Monday, March 22, 2021

प्रसन्नता का रास्ता मन के ठहराव से ही खुलता है।


मनुष्य के अंदर दुख, शोक, चिंता, भय या व्याकुलता आने के मुख्य रूप से दो ही कारण होते हैं। पहला, प्रिय या इच्छित वस्तु, परिस्थिति या व्यक्ति का वियोग हो जाना और दूसरा, अप्रिय या अनिष्ट वस्तु, परिस्थिति का संयोग या प्राप्ति का हो जाना। इन दोनों परिस्थितियों में कुछ व्यक्ति बहुत अधिक दुखी या व्याकुल हो जाते हैं और मानसिक तनाव के कारण बीमार हो जाते हैं। परंतु कुछ व्यक्ति विपरीत या प्रतिकूल परिस्थिति में कम प्रभावित होते हैं या उससे जल्दी बाहर निकल कर अपने दैनिक क्रियाकलापों में व्यस्त हो जाते हैं। वे जानते हैं कि अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ तो सभी के जीवन में आती-जाती रहती हैं। हमेशा एक सी ही स्थिति नहीं रहती क्योंकि प्रकृति में लगातार परिवर्तन होता रहता है। इन दोनों प्रकार के व्यक्तियों के अलावा कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो काल्पनिक स्थिति का विचार करते रहने के कारण भयभीत या व्याकुल रहते हैं, जैसे, कहीं मुझे कोविड या दूसरी कोई बड़ी बीमारी न हो जाए उस समय मेरा या परिवार का क्या होगा। या यदि उनके परिवार का कोई व्यक्ति गाड़ी से घर से बाहर गया है, तब वे यह सोच कर व्याकुल होते रहते हैं कि कहीं रास्ते में कुछ हो न जाए।

 

भगवान ने गीता में कहा है कि जिस मनुष्य के व्यवहार या क्रियाकलापों से दूसरे मनुष्य उद्विग्न या व्याकुल नहीं होते, या वह स्वयं भी दूसरे मनुष्यों से उद्विग्न नहीं होता। जो सुख-दुख या ईर्ष्या, भय और उद्विग्नता से रहित है, वह मनुष्य मुझे प्रिय है। इस श्लोक में भगवान ने तीन बार उद्वेग के विषय में कहा है। अन्य शास्त्रों में भी तीन प्रकार के ताप या दुख का जिक्र आता है। गीता में आता है, ‘दुखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा इच्छारहित है। जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा व्यक्ति स्थिर बुद्धि कहा जाता है। इसलिए स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य उपरोक्त तीनों प्रकार की परिस्थिति आने पर भी बहुत व्याकुल नहीं होता। उसमें कोई बहुत बड़ी हलचल नहीं होती, वह शान्त रहता है। तब वह अपना कार्य और भी विचारपूर्वक सावधानी के साथ करते हुए उस प्रतिकूल परिस्थिति से बहुत शीघ्र ही बाहर निकल जाता है।

 

यदि हमें अपना कार्य पूरा करने के बाद इच्छानुसार परिणाम प्राप्त नहीं हुआ, तब हमें व्याकुल होने के स्थान पर उस पर भलीभांति विचार करना चाहिए कि कहां पर हमसे कमी रह गई। उस पर ध्यान रखते हुए भविष्य में फिर प्रयास कर सकते हैं। इसी प्रकार हमारे प्रति दूसरों का व्यवहार या उनकी क्रियाओं पर हमारा वश नहीं है, तब हम उनसे अपने मन को क्यों व्याकुल करते हुए अपने स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं? इसके अतिरिक्त मन में आने वाले काल्पनिक विचारों से भी अपने मन को व्याकुल नहीं करना चाहिए। जो हो चुका है, उससे सीख या ज्ञान लेकर भविष्य के प्रति सावधान हो सकते हैं। वर्तमान में किये जाने वाले कर्मों को पूरे शांत मन से परिस्थिति के अनुरूप खुशी-खुशी करने का प्रयास करना चाहिए, इसी में हमारा कल्याण निहित है। इसके अतिरिक्त दूसरों की उन्नति होने पर हमें उनसे ईर्ष्या का भाव रखकर अपने मन को मलिन या व्याकुल नहीं करना चाहिए। जितना हमारा मन शांत रहेगा उतनी ही प्रसन्नता हम प्राप्त करेंगे। स्वस्थ जीवन के लिए शांत और प्रसन्न रहना आवश्यक भी है।

धन्यवाद

डॉ. बी. के. शर्मा

(गीता पर आधारित मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 22 मार्च 2021 को प्रकाशित हुआ है)

 

 

Sunday, March 7, 2021

राग - द्वेष से लिप्त कर्म किसी का कल्याण नहीं करते - नया पॉडकास्ट सुनें

 भगवान ने गीता में समभाव /समता को ही योग कहा है यदि हम समान भाव या पक्षपात रहित होकर अपने कर्तव्य कर्म करते हैं तब ऐसे कर्म बंधन कारक नहीं होते कर्मों में राग द्वेष रखना ही पाप की श्रेणी में आता है इस विषय पर आधारित मेरा नया पॉडकास्ट सुनें ।धन्यवाद 

 

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राग - द्वेष से लिप्त कर्म किसी का कल्याण नहीं करते

Saturday, March 6, 2021

जिससे सबका हित सधे, वही कर्म मानव का परम धर्म है

 

हम अकसर अपनी कामना की पूर्ति के लिए ही कार्य शुरु करते हैं, अन्यथा अपने स्वाभाविक या नियत कर्म की तरफ से एक उदासीन भाव रखते हैं। जिन क्रियाओं के साथ हम शारीरिक या मानसिक आधार पर कामना या स्वार्थ पूर्ति के लिए संबंध बना लेते हैं, वे कार्य हमें बंधन में डालने वाले बन जाते हैं। लेकिन कर्मयोगी निस्वार्थ भाव से और दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए अपने स्वभाविक और नियत कर्तव्य पूरी तत्परता और ईमानदारी से करते हुए कर्मबन्धन से मुक्त रहता है। कर्मयोग में दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए कर्म किए जाते हैं और कर्मयोगी का संबंध या योग परमात्मा के साथ हो जाता है।

गीता में भगवान अर्जुन से कहते हैं, ‘तू शास्त्रविधि से नियत किए हुए कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है और कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।’ यानी कि जो कर्म शास्त्रों में निषेध हैं या जिन्हें करने से मना किया गया है, जैसे हिंसा करना, किसी को कष्ट पहुँचाना, चोरी करना, झूठ बोलना, किसी को धोखा देना या अहित करना, वे हमें नहीं करने चाहिए। हमें ऐसे कर्मों का पूर्ण त्याग कर देना चाहिए। जब हम शास्त्र निषिद्ध कर्म करेंगें ही नहीं, तब हमसे केवल शास्त्रविहित कर्म ही होंगे। इन कर्मों से हमारा स्वयं ही कल्याण हो जाएगा। इस प्रकार जितने भी शास्त्रविहित कर्तव्य हमारे सामने करने के लिए आ जाएं, उन्हें पूर्ण निष्काम मन से अहंकार रहित होकर करने पर हम कर्मबन्धन से मुक्त रह सकते हैं।

        गीता में शास्त्रविहित नियत कर्म को यज्ञ कहा गया है। दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए या दूसरों को सुख पहुँचाने के लिए जो कर्म किए जाते हैं, वे सब स्वधर्म या यज्ञार्थ कर्म हैं। इसलिए जब हम स्वधर्मानुसार अपने नियत कर्तव्य करते हैं तब उन कर्मों के माध्यम से ही अनवरत यज्ञकर्म होते रहते हैं। परिणामस्वरूप हम संसार में रहते हुए भी संसार के बन्धन से मुक्त रहते हैं। जब हम स्वधर्म का पालन नहीं करते, तब बुरे कर्मों में हमारी आसक्ति हो जाती है और हम संसार बन्धन में पड़कर बार-बार जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। गीता में भगवान कहते हैं, ‘यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्म कर।’

        कर्मों की गति बड़ी ही सूक्ष्म होती है। इसलिए भलीभांति विचार करके ही कर्म करने चाहिए। शुभ कर्म और अशुभ कर्म के फल उसके अनुसार अवश्य मिलते हैं। अशुभ कर्म करने से दुख या प्रतिकूल परिस्थिति और शुभ या यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्म करने से सुख या अनुकूल परिस्थिति की प्राप्ति होती है। इसलिए सदाचारी पुरुष सदा शुभ कार्य ही करते है और शरीर, मन, वाणी से सभी प्राणियों का कल्याण ही करते हैं। कर्म अपना असर अवश्य छोड़ता है। कर्म शुभ हो या अशुभ वह कभी मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ता, कर्म के अनुसार उसका फल उसी को भोगना पड़ता है, दूसरा व्यक्ति उसे नहीं भोग सकता। निर्धारित कर्मफल उसे कर्म के अनुरुप भोगना पड़ता है। इसलिए प्रत्येक कर्म दूसरों के हित का भाव अपने अंदर रखते हुए बड़ी सावधानी के साथ पूरे निष्काम भाव से करना चाहिए।

डॉ. बी. के. शर्मा

 

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 4 मार्च 2021 को प्रकाशित हुआ है)