Friday, August 14, 2015

जीव की महत्ता

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                        मनुष्‍य जन्म बहुत ही दुलर्भ है, और उसमें भी कलयुग के समय में,  भारतवर्ष देश में और ब्राहमण कुल में जन्म लेना अत्यन्त ही सौभाग्य का विषय है। किंतु लगता है कि हम कहीं भटक गये है, अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पा रहे हैं, ईष्‍वर का अंश होते हुए भी उसे अपने से कहीं बाहर ढूंढते हताश हो रहे हैं। हम सब रामायण में पढ़ते हैं कि बड़े भाग मानुष तन पाया, सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा’’ और ईष्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखरासी’’ और गीता में ममैवांषो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। लेकिन इन पर पूर्ण विश्‍वास नहीं करते। यह तो उसी प्रकार से है कि हम अपनी बीमारी की दवाई भी जानते हैं तथा उसे साथ साथ लेकर घूमते रहते हैं लेकिन उसका अपने ऊपर प्रयोग नहीं करने से ठीक नहीं होते और बार बार अनेक डाक्टरों से संर्पक करते रहते हैं। अतः अनेक सत्सगों, कथाओं में और धर्मग्रन्थों में जो हम सुनते एवं पढ़ते हैं उसको अपने आचरण में लाना है जिससे हम अपना भला कर सकें और समाज का भी भला हो सके। गीता में भगवान कहते हैं-

यद्यदाचरति श्रेश्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते ।। ;गीता 3/21द्ध

श्रेष्‍ठ पुरूष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरूष भी वैसा-वैसा आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्‍य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है। अतः ब्राहमण कुल में जन्म लेने के कारण हमारा कर्तव्य बनता है कि हम अपने आचरण द्वारा अपना और समाज का भला कर सकें । लेकिन कहीं न कहीं आज हम भी भटक गये हैं और अपने आपको न देखकर हमेशा दूसरों के दोषों को देखते रहते हैं और राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि में फंसकर बार-बार जन्म और मृत्यु के फेर में पड़कर संसार में आते-जाते रहते हैं।

महाभारत के शांतिपर्व में भारद्वाज जी के पूछने पर भृगु जी ने कहा है कि जो जातकर्म आदि संस्कारों से सम्पन्न, पवित्र तथा वेदों के स्वाध्याय में संलग्न है ; यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन और दान-प्रतिग्रहद्ध इन छः कर्मों में स्थित रहता है, सौच एवं सदाचार का पालन तथा यज्ञशिष्‍ठ  अन्न का भोजन करता है, गुरू के प्रति प्रेम रखता और नित्य नियमों का पालन करता है, जिसमें सत्य, दान, द्रोह न करना, सबके प्रति कोमल भाव रखना, लज्जा, दया और तप आदि सदगुण देखे जाते हों, वह ब्राहमण कहा गया है। गीता में भगवान ने ब्राहमण के स्वाभाविक कर्मों का वर्णन करते हुए कहा है कि:


मो दमस्तपः षौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
 ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। ;18/42द्ध

अन्तकरण का विग्रह करना, इन्द्रियों का दमन करना, धर्म पालन के लिए कष्‍ट सहना, बाहर भीतर से शुतद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्‍त्र, ईष्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, परमात्मा के तत्व का अनुभव करना - ये सब के सब ही ब्राहमण के स्वाभाविक कर्म है। यदि ये ब्राहमणोचित सत्यादि गुण शूद्र में दिखायी दे और ब्राहमण में न हों तब वह शूद्र शूद्र नहीं और ब्राहमण ब्राहमण नहीं है। हर एक उपाय से लोभ और क्रोध को दबाना ही पवित्र ज्ञान और आत्मसंयम है। क्रोध तथा लोभ मनुष्‍य के कल्याण में सदा ही बाधा पहुंचाने को तैयार रहते हैं। अतः पूरी शक्ति लगाकर उनका दमन करना चाहिए। गीता में भगवान कहते हैं-

तिविधं नरकस्येदं द्वारं नाषनमात्मनः ।
 कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।। ;16/21द्ध

काम, क्रोध तथा लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए। श्रीमद्भागवत महापुराण के एकादश स्कन्ध में भगवान श्री कृष्‍ण लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपण करते हुए कहते हैं कि हमारा परम धन है आत्मा, इसलिए स्त्री, पुत्र, स्वजन आदि सभी में एक सम आत्मा को देखें और किसी से बहुत अधिक ममता न करें, उदासीन रहें। पंचभूतों का बना हमारा स्थूल शरीर और मन बुद्धि आदि सत्ररह तत्वों का बना सूक्ष्म शरीर दोनों ही दृष्य और जड़ हैं तथा उसको जानने और प्रकाशित करने वाला आत्मा साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य एवं जड़ है और आत्मा, नित्य एक एवं चेतन है। अतः देह की अपेक्षा आत्मा में विलक्षण्ता है।

                       ईष्वर के द्वारा नियन्त्रित माया के गुणों ने ही सूक्ष्म और स्थूल शरीर का निर्माण किया है। जीव को शरीर और शरीर को जीव समझ लेने के कारण ही स्थूल शरीर के जन्म मरण और सूक्ष्म शरीर के आवागमन का आत्मा पर आरोप किया जाता है। जीव को जन्म मृत्यु रूप संसार इसी भ्रम के कारण प्राप्त होता है। आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने पर उसकी जड़ कट जाती है। इस जन्म मृत्युरूप संसार का कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिए अपने वास्तविक स्वरूप को, आत्मा को जानने की इच्छा करनी चाहिए। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत से अतीत, द्वैत की गन्ध से रहित एवं अपने आप में ही स्थित है। उसका कोई और आधार नहीं है। यह जानकर धीरे-धीरे स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर आदि में जो सत्यत्वबुद्धि हो रही है, उसे क्रमश: मिटा देना चाहिए।

                           शरीर एक वृक्ष है, इसमें हृदय का घोंसला बनाकर जीव और ईष्वर नाम के दो पक्षी रहते हैं। वे दोनों चेतन होने के कारण समान है और कभी न बिछड़ने के कारण सखा हैं। इनके निवास करने का कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होने पर भी जीव तो शरीर रूप वृक्ष के फल सुख-दुख आदि भोगता है, परन्तु ईष्वर उन्हें न भोगकर कर्मफल सुख-दुख आदि से असंग और उनका साक्षीमात्र रहता है। अभोक्ता ईष्वर तो अपने वास्तविक स्वरूप और इसके अतिरिक्त जगत को भी जानता है, परन्तु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक स्वरूप को जानता है और न अपने से अतिरिक्त को। इन दोनों में जीव तो अविद्या से युक्त होने के कारण नित्यबद्ध है और ईष्वर विद्यास्वरूप होने के कारण, नित्य मुक्त है। ज्ञान संपन्न पुरूष भी मुक्त ही हैं। ज्ञानी पुरूष सूक्ष्म और स्थूल शरीर में रहने पर भी उनसे किसी प्रकार का संबंध नहीं रखता परन्तु अज्ञानी पुरूष वास्तव में शरीर से कोई संबंध न रखने पर भी अज्ञान के कारण शरीर में ही स्थित रहता है। यह शरीर प्रारब्ध के अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं सब गुणों की प्रेरणा से ही होते है। अज्ञानी पुरूष झूठ-मुठ अपने को उन ग्रहण-त्याग आदि कर्मों का कर्ता मान बैठता है और इसी अभिमान के कारण वह बँध जाता है। परन्तु विवेकी पुरूष समस्त विषयों से विरक्त रहता है और सोने, उठने, बैठने, घूमने, देखने, छूने, सूँघने, खाने और सुनने आदि क्रियाओं में अपने को कर्ता नहीं मानता बल्कि गुणों को ही कर्ता मानता है। गुण ही सभी कर्मों के कर्ता-भोक्ता हैं-ऐसा जानकर विद्वान पुरूष कर्मवासना और फलों से नहीं बंधते।

यस्य नाहड्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।। ;गीता 18/17द्ध

जिस पुरूष के अन्तः करण में ’’मैं कर्ता’’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरूष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।
भगवान सम्पूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय रहस्ययुक्त वचन गीता के अन्तिम अध्याय में कहते हैं-

            ”मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू ।
             मामेवैश्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोअसि मे ।। ;18/65द्ध

तु मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूं, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। विवके चूड़ामणि में भी भगवान शंकराचार्य कहते हैं-
                                    ”अतः समाधत्स्व यतेन्द्रियः सदा
                                    निरन्तरं षान्तमनाः प्रतीचि ।
                                    विध्वंसय ध्वान्तमनाद्यविद्यया
                                    कृतं सदेकत्वविलोकनेन । ;367द्ध

इसलिए सदा संयतेन्द्रिय होकर शान्त मन से निरन्तर ब्रह्म में चित्त स्थिर करो और सच्चिदानंद ब्रह्म के साथ अपना ऐक्य देखते हुए अनादि अविद्या से उत्पन्न अज्ञानान्धकार का ध्वंस करो। जीव तो स्वंय ब्रह्म ही है और ब्रह्म ही यह सम्पूर्ण जगत रूप में फैला हुआ है। ब्रह्म अद्वितीय है। जिनको यह बोध हो जाता है कि मैं ब्रह्म ही हूं वे बाह्य विषयों को सर्वथा त्याग कर ब्रह्मभाव से सदा सच्चिदानंद स्वरूप में ही स्थित रहते हैं।



डा. बी.के. र्मा
11/440, वसुन्धरा     

 9811666162

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