Tuesday, May 10, 2022

जिसमें किसी को भय नहीं होता , वही अभय होता हे


 इस लिंक पर क्लिक करें:


जिसमें किसी को भय नहीं होता , वही अभय होता हे 

आदि शंकराचार्य ने जीव और ब्रह्म के एकत्व का प्रतिपादन किया

 वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन केरल के कालड़ी ग्राम में लगभग 2200 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिवगुरू भट्ट ने जब पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान शिव की आराधना की तब भगवान शिव ने इनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर कहा वर मांगो। इनके पिता ने एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र मांगा। भगवान शंकर ने कहा कि वत्स दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा, बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो, तब इनके पिता ने सर्वज्ञ पुत्र मांगा। भगवान शिव ने कहा कि मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।

                आद्य शंकराचार्य आठ वर्ष की आयु में ही अपनी माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरू की खोज में निकल पड़े। वेदान्त के गुरू गोविन्द भगवदपाद जी से ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात आपने सारे देश का भ्रमण किया। बारह वर्ष की आयु में ही आप सभी शास्त्रों में पारंगत हो गये थे और 32 वर्ष की आयु में आपने केदारनाथ धाम से कैलाश (शिव) लोक को गमन किया।

                भगवान श्री शंकराचार्य जी ने भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। जिनमें दक्षिण में श्रंगेरी पीठपश्चिम में द्वारिका शारदा पीठपूर्व में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन पीठ और उत्तर में बद्रीकाश्रम में ज्योतिपीठ की स्थापना की। अपने प्रमुख शिष्य सुरेश्वराचार्यहस्तमलकाचार्यपदमपादाचार्य और तोटकाचार्य जी को चारों मठों का प्रथम शंकराचार्य बनाया। इस तरह से आपने पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया।

                भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य के दर्शन में निर्गुण और सगुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन करते हैं। तत्वमसि’ तुम ब्रह्म होअहं ब्रह्मास्मि’ मैं ब्रह्म हूँ, ‘अयमात्मा ब्रह्म’ यह आत्मा ही ब्रह्म है। इन वेदवाक्यों के द्वारा जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रतिपादन आदि शंकराचार्य ने किया। एक तरफ आपने सनातन हिंदू धर्म के दार्शनिक आधार को अद्वैत चिन्तन के माध्यम से पुनर्जीवित किया वहीं दूसरी तरफ समाज में प्रचलित मूर्ति पूजा का भी समर्थन किया। आपने जीव और ब्रह्म के एकत्व का प्रतिपादन अद्वैत दर्शन के द्वारा किया और इनमें अंतर का कारण केवल अज्ञानअविद्या या जीव के अंतःकरण की मलिनता ही है। अतः जीव की मुक्ति के लिए अज्ञान का निवारण या अंतःकरण की शुद्धि आवश्यक है। जिस प्रकार गंदला जल भी कीचड़ के बैठ जाने पर स्वच्छ दिखाई देता हैउसी प्रकार जीव के अंदर से अज्ञान के दूर हो जाने पर आत्मा का स्वरूप भी उसे स्पष्ठतया दृष्टिगोचर होने लगता है।

                आचार्य पाद श्री शंकराचार्य जी ने ब्रह्मसूत्रश्रीमदभगवतगीताश्री विष्णु सहस्त्रनाम और बारह प्रमुख उपनिषदों पर अपने भाष्य लिखे और साथ साथ मनोकामना पूर्ण करने वाले अनेकों सुदर स्त्रोतों की भी रचना की। मुमुक्षु पुरूषों के लिए विवेकचूड़ामणिआत्मबोधतत्वबोध और भजगोविन्दम् आदि अनेकों ग्रन्थों में सुगम भाषा शैली द्वारा वेदान्त के सिद्धान्तों को जनकल्याण की दृष्टि से प्रस्तुत किया। विवेक चूड़ामणि में आदि शंकर कहते हैं कि ‘‘जैसे असावधानता वश (हाथ से छूटकर) सीढ़ियों पर गिरी हुई खेल की गेंद एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर गिरती हुई नीचे चली जाती है वैसे ही चित्त अपने लक्ष्य (ब्रह्म) से हटकर थोड़ा भी बर्हिमुख हो जाता है तो फिर बराबर नीचे ही की ओर गिरता जाता है।’’ और भजगोविंदम् में कहते हैं कि ‘‘कामक्रोधलोभ और मोह को त्यागकर अपने लिए विचार करो कि मैं कौन हूँ। तुझमेंमुझमें और अन्य भी सबमें एक वासुदेव ही हैंइसलिए कोप करना व्यर्थ हैसबको सहन करने वाला होआत्मा को ही सबमें देखभेदरूपी अज्ञान को सर्वदा त्याग दे और सर्वदा गोविन्द का भजन कर।

बी के शर्मा

Tuesday, February 1, 2022

दूसरों से अपेक्षा रखना दुख का बड़ा कारण है

 

हम देखते हैं कि अधिकांश मनुष्य यदि किसी अन्य व्यक्ति की कुछ मदद या सहायता कर देते हैं तब वह उससे यह अपेक्षा रखते हैं कि वह भी समय आने पर उनकी मदद करेगा। यदि वह अपने कर्तव्य कर्म करते हुए अपने बच्चों को भी पढ़ा लिखा कर आत्मनिर्भर कर देते हैं तब उनसे भी उनकी अपेक्षा रहती है कि वह भी उनके वृद्ध होने पर उनकी भली प्रकार से देखभाल करेंगे। यदि दूसरों से की गई उसकी अपेक्षाएं पूरी हो जाती हैं तब तो उसे सुख और आनन्द की अनुभूति होती है, अन्यथा वह दुखी हो जाता है और कभी कभी वह अवसाद की अवस्था में पहुँच जाता है यह उसके द्वारा की गयी अपेक्षा की मात्रा पर निर्भर करता है।


 अपेक्षा रखने वाले मनुष्य की यह अवधारणा बन जाती है कि उससे संबंध रखने वाले सभी व्यक्ति उसके मन के अनुकूल ही व्यवहार या कार्य करें। यदि उसके मन के अनुसार वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति आदि होती है तब वह सुख का अनुभव करता है। उसके मन के अनुकूल न होने पर वह दुखी होता है ऐसी स्थिति में जो उसने उन व्यक्तियों के प्रति सहायता आदि किये थे उनके विषय में सबसे कहता रहता है। समय के साथ आये हुए परिवर्तन को वह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होता। वह अपने पुराने सिद्धान्तों को ही पकड़े रखता है और उन्हें ही सही मानता है जो कि उचित नहीं है। समय के बदलने के साथ यदि हमारा कोई विचार या सिद्धान्त अनुपयोगी हो गया है तब उन्हें व्यवहार कुशलता के लिए छोड़ना भी आवश्यक हो जाता है। समय के साथ बच्चों के बड़ा हो जाने पर उनकी भी अपने से बड़े व्यक्तियों से कुछ अपेक्षाएं हो जाती हैं और कोई भी अपने में समय के अनुकूल परिवर्तन न लाये तब छोटी-छोटी बातों में टकराव की स्थिति बन जाती है।


 प्रकृति निरन्तर परिवर्तनशील है। समय के साथ-साथ सबमें परिवर्तन होता रहता है चाहें वह हमारा अपना शरीर हो, परिवार हो, वस्तु या पदार्थ हो, राजनैतिक या सामाजिक परिस्थिति हो। अतः हमें भी अपने व्यवहार में उचित परिवर्तन को निर्लिप्त भाव से अपनाने का सामर्थ्य रखना चाहिए। जैसे हमारे शरीर में बचपन से जवानी और बुढ़ापा आदि आने पर कितना परिवर्तन हो जाता है, हम उसके साथ तादातम्य कर लेते हैं उसे साक्षी भाव से देखते हैं और यथायोग्य हमारे अंदर विचारों की परिपक्वता आदि परिवर्तन आता रहता है। लेकिन बाहरी जगत के परिवर्तन को और दूसरों से की गयी अपेक्षाओं में हम बदलाव नहीं लाना चाहते। शास्त्र में भी आता है कि किसी अन्य से कोई अपेक्षा रखना ही परम दुःख है और अपेक्षा न रखना ही सुख है। अपेक्षा भी एक प्रकार की सूक्ष्म कामना का ही स्वरूप है जो हमारे अंतःकरण में रहती है, बाहरी व्यक्ति को दिखाई नहीं देती परन्तु अंदर से हमें अशान्त रखती हैं।


 इसलिए यदि हम अपना कर्तव्य कर्म समझकर किसी की मानवता के नाते कोई सहायता करते हैं और उसके बदले में उससे भी अपेक्षा रखते हैं तब तो मदद करने में हमारा स्वार्थ भाव या एक प्रकार से व्यापारिक संबंध बन जाता है। यदि हम अपने अंतःकरण में किसी प्रकार की अपेक्षा का भाव न रखते हुए दूसरों की सहायता निस्वार्थ भाव से करते हैं तब हम देखेंगे कि समय आने पर वह हमसे भी बढ़कर हमारी सहायता करेगा और अपने अंतःकरण में भी हमारे लिए शुभ संकल्प ही करेगा। आज भी समाज में अधिकांश व्यक्ति अच्छी मानसिकता रखते हैं। इस प्रकार यदि हम किसी के प्रति कुछ अच्छा करते हैं तब अपना कर्तव्य कर्म समझते हुए उसे भूल जाएं लेकिन यदि कोई दूसरा व्यक्ति हमारे लिए अच्छा करता है तब उसे हमेशा याद रखें और समय आने पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसकी पूरी सहायता करें। दूसरों से अपेक्षा न रखने पर उसके पूरा होने या न होने पर हम सुखी-दुखी नहीं होंगे और एक आनन्दित जीवन व्यतीत करते रहेंगे।

बी के शर्मा