कि इस पूरे संसार में जो कुछ भी जड़ एवं चेतन स्वरूप है, यह सब ईश्वर से ही व्याप्त है अर्थात् उन्ही से परिपूर्ण है। इसका कोइ भी हिस्सा ईश्वर से रहित नहीं है। अतः ईश्वर को हमेशा याद रखते हुए, ममता  और आसक्ति को त्यागकर, केवल कत्र्तव्य पालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपभोग करो। ये भोग पदार्थ किसी के भी नहीं हैं हमने ममता और आसक्ति के कारण ही इन्हें अपना मान रखा है, और इनसे स्वंय ही बंधे हुए हैं। यह सब ईश्वर के हैं, और उन्हीं की प्रसन्नता के लिए इनका उपयोग करना चाहिए। अतः इस संसार के साथ व्यवहार करते समय यदि हम भोग की भावना का त्याग करके सेवा की भावना हृद्य में ले आते हैं तब प्रकृति जो कि हमारी माता है, के साथ हमारा सेवा का संबंध स्थापित हो जाता है।

                   ईशा  वास्यमिद्सर्वं यत्किच्ञ जगत्यां जगत्।
                   तेन त्यक्तेन भुज्था मा गृघः कस्य स्विद् धनम।।
{ईशावास्योपनिषद्-1}

जब हम यह समझ लेते हैं कि ईश्वर नित्य, अविनाशी, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वात्मा और सर्वश्रेष्ठ हैं, तथा देवता, पितर और मनुष्य आदि जितनी भी योनिंया तथा  भोगसामाग्री है सभी विनाशशील, क्षणभंगुर और जन्म-मृत्युशील होने के कारण दुःख के कारण हैं, तथापि इनमें जो शक्ति  और चेतना है, वह सभी भगवान की है। भगवान के इस संसार को सुचारू रूप से चलते रहने के लिए ही हमें इसमें सेवा-पूजा हेतु लगना है, न कि इनमें ममता और आसक्ति करनी है। कब यह शरीर छोड़ कर इस संसार से जाना है, अगला सांस आयेगी या नहीं इसकी भी हमें जानकारी नहीं है, तब हमें हर क्षण सत्र्तक  रहते हुए सभी कार्यों को करते रहना चाहिए। इससे जीवनयात्रा सुखपूर्वक चलती है और अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है एवं भगवत्कृपा से हम सहज ही मृत्युमय संसार-सागर से तर जाते हैं। जब तक यह  दुर्लभ मानव शरीर हमारे पास है और ईश्वर की कृपा से साधन-सामग्री भी उपलब्ध है तभी तक  शीघ्र-से-शीघ्र  ईश्वर को जान लिया जाये तो सब प्रकार से कुशल है और मनुष्य  जन्म की सार्थकता है। यदि यह अवसर अबकी बार हाथ से निकल गया  तब पता नहीं दुबारा कब प्राप्त होगा भी या नहीं, या इसी प्रकार अनेकों योनियों में जन्म मृत्यु के इस चक्र में भटकते  रहेगें। अतः हमें आज और अभी से ही इस मार्ग पर चल पड़ना है और जहां हैं , जो भी परिस्थिति ईश्वर के द्वारा प्रदान की गयी है, उसी में अपने स्वरूप को पहचान कर, जीव जो कि ईश्वर का ही अंश है केवल  माया के वशीभूत होकर अपने स्वरूप को भूल चूका है, इन दोनों को मिलन करना है। जब तक जीवात्मा, और परमात्मा का मिलन नहीं होता तब तक ही हम अशान्त हैं, दुखी हैं, भटक रहे हैं, जब इनमें भेद समाप्त हो जाता है जब नदी सागर में मिल कर सागर का ही रूप ले लेती है, तब हम हम नहीं रहते सब ईश्वर मय हो जाता है, अंश अपने अंशी में मिल जाता है, द्वैत भाव समाप्त होकर जीवात्मा और परमात्मा के बीच का परदा समाप्त हो जाता है। केनोपनिषद में वेद भगवान कहते हैः-

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।।
{द्वितीय खण्ड-3}

जो महापुरूष ईश्वर का साक्षात कर लेते हैं उन्हें यह अभिमान नहीं रह जाता कि हमने ईश्वर को जान लिया है।  वे परमात्मा के अनन्त असीम महीमा में मग्न रहते हुए यही मानते हैं कि परमात्मा स्वंय ही अपने को जानते है, दूसरा कोई भी ऐसा नहीं है जो उनका पार पा सके। अतः जो यह मानता है कि मैंने ब्रह्म को जान लिया है, मैं ज्ञानी हॅूं, वह वस्तुतः भ्रम में है, क्योंकि ब्रह्म इस प्रकार ज्ञान का विषय नहीं हैं। जितने भी ज्ञान के साधन हैं, उनमें से एक भी ऐसा नहीं, जो ब्रह्म तक पहुंच सके। अतएव इस प्रकार के जानने वालों के लिए परमात्मा सदा अज्ञात है। जब तक जानने का अभिमान रहता है, तबतक परमात्मा का साक्षत्कार नहीं होता है। परमेश्वर का साक्षात्कार उन्हीं भाग्यवान महापुरूषों को होता है जिनमें जानने का अभिमान नहीं रह गया है। जब हमारा अन्तःकरण पूरी तरह से शुद्ध हो जाता है, सभी  दुर्गण दूर हो जाते हैं, प्रत्येक क्षण ईश्वर को जानने की ही इच्छा रहती है, हमारे सभी कार्य ईश्वर भक्ति के रूप में ही होते हैं, तब ईश्वर ही हम पर दया करके जीवात्मा और परमात्मा के बीच में जो मायारूपी परदा है उसे स्वयं ही हटा लेते हैं तब उसी क्षण वहीं भगवान की प्राप्ति हो जाती है क्योंकि वे तो सदा से ही सर्वत्र विद्यमान  हैं। हमारे अत्यन्त ही समीप हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जीव अपनी शक्ति से इस मायारूपी परदे को नहीं हटा सकता, भगवान की शरण ग्रहण करने पर भगवान की दया के बल से ही हम इससे पार हो सकते है। हमारी इन्द्रियों पर, मन और बुद्धि आदि पर आत्मा का अधिकार है, अतः हम स्वयं मन, बुद्धि और इन्द्रियों को वश में करके भगवान की और बढ़ सकते हैं। परन्तु आत्मा से भी बलवान यह भगवान की माया है, जिसके वशीभूत होकर हम ममता, आसक्ति आदि के द्वारा इस शरीर से वंध गये हैं। अतः  हमें भगवान की शरण में ही जाना चाहिए ताकि, वह स्वयं ही अपनी माया रूपी परदे को हटा कर जीवात्मा एवं परमात्मा का मिलन करा सके। कठोपनिषद में वेद भगवान कहते हैं-
नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा।
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते।।
{तृतीयवल्ली 12}
वह परब्रह्म परमात्मा वाणी आदि कर्मोन्द्रियों से, चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों से और मन-बुद्धिरूप अन्तःकरण से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि वह इन सबकी पहुंच से परे है। परन्तु वह है अवश्य और उसे प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखने वाले को वह अवश्य मिलता है इस बात को जो नहीं स्वीकार करता उसको वह केसे मिल सकता है। अतः हमें दृढ़ निश्चय से निरन्तर उसकी प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए।

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।
अथ मत्र्योऽमृतो भवत्येतावद्धयनुशासनम्।।
{तृतीयवल्ली 15}

कठोपनिषद में यमराज नचिकेता से कहते है कि जब साधक के हृद्य  की ममता, आसक्ति, अभिमान, कत्र्ताभव आदि समस्त  अज्ञान ग्रान्थ्यिां भलीभांति कट जाती है, उसके सब प्रकार के संशय सर्वथा नष्ठ हो जाते है, उसे दृढ़ निश्चय हो जाता है, कि परब्रह्म परमेश्वर अवश्य है और वह अपने हृद्य में ही विराजमान हैं, और वह निश्चय ही मिलते हैं, तब वह इस शरीर में रहते हुए ही परमात्मा का साक्षात करके अमर हो जाता है, अर्थात परमात्मा का वह तात्विक दिव्य स्वरूप उसके विशुद्ध हृद्य में अपने आप प्रकट हो जाता है, उसका प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। बस इतना ही वेदान्त का सनातन उपदेश है।
                        


डा बी के शर्मा
11/440, वसुन्धरा (गाजियाबाद)
9811666162


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