Thursday, January 14, 2021

तरक्की चाहिए तो पहले खुद से दोस्ती करनी होगी - 14.01.2021

 

हर कोई अपनी उन्नति चाहता है, यानी अपनी वर्तमान स्थिति से और अधिक ऊँची स्थिति को प्राप्त करना चाहता है। इसके लिए वह अरनी पूरी क्षमता से प्रयास भी करता है। ज्यादातर लोग केवल लौकिक या सांसारिक उन्नति जैसे व्यापार के क्षेत्र में, धन के क्षेत्र में, समाज में प्रतिष्ठा के लिए, उच्च पद प्राप्त करने के लिए अपना ध्यान केंद्रित करते हुए प्रयास करते रहते हैं। उन्हें अपनी पारलौकिक उन्नति से कोई सरोकार नहीं होता।

शांति और आनंद की प्राप्ति के लिए हमें भौतिक उन्नति के साथ-साथ परोपकार के क्षेत्र में भी अपनी उन्नति का प्रयास करते रहना चाहिए। गीता में आता है मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं से अपना उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु। जिस मनुष्य के मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उसका तो वह आप ही मित्र है और जिसने मन तथा इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता है उसके लिए वह आप ही शत्रु के समान है।

सभी मनुष्यों में मुख्य रूप दो प्रकार की वृत्तियाँ होती हैं। एक, विवेकी वृत्ति जो उपर की ओर ले जाने वाली, यानी अपनी आत्मा को उन्नत बनाने वाली और दूसरी अविवेकी वृत्ति जो अधोगति की ओर ले जाने वाली, यानी आत्मा का पतन करने वाली। मनुष्य विवेकी वृत्ति से अपनी उन्नति करना चाहता है लेकिन अविवेकी वृत्ति उसे बलपूर्वक पतन के मार्ग पर ले जाने के लिए अग्रसर रहती है। इसलिए प्रत्येक कर्म करने से पूर्व सावधानी पूर्वक यह विचार कर लेना चाहिए कि मैं जो कुछ करने जा रहा हूं, वह सच में मेरे लिए लाभदायक है या नहीं। इससे मेरी आत्मा की उन्नति होगी या नहीं। यदि कर्म करने में किसी का अहित होता नजर आ रहा है तब उसे पूर्व में ही सुधार लेना चाहिए। कर्म का बीज जीवन में जैसा बोया जाता है वैसे ही परिणाम हमारे समक्ष आते हैं। हमारा प्रत्येक कर्म दूसरों को प्रेरणा देने के लिए तथा उनका उत्साहवर्धन के लिए होना चाहिए। ऐसा करने में हमारे अंदर परोपकार की भावना प्रबल होगी और पारलौकिक उन्नति के मार्ग प्रशस्त होंगे।

हमें अपने मन और इंद्रियों को अपने वश में रखे रहने का सतत प्रयास करते रहना चाहिए। व्यर्थ या असत्य बोलना, किसी की निंदा करना या दूसरों के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करना जिससे उसे दुख या कष्ट पहुंचे, वाणी का दुरुपयोग करना है। इसी प्रकार हम नेत्र से दूसरों को गलत तरीके से नहीं देखेंगे। कान के द्वारा व्यर्थ की बातें सुनने में लगाकर अपना सीमित समय नष्ट नहीं करेंगे। उन पदार्थों को ग्रहण नहीं करेंगे जो हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। इस प्रकार हमें मन और इंद्रियों को अभ्यास और वैराग्य से अपने वश में रखना चाहिए। इससे हमारी भौतिक उन्नति के साथ-साथ पारमार्थिक उन्नति भी होती रहेगी। ऐसा करने में हम हमेशा रहने वाली शांति को प्राप्त कर सकेंगे।

इस प्रकार हम स्वयं का मित्र बनकर अपना उद्धार कर सकते हैं और यदि इसके विपरीत हम जानबूझकर प्रमाद, आलस्य और विषय भोगों में अपने आप को व्यस्त रखेंगे तब हम स्वयं ही अपना पतन करते हुए अपने ही शत्रु बन जाएंगे। निर्णय हमें ही लेना होगा और उस मार्ग पर भी स्वयं को ही चलना पड़ेगा। सत्पुरुष और शास्त्र तो हमें उचित मार्ग ही बता सकते हैं अपने उद्धार या पतन के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं।

                                    धन्यवाद
                                     डॉ बी. के. शर्मा

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 11 जनवरी 2021 को प्रकाशित हुआ है।)

Saturday, January 9, 2021

गीता ज्ञान का सागर है, हमें कर्म की राह पर ले जाती है - 09.01.2021

 

मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष मोक्षदा एकादशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश युद्ध भूमि में दिया था। महाभारत के युद्ध का शंखनाद हो चुका था लेकिन विपक्ष में अपने संबंधियों को देखकर अर्जुन को मोह उत्पन्न हो गया और वह भगवान से कहने लगा, ‘क्या उचित है, युद्ध करना या ना करना? मुझे शिक्षा दीजिए, मैं आपकी शरण में हूँ। मैं युद्ध नहीं करूंगा। अर्थात उस समय जो अर्जुन का कर्तव्यकर्म था उससे पीछे हटने लगा। ऐसी ही स्थिति कभी-कभी हमारी भी हो जाती है जब हम किसी कार्य को करने की काफी समय तक तैयारी करते हैं लेकिन कार्य के शुरू करने के ठीक पहले भावनाओं में बहकर या किन्हीं अन्य कारणों से हम अपने कर्तव्यकर्म के विषय में उचित निर्णय नहीं ले पाते। यानी कर्तव्य-अकर्तव्य के असमंजस में फंस जाते हैं और अपने नियत कर्तव्यकर्म का त्याग भी कर बैठते हैं। ऐसी स्थिति में अर्जुन की ही तरह गीता में भगवान द्वारा दिए गए उपदेश हमारा आज भी उचित मार्गदर्शन करते हैं। और निस्वार्थ भाव से हमें अपने कर्तव्यकर्म करने की प्रेरणा देते हैं।

महात्मा गांधी जी के अनुसार मानव जीवन ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय है और गीता इन से संबंधित सभी समस्याओं का समाधान है। स्वाध्याय पूर्वक गीता का किया गया अध्ययन जीवन के गूढ़ रहस्य को उजागर करता है।

भगवद गीता एक उत्तम, प्रत्यक्ष फल देने वाला, अति पवित्र और साधन करने में बड़ा सुगम अलौकिक ग्रंथ है। अनेक शास्त्रों में मनुष्यों के लिए जितने भी कल्याण कारक साधन बतलाए गए हैं। उन सभी को गीता में बतलाया गया है। अर्जुन युद्ध रूपी अपना कर्तव्यकर्म करते हुए अपने कल्याण की भी इच्छा रखते थे। इसलिए गीता में उनके सभी प्रश्न कल्याण के ही विषय में पूछे गए। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने सब जीवों के कल्याणार्थ अर्जुन के बहाने इस तात्विक ग्रंथ रत्न को संसार में प्रकट किया है। वाराह पुराण में भगवान स्वयं कहते हैं कि मैं गीता के आश्रय में रहता हूँ, गीता मेरा श्रेष्ठ घर है। गीता के ज्ञान का सहारा लेकर ही मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ।

गीता, ज्ञान का अथाह समुद्र है। कोई भी कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य यदि व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यापारिक या सामाजिक समस्या का सामना करता हो तो उसे गीता में भगवान के कहे गए किसी न किसी श्लोक में उचित मार्ग अवश्य ही मिल जाएगा। गांधी जी का कहना था कि जब कभी संदेह मुझे घेरते हैं और मेरे चेहरे पर निराशा छाने लगती है तब मैं क्षितिज पर गीता रूपी एक ही उम्मीद की किरण देखता हूँ। इसमें मुझे अवश्य ही एक छंद मिल जाता है जो मुझे सांत्वना देता है तब मैं कष्टों के बीच मुस्कुराने लगता हूँ। जिस मोह के  कारण अर्जुन ने शुरू में ही कह दिया था कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, गीता का पूरा उपदेश सुनने के बाद अर्जुन ने अपने अंतिम श्लोक में कहा है कि हे अच्युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है अब मैं संशय रहित हो गया हूँ। आपकी आज्ञा का पालन करूंगा। हमें भी नित्य प्रति गीता के कुछ श्लोकों का अध्यनन एवं चिंतन करते रहना चाहिए ताकि हम भी भगवान की आज्ञानुसार अपना कर्तव्य कर्म निःस्वार्थ भाव से करते हुए तनाव रहित जीवन का आन्नद लेने के साथ-साथ कर्म बन्धन से भी मुक्त रह सकें।

                                         धन्यवाद                                              डॉ बी. के. शर्मा


(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 25 दिसम्बर, 2020, गीता जयंती के दिन प्रकाशित हुआ है।)