Friday, February 24, 2023

हमारे द्वारा किये गये कर्म का फल हमें स्वयं को ही भुगतना होता है।

 

मनुष्य द्वारा किये गये कर्म का फल सुख या दुख के रूप में उसे स्वयं को ही भोगना पड़ता है, दूसरा कोई उसे नहीं भोग सकता। जिस जिस प्रकार से कर्मफल को भोगना निश्चित होता है, उसे वैसे ही और स्वयं को ही भोगना पड़ता है। ऐसा सभी शास्त्रों में कहा गया है। महाभारत युद्ध के समाप्त होने पर जब युधिष्ठर जी बाणों की शैय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह जी के पास जाते हैं और कहते हैं कि मैंने ही आपके जीवन का अन्त किया है और मेरे ही द्वारा अनेकों मनुष्यों का भी वध हुआ है, इससे मुझे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती। मुझे कुछ ऐसा उपदेश दीजिए जिससे मैं इस पाप से छुटकारा पा सकुँ।
महाभारत ग्रंथ जिसको पंचम वेद भी कहा जाता है, उसके अनुशासन पर्व में वर्णन आता है कि भीष्म पितामह जी एक गौतमी बूढ़ी स्त्री, बहेलिया, सर्प, मृत्यु और काल के संवादरूप प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हुए युधिष्ठर जी को समझाते हुए कहते हैं। 

पूर्वकाल में गौतमी स्त्री जो शांति के साधन में लगी रहती थी उसके इकलौते पुत्र को साँप ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गयी। इतने में ही एक बहेलिये ने उस साँप को अपने जाल में बाँध लिया और कहा कि उस साँप के कारण ही तुम्हारे पुत्र की मृत्यु हुई है, अतः बताओ मैं किस प्रकार उसका भी वध करूँ। तब गौतमी स्त्री ने कहा कि यह साँप मारने योग्य नहीं है, इसको मारने से मेरा पुत्र जीवित नहीं हो सकता, होनहार को कोई टाल नहीं सकता। अतः इसे मत मारो। बहेलिया उसकी बात से सहमत नहीं था और कहने लगा कि यदि यह साँप जीवित रहा तो बहुतों को काटेगा, अतः इसको मारना ही ठीक है। उसके बार बार समझाने पर भी गौतमी स्त्री साँप को मारने के लिए तैयार नहीं थी। तभी बँधन से पीड़ित होकर धीरे धीरे सांस लेता हुआ वह साँप बड़ी कठिनाई से अपने को सँभालकर मनुष्य की वाणी में बोला, "अरे नादान बहेलिये इसमें मेरा कोई दोष नहीं है, मैं तो पराधीन हूँ, मृत्यु ने मुझे प्रेरित किया है, उसी के कहने से मैंने इस बालक को डँसा है, क्रोध करके या अपनी इच्छा से नहीं। यदि इसमें कुछ अपराध है तो वह मेरा नहीं, मृत्यु का है। जैसे मिट्टी का बर्तन बनाने में दण्ड और चक्र कारण होते हुए भी कुम्हार के अधीन होते हैं इसलिए स्वतंत्र नहीं माने जाते, इसी प्रकार मैं भी मृत्यु के अधीन हूँ। 

इसके बाद भी बहेलिया जब साँप को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ, तब उसी समय मृत्यु ने आकर कहा कि सर्प! काल की प्रेरणा से मैंने तुझे प्रेरित किया था, इसलिए उस बालक के विनाश में न तो मैं कारण हूँ और न तू ही है। जैसे हवा बादलों को इधर उधर उड़ा कर ले जाती है, उसी प्रकार मैं भी काल के वश में हूँ। सात्विक, राजस और तामस जितने भी भाव हैं, वे सब काल की प्रेरणा से प्राणियों को प्राप्त होते हैं। यह सारा जगत ही काल का अनुसरण करने वाला है। इसके बाद भी बहेलिये ने कहा कि उस बालक की मृत्यु में तुम दोनों ही कारण और अपराधी हो। तब तक वहाँ काल आ पहुँचा और कहने लगा कि मैं, मृत्यु तथा यह सर्प कोई भी अपराधी नहीं है। प्राणियों की मृत्यु में हम लोग प्रेरक नहीं हैं। इस बालक ने जो कर्म किया था, उसी से इसकी मृत्यु हुई है। इसके विनाश में इसका कर्म ही कारण है। जैसे कुम्हार मिट्टी के लोंदे से जो जो बर्तन बनाना चाहता है बना लेता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्म के अनुसार ही नाना प्रकार के फल भोगता है। जिस प्रकार धूप और छाया दोनों सदा एक दूसरे से मिले रहते हैं, उसी तरह कर्म और कर्ता भी एक दूसरे से सम्बद्ध होते हैं। इस प्रकार विचार करने से मैं, तू, मृत्यु, सर्प अथवा यह बूढ़ी स्त्री कोई भी इस बालक की मृत्यु में कारण नहीं है। यह बालक स्वयं ही अपनी मृत्यु में कारण है।


काल के इस प्रकार कहने पर गौतमी स्त्री को यह निश्चय हो गया कि मनुष्य को अपने कर्म के अनुसार ही फल मिलता है, अतः उसने बहेलिए से कहा कि सचमुच इस बालक की मृत्यु में काल, सर्प या मृत्यु कारण नहीं हैं, यह अपने ही कर्म से मरा है। इसलिए तू इस साँप को छोड़ दे। भीष्म जी ने कहा कि युधिष्ठर इस दृष्टान्त को सुनकर तुम शोक में न पड़ो और शान्ति को धारण करो। सब मनुष्य अपने अपने कर्मों के अनुसार मिलने वाले लोकों में ही जाते हैं। तुमने या दुर्योधन ने कुछ नहीं किया है, काल की ही यह सब करतूत है, उसी ने समस्त राजाओं का संहार किया है। भीष्म जी की यह बात सुनकर धर्मज्ञ राजा युधिष्ठर की चिन्ता दूर हो गयी।

बी. के. शर्मा