हर कोई अपनी उन्नति चाहता है, यानी अपनी
वर्तमान स्थिति से और अधिक ऊँची स्थिति को प्राप्त करना चाहता है। इसके लिए वह
अरनी पूरी क्षमता से प्रयास भी करता है। ज्यादातर लोग केवल लौकिक या सांसारिक
उन्नति जैसे व्यापार के क्षेत्र में, धन के क्षेत्र में, समाज में प्रतिष्ठा के लिए, उच्च पद प्राप्त करने के लिए अपना ध्यान
केंद्रित करते हुए प्रयास करते रहते हैं। उन्हें अपनी पारलौकिक उन्नति से कोई सरोकार
नहीं होता।
शांति और आनंद की प्राप्ति के लिए हमें भौतिक
उन्नति के साथ-साथ परोपकार के क्षेत्र में भी अपनी उन्नति का प्रयास करते रहना
चाहिए। गीता में आता है ‘मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं से अपना उद्धार
करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और
आप ही अपना शत्रु। जिस मनुष्य के मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उसका तो
वह आप ही मित्र है और जिसने मन तथा इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता है उसके लिए वह
आप ही शत्रु के समान है।’
सभी मनुष्यों में मुख्य रूप दो प्रकार की
वृत्तियाँ होती हैं। एक, विवेकी वृत्ति जो उपर की ओर ले जाने वाली, यानी अपनी
आत्मा को उन्नत बनाने वाली और दूसरी अविवेकी वृत्ति जो अधोगति की ओर ले जाने वाली,
यानी आत्मा का पतन करने वाली। मनुष्य विवेकी वृत्ति से अपनी उन्नति करना चाहता है
लेकिन अविवेकी वृत्ति उसे बलपूर्वक पतन के मार्ग पर ले जाने के लिए अग्रसर रहती
है। इसलिए प्रत्येक कर्म करने से पूर्व सावधानी पूर्वक यह विचार कर लेना चाहिए कि
मैं जो कुछ करने जा रहा हूं, वह सच में मेरे लिए लाभदायक है या नहीं। इससे मेरी
आत्मा की उन्नति होगी या नहीं। यदि कर्म करने में किसी का अहित होता नजर आ रहा है तब
उसे पूर्व में ही सुधार लेना चाहिए। कर्म का बीज जीवन में जैसा बोया जाता है वैसे
ही परिणाम हमारे समक्ष आते हैं। हमारा प्रत्येक कर्म दूसरों को प्रेरणा देने के
लिए तथा उनका उत्साहवर्धन के लिए होना चाहिए। ऐसा करने में हमारे अंदर परोपकार की
भावना प्रबल होगी और पारलौकिक उन्नति के मार्ग प्रशस्त होंगे।
हमें अपने मन और इंद्रियों को अपने वश में
रखे रहने का सतत प्रयास करते रहना चाहिए। व्यर्थ या असत्य बोलना, किसी की निंदा करना या दूसरों के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करना जिससे उसे दुख
या कष्ट पहुंचे, वाणी का दुरुपयोग करना है। इसी प्रकार हम नेत्र से दूसरों को गलत
तरीके से नहीं देखेंगे। कान के द्वारा व्यर्थ की बातें सुनने में लगाकर अपना सीमित
समय नष्ट नहीं करेंगे। उन पदार्थों को ग्रहण नहीं करेंगे जो हमारे स्वास्थ्य पर
प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। इस प्रकार हमें मन और इंद्रियों को अभ्यास और वैराग्य से
अपने वश में रखना चाहिए। इससे हमारी भौतिक उन्नति के साथ-साथ पारमार्थिक उन्नति भी
होती रहेगी। ऐसा करने में हम हमेशा रहने वाली शांति को प्राप्त कर सकेंगे।
इस प्रकार हम स्वयं का मित्र बनकर अपना
उद्धार कर सकते हैं और यदि इसके विपरीत हम जानबूझकर प्रमाद, आलस्य और विषय भोगों में अपने आप को व्यस्त रखेंगे तब हम स्वयं ही अपना पतन
करते हुए अपने ही शत्रु बन जाएंगे। निर्णय हमें ही लेना होगा और उस मार्ग पर भी स्वयं
को ही चलना पड़ेगा। सत्पुरुष और शास्त्र तो हमें उचित मार्ग ही बता सकते हैं अपने
उद्धार या पतन के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं।
धन्यवाद
डॉ बी. के.
शर्मा
(मेरा यह लेख
नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 11 जनवरी 2021 को प्रकाशित हुआ है।)