Saturday, July 31, 2021
Thursday, July 29, 2021
Wednesday, July 7, 2021
ज्ञान का हमारे जीवन में महत्व एवं ज्ञानी पुरुष के लक्षण
हमारा शरीर क्षेत्र नाम से जाना जाता है यदि जीव को ज्ञान हो जाता है तब क्षेत्र नामक हमारा शरीर धर्मक्षेत्र बन जाता है नहीं तो यह कुरुक्षेत्र बना रहता है जहाँ पर निरंतर धर्म और अधर्म के बीच में युद्ध चलता रहता है और जीव मोह और शोक में पड़ा रहता है। मोह और विषाद के कारण अर्जुन को भी महाभारत युद्ध से ठीक पहले यही स्थिति हो गई जिससे उसके शरीर में कंपन होने लगा, मुख सूख गया, मन भ्रमित हो गया और ठीक से खड़े होने में भी असमर्थ हो गया। जरा विचार कीजिए कि अर्जुन की यह स्थिति तब हुई जब उसके साथ स्वयं कृष्ण भगवान खड़े थे और अर्जुन एक देवपुत्र था, ऐसे में हम जैसे सामान्य मनुष्य की क्या स्थिति हो सकती है। जब अर्जुन भगवान के शरणागत हो गया और बोला कि मैं आपका शिष्य हूँ और जो साधन मेरे लिए निश्चित कल्याणकारक हो वह कहिए और जिससे मेरा शोक भी दूर हो सके। तब भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर हम सभी के कल्याण के लिए गीता का ज्ञान, कर्म और भक्तियोग पर आधारित उपदेश दिया।
ज्ञान के महत्व के विषय में भगवान गीता के श्लोक 4/38 में कहते हैं कि इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है, “न हि ज्ञानेन सदृश्यं पवित्रमिह विद्यते”। यज्ञ, दान, तप, व्रत, उपवास, ती
चार प्रकार के भक्तों में जिनमें अर्थार्थी अर्थात सांसारिक पदार्थों के लिए भजने वाला, आर्त अर्थात संकटनिवारण के लिए भजनेवाला, जिज्ञासु अर्थात भगवान को यथार्थ रूप से जानने की इच्छा से भजनेवाला और ज्ञानी भक्तों में से भगवान ने ज्ञानी भक्त को अति उत्तम बताया है और कहा है कि ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरूप ही है।
तैत्तिरीयोपनिषद में ब्रह्म के विषय में आता है ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ अर्थात परब्रह्म परमात्मा सत्यस्वरूप है, किसी भी काल में उनका अभाव नहीं होता तथा वे ज्ञानस्वरूप हैं उनमें अज्ञान का लेश भी नहीं है और वे अनन्त है अर्थात देश और काल की सीमा से अतीत-सीमारहित है। सभी शरीरों में सनातन जीवात्मा ब्रह्म का अंश होने के कारण ज्ञानस्वरूप ही है लेकिन जीव ने अविद्या या अज्ञान के कारण अपना संबंध शरीर या प्रकृति (जड़) के साथ करने के कारण वह भ्रमित हो गया है और सतस्वरूप एवं ज्ञानस्वरूप होते हुए भी जन्म मृत्यु रूपी संसार में भटक रहा है। जब उसका अंतःकरण पवित्र हो जाने पर जीव भाव रूपी अज्ञान समाप्त हो जाता है, तब उसके अंतःकरण में स्वयं ही ज्ञान प्रकट हो जाता है। केवल अनित्य पदार्थों के साथ संबंध रखने के कारण वह अज्ञान रूपी जंगल में तब तक भटकता रहता है जब तक उसे अपने नित्य स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता है। गीता के श्लोक 7/19 में भगवान कहते हैं कि “बहुत जन्मों के अंत के जन्म में तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष सब कुछ वासुदेव ही है - इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा दुर्लभ है।”
हम भी अनंत जन्मों से भटक रहे हैं अतः इसी मनुष्य जन्म को अपना अंतिम जन्म मानकर उस तत्वज्ञान को क्यों नहीं प्राप्त करने का प्रयास करते जिससे हम भी जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सकें, यही तो इस मनुष्य जन्म का उद्देश्य भी है।
भगवान ने गीता के अध्याय 18 में श्लोक 20 से 22 तक ज्ञान के भी तीन प्रकार बताए हैं, सात्विक ज्ञान, राजस ज्ञान और तामस ज्ञान। जिस ज्ञान से मनुष्य प्रथक-प्रथक सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, वह सात्विक ज्ञान है। जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है वह राजस ज्ञान है। परंतु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही संपूर्ण के सदृश्य आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला, तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है वह तामस ज्ञान कहलाता है ।
पाँच महाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार, दस इंद्रियाँ और पाँच इंद्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) और मूल प्रकृति इन चौबीस तत्वों का समुदाय ही हमारा शरीर या क्षेत्र कहलाता है। जब जीव जो की परमात्मा का अंश है और चेतन तत्व है जब वह अज्ञान के कारण इन 24 तत्वों के समुदाय रूपी जड़ शरीर के साथ अपना संबंध स्थापित कर लेता है तब इनमें इच्छा, द्वेष, सुख, दुख आदि विकार उत्पन्न होने लगते हैं। चेतन आत्मा का इस जड़ शरीर के साथ संबंध मिटाने के लिए भगवान ने गीता के अध्याय 13 में श्लोक 7 से 11 तक ज्ञान के निम्नलिखित 20 साधन बताएं हैं। जिस मनुष्य के अंदर यह लक्षण होते हैं उसे ज्ञानी पुरुष कहते हैं क्योंकि उसे क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) का भली-भांति ज्ञान है। गीता के श्लोक 13/7 में भगवान ने निम्न 9 ज्ञान के साधन बताएं हैं :
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ।।
1. श्रेष्ठता के अभिमान का त्याग अर्थात अपने को पूज्य या श्रेष्ठ होने का अभिमान न रखना बल्कि दूसरों के प्रति सम्मान का भाव रखना।
2. दंभाचरण का अभाव अर्थात अपने को मान बड़ाई या प्रतिष्ठा मिल जाने के लिए ढोंग या दिखावटीपन का न करना ।
3. किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना या दुख या कष्ट न देना अर्थात अपने अंदर अहिंसा का भाव बनाए रखना ।
4. क्षमा भाव अर्थात यदि कोई हमारा अपमान या अपराध कर दें तब उसके प्रति बदला लेने की भावना न रखना। उसको क्षमा कर देना और अपने अंदर सहनशीलता का भाव रखना।
5. मन-वाणी आदि की सरलता अर्थात सबके साथ सरलता का व्यवहार करना। मन में किसी के प्रति द्वेष भाव न रखना और वाणी से किसी को अप्रिय बात न बोलना आदि।
6. श्रद्धा भक्ति सहित गुरु की सेवा अर्थात अपने गुरु के प्रति और अपने से श्रेष्ठ पुरुषों के प्रति अनुकूल आचरण रखना एवं मन, वाणी और शरीर से उनको सुख पहुंचाने का प्रयत्न करना ।
7. बाहर भीतर की शुद्धि अर्थात शरीर की बाहर से शुद्धि और भीतर से अंतःकरण (मन और बुद्धि) की शुद्धि का होना।
8. अंतः करण की स्थिरता अर्थात कोई कष्ट, विपत्ति या दुख के आ जाने पर विचलित न होना, धैर्य बनाए रखना, स्थिर भाव बनाए रखना।
9. मन, इंद्रियों सहित शरीर का निग्रह अर्थात मन, इंद्रियों तथा शरीर को अपने वश में रखना, इंद्रियों का विषयों में अनावश्यक रूप से ना भटकना।
भगवान ने गीता के श्लोक 13/8 में निम्न तीन ज्ञान के साधन (लक्षण) बताएं हैं।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहक्ङार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानु
10. इस लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव अर्थात अंतःकरण और इंद्रियों द्वारा जिन विषयों शब्द,स्पर्श, रूप, रस और गंध का भोग किया जाता है, उनमें आसक्ति का न होना या अनासक्त भाव रखना।
11. अहंकार का अभाव अर्थात मन, बुद्धि और शरीर के साथ अहम भाव रखना, मैं शरीर हूं इस अहंकार भाव का न रखना। अज्ञान के कारण हमने जो अनित्य वस्तुओं, क्रियाओं, पदार्थों के साथ अपना संबंध बना कर रखा है और सब कार्य मैं ही कर रहा हूं उसका अपने अंदर भाव न रखना।
12. जन्म, मृत्यु, जरा (बुढ़ापा) और रोग आदि में दुख और दोषों का बार बार विचार करना।
भगवान ने गीता के श्लोक 13/9 में निम्न तीन ज्ञान के साधन ( लक्षण) बताएं हैं।
आसक्तिरनभिष्वग्ङ पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु
13. पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव। ऐसा देखा जाता है कि सभी मनुष्यों की पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि प्रिय होने के कारण उनमें उनकी आसक्ति होती है। सभी जानते हैं कि एक दिन इन सभी को छोड़कर जाना पड़ेगा और इस आसक्ति के कारण हमें फिर जन्म लेना पड़ता है और यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक हमारी किसी भी वस्तु या पदार्थ में आसक्ति समाप्त नहीं हो जाती । अतः क्यों न हम इसी जन्म में इस आसक्ति का त्याग कर दें जिससे फिर गर्भ में आकर कष्ट ना भोगना पड़े।
14. ममता का न होना। जो वस्तु या पदार्थ मनुष्य को प्रिय होते हैं उन्हें वह सदा अपने पास बनाए रखना चाहता है चाहे वह उसका अपना शरीर ही क्यों न हो। इसी ममत्व भाव के कारण मनुष्य उन वस्तुओं के साथ स्वयं को बांध लेता है और इसी बंधन के कारण वह मुक्त नहीं हो पाता। यदि विचार करें तब पिछले जन्म में भी हमारी अनेकों वस्तुओं के साथ ममता थी, आज हमें उनकी याद भी नहीं है तब क्यों न हम इस बार इन वस्तुओं के साथ अपनी ममता हम न रखें। व्यवहार के समय तो हम इन्हें भगवान का मानकर उपयोग करें लेकिन अपने अंतःकरण में इन्हें कोई विशेष स्थान न दें क्योंकि एक दिन इन सब को छोड़कर जाना है। निर्लिप्त भाव से रहते हुए जीवन यापन करें।
15. प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रखना। भगवान ने गीता में समता या समभाव को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया है। समत्व योग उच्यते अर्थात समत्व ही योग कहलाता है। प्रिय और अप्रिय, लाभ-हानि, जय-पराजय, अनुकूल - प्रतिकूल परिस्थिति, सिद्धि -असिद्धि सभी परिस्थितियों में स्वयं को समभाव में रखना अर्थात विचलित न होना, धर्य बनाए रखना ।
भगवान ने गीता के श्लोक 13/ 10 में ज्ञान के तीन साधन (लक्षण) बताए हैं।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ।।
16. परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारणी भक्ति। साधक जब ज्ञान हो जाने के उपरांत इस संसार को ईश्वर का ही रूप समझता है, ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, तब वह जो भी कर्म निष्काम और निर्लिप्त भाव से ईश्वर अर्पण बुद्धि से करता है वह उसकी अनन्य योग के द्वारा ईश्वर की अव्यभिचारणी भक्ति हो जाती है। वह ईश्वर के अतिरिक्त अन्य का चिंतन ही नहीं करता।
17. एकांत और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव।
18. विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम का न होना। सांसारिक मनुष्य विषयों में आसक्त रहते हैं, विषयों का ही चिंतन करते रहते हैं, उनकी इंद्रियां विषयों में ही रमण करती रहती है। ज्ञान को प्राप्त साधक ऐसे विषयों में आसक्त रहने वाले मनुष्यों के समुदाय से प्रेम नहीं करता वह इनसे अलग रहना चाहता है। क्योंकि उसकी विषयों में कोई आसक्ति नहीं रहती।
भगवान ने गीता के श्लोक 13/11 में ज्ञान के दो साधन (लक्षण) बतलाए हैं ।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थ दर्शनम ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानम यदतोअन्यथा ।।
19. अध्यात्मज्ञान में नित्यस्थिति। जिस ज्ञान के द्वारा नित्य और अनित्य या आत्मवस्तु और अनात्मवस्तु जानी जाए, उस ज्ञान का नाम अध्यात्म ज्ञान है। अर्थात अपना स्वरूप जो नित्य है बाकी सब शरीर, मन, बुद्धि आदि अनित्य है उसको जानना अध्यात्म है। ज्ञान हो जाने के पश्चात साधक अध्यात्म ज्ञान में ही स्थित रहता है।
20. तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को ही देखना। तत्वज्ञान का अर्थ है परमात्मा अर्थात सब में और सब जगह परमात्मा को ही भिन्न-भिन्न रूपों में देखना, उसके अतिरिक्त और कुछ न देखना। समभाव से नित्य निरंतर, ध्यान पूर्वक अपना जीवन यापन करते रहना ही ज्ञान प्राप्त साधक का स्वभाव बन जाता है।
भगवान ने उपरोक्त श्लोक में यह भी कहा है कि यह सब ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है। अतः सच्चा ज्ञान भगवान ने उपरोक्त 20 साधनों द्वारा हमें बतलाया है। अब हमें अपना आत्म विश्लेषण करना है कि इन बीस ज्ञान के साधनों में से कितने हमने प्राप्त कर लिए हैं और हमारे व्यवहार में आ गए हैं और अभी कितने प्राप्त करने शेष हैं। इन ज्ञान के साधनों द्वारा हम परमात्म तत्व की प्राप्ति कर सकते हैं बस केवल इन की प्राप्ति का ध्येय बनाकर हमें इनको अपने दैनिक जीवन या व्यवहार में लाते रहने का सतत प्रयास करते रहना है। इसी में हमारा कल्याण निहित है। हम जानते हैं कि सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण यह प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण ही अविनाशी जीवात्मा को शरीर से बांधते हैं। इनमें सत्वगुण से ज्ञान और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है और रजोगुण से लोभ, अशांति और विषय भोगों की लालसा उत्पन्न होती है। एवं तमोगुण से अंतःकरण और इंद्रियों में अंधकार, प्रमाद, मोह, निद्रा, कर्तव्यकर्मों में अप्रवृत्ति आदि उत्पन्न होता है। अतः हमें अपने अंदर रजोगुण और तमोगुण के लक्षणों को पहचान कर उन्हें लगातार कम करते हुए सत्वगुण बढ़ाना चाहिए, जिससे हमारी ज्ञान प्राप्त करने के साधनों में रुचि बढ़े। रामचरितमानस के उत्तरकांड में भी आता है
ऐहि तन कर फल विषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।।
नर तनु पाइ विषयै मन देहीं । पलटि सुधा ते सठ विष लेहीं ।।
हे भाई इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषय भोग नहीं है। स्वर्ग का भोग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा देते हैं वह मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं।
अतः हमें यह अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त करके जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है अपने आप को मन और इंद्रियों द्वारा विषय भोगों में नहीं फंसा लेना चाहिए बल्कि निष्काम और निर्लिप्त भाव से अपना कर्तव्य कर्म करते हुए अपने अंतःकरण को पवित्र करके भगवान द्वारा बतलाए गए उपरोक्त 20 ज्ञान के साधनों को अपने अंदर लाने का सतत प्रयास करना चाहिए। इनका दैनिक रूप से चिंतन करते रहना चाहिए और जो इनमें से हमारे अंदर नहीं है उनको अपने व्यवहार में लाते रहना चाहिए। जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने के लिए या मोक्ष प्राप्त करने के लिए ज्ञान ही मुख्य साधन है, बिना आत्मज्ञान के मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। मोक्ष प्राप्त करना या जीव और आत्मा का तत्व ज्ञान द्वारा एकत्व भाव प्राप्त करना ही हमारे मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है ।