वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन केरल के कालड़ी ग्राम में लगभग 2200 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिवगुरू भट्ट ने जब पुत्र प्राप्ति के लिए भगवान शिव की आराधना की तब भगवान शिव ने इनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर कहा वर मांगो। इनके पिता ने एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र मांगा। भगवान शंकर ने कहा कि वत्स दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा, बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो, तब इनके पिता ने सर्वज्ञ पुत्र मांगा। भगवान शिव ने कहा कि मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।
आद्य शंकराचार्य आठ वर्ष की आयु में ही अपनी माता से सन्यास की अनुमति लेकर गुरू की खोज में निकल पड़े। वेदान्त के गुरू गोविन्द भगवदपाद जी से ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात आपने सारे देश का भ्रमण किया। बारह वर्ष की आयु में ही आप सभी शास्त्रों में पारंगत हो गये थे और 32 वर्ष की आयु में आपने केदारनाथ धाम से कैलाश (शिव) लोक को गमन किया।
भगवान श्री शंकराचार्य जी ने भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। जिनमें दक्षिण में श्रंगेरी पीठ, पश्चिम में द्वारिका शारदा पीठ, पूर्व में जगन्नाथ पुरी में गोवर्धन पीठ और उत्तर में बद्रीकाश्रम में ज्योतिपीठ की स्थापना की। अपने प्रमुख शिष्य सुरेश्वराचार्य, हस्तमलकाचार्य, पदमपादाचार्य और तोटकाचार्य जी को चारों मठों का प्रथम शंकराचार्य बनाया। इस तरह से आपने पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने का कार्य किया।
भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य के दर्शन में निर्गुण और सगुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन करते हैं। ‘तत्वमसि’ तुम ब्रह्म हो, अहं ब्रह्मास्मि’ मैं ब्रह्म हूँ, ‘अयमात्मा ब्रह्म’ यह आत्मा ही ब्रह्म है। इन वेदवाक्यों के द्वारा जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रतिपादन आदि शंकराचार्य ने किया। एक तरफ आपने सनातन हिंदू धर्म के दार्शनिक आधार को अद्वैत चिन्तन के माध्यम से पुनर्जीवित किया वहीं दूसरी तरफ समाज में प्रचलित मूर्ति पूजा का भी समर्थन किया। आपने जीव और ब्रह्म के एकत्व का प्रतिपादन अद्वैत दर्शन के द्वारा किया और इनमें अंतर का कारण केवल अज्ञान, अविद्या या जीव के अंतःकरण की मलिनता ही है। अतः जीव की मुक्ति के लिए अज्ञान का निवारण या अंतःकरण की शुद्धि आवश्यक है। जिस प्रकार गंदला जल भी कीचड़ के बैठ जाने पर स्वच्छ दिखाई देता है, उसी प्रकार जीव के अंदर से अज्ञान के दूर हो जाने पर आत्मा का स्वरूप भी उसे स्पष्ठतया दृष्टिगोचर होने लगता है।
आचार्य पाद श्री शंकराचार्य जी ने ब्रह्मसूत्र, श्रीमदभगवतगीता, श्री विष्णु सहस्त्रनाम और बारह प्रमुख उपनिषदों पर अपने भाष्य लिखे और साथ साथ मनोकामना पूर्ण करने वाले अनेकों सुदर स्त्रोतों की भी रचना की। मुमुक्षु पुरूषों के लिए विवेकचूड़ामणि, आत्मबोध, तत्वबोध और भजगोविन्दम् आदि अनेकों ग्रन्थों में सुगम भाषा शैली द्वारा वेदान्त के सिद्धान्तों को जनकल्याण की दृष्टि से प्रस्तुत किया। विवेक चूड़ामणि में आदि शंकर कहते हैं कि ‘‘जैसे असावधानता वश (हाथ से छूटकर) सीढ़ियों पर गिरी हुई खेल की गेंद एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर गिरती हुई नीचे चली जाती है वैसे ही चित्त अपने लक्ष्य (ब्रह्म) से हटकर थोड़ा भी बर्हिमुख हो जाता है तो फिर बराबर नीचे ही की ओर गिरता जाता है।’’ और भजगोविंदम् में कहते हैं कि ‘‘काम, क्रोध, लोभ और मोह को त्यागकर अपने लिए विचार करो कि मैं कौन हूँ। तुझमें, मुझमें और अन्य भी सबमें एक वासुदेव ही हैं, इसलिए कोप करना व्यर्थ है, सबको सहन करने वाला हो, आत्मा को ही सबमें देख, भेदरूपी अज्ञान को सर्वदा त्याग दे और सर्वदा गोविन्द का भजन कर।
बी के शर्मा
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