Wednesday, August 19, 2015

आत्मतत्व

मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है और एक निश्चित अवधि के लिए ईश्वर ने हम पर कृपा करके हमें अपने वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए दिया है यह हम सब जानते हैं। परन्तु इसके बाद भी हम वाह्य विषयों की चमक-दमक में ही अधिकतर आसक्त हो जाते हैं और उसको पाने भोगने में ही इस दुर्लभ एवं अमूल्य मनुष्य जीवन को खो देते हैं। दीर्घकाल तक नाना प्रकार की योनियों में जन्म धारण करके बार-बार जन्मते-मरते रहे हैं।  परब्रह्म परमात्म तत्वनित्य होने पर भी अज्ञान के अंधकार में पड़े हुए जीव के दुःख को दूर करने में समर्थ नहीं है, जिस प्रकार सूर्य यदि जितना ज्येष्ठ के महीने में तप जाये लेकिन वह सूर्य उल्लू को किंचित प्रकाश नहीं दे सकता। परन्तु जो बुद्विमान हैं जिसका अज्ञान दूर हो गया है वे इस विषय पर गहराई से विचार करते हैं कि ये इन्द्रियों के भोग तो जीव को दूसरी योनियों में भी पर्याप्त मिल सकते हैं। मनुष्य शरीर उन सबमें विलक्षण है। अतः इसका वास्तविक उद्देश्य विषय भोग नहीं हो सकता। इस प्रकार जब जीव विचार करता है तब उसे यह महसूस होता है कि इसका वास्तविक उद्देश्य अमृतस्वरूप नित्य परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करना है और वह मनुष्य शरीर से ही प्राप्त किया जा सकता है। फिर वह मनुष्य इस तरह से ज्ञान प्राप्त हो जाने पर विनाशशील जगत में क्षणभंगुर भोगों को प्राप्त करने की इच्छा नही करते और परमार्थ साधन में लग जाते हैं।
        
एक शुद् ब्रह्म् के अतिरिक्त और जो कुछ भी है सो वास्तव में नहीं है, केवल स्वप्नवत प्रतीति होती है। वेद, वेदांत और उपनिषद का यही सर्वोच्च सिद्वान्त है। श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध के नवें अध्याय में चर्तुश्लोकी भागवत के प्रथम श्लोक में भगवान, ब्रह्मा जी से कहते हैं कि,
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च यो वषिष्येत सो स्म्यहम्।। (श्रीमद् भागवत 2/9/32)

            सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था मेरे अतिरिक्त स्थूल था सूक्ष्म और तो दोनों का कारण अज्ञान। जहां यह सृष्टि नहीं है, वहा मैं ही मैं हूं और इस सृष्टि के रूप में जो कुछ प्रतीत हो रहा हे वह भी मैं ही हूं ओर जो कुछ बचा रहेगा वह भी मैं ही हूं इसको समझने के लिए यदि हम स्वर्ण और आभूषण के विषय में विचार करें, तब हमें ठीक से ज्ञान होता है कि आभूषण बनने से पहले भी स्वर्ण था, आभूषण बनने पर भी स्वर्ण ही मौजूद है और आभूषण की समाप्ति होने पर स्वर्ण ही शेष रहेगा। अतः शुरू से अन्त तक स्वर्ण ही स्वर्ण है, बीच की अवस्था में आभूषण द्वारा उसकी प्रतीति हो रही है। अतः जो कुछ भी हमें इस जगत में दिख रहा है वह परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। यदि हम जीव भाव में ही लगे रहेगें तब इसके मूल तत्व में नहीं जा पाएंगे और परमात्मा का ज्ञान नहीं हो पाएगा।
ईशा वास्यमिदॅंसर्वं यत्किच्च जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भूज्जींथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।।(ईशा.उपनिषद।)

            मनुष्यों के प्रति वेद भगवान का पवित्र आदेश है कि अखिल विश्व-ब्राह्माण्ड में जो कुछ भी यह चराचरात्मक जगत तुम्हारे देखने सुनने में रहा है, सब का सब सर्वाधार, सर्वनियन्ता, सर्वाधिपति, सर्वज्ञ परमेश्वर से व्याप्त है। इसका कोई भी अंश उनसे रहित नहीं है। यों समझकर उन ईश्वर को निरन्तर अपने साथ रखते हए सदा सर्वदा उनका स्मरण करते हुए ही तुम इस जगत में ममता और आसक्ति का त्याग करके केवल कर्तव्य पालन के लिए ही विषयों का यथाविधि उपभोग करो। अर्थात् विश्वरूप ईश्वर की पूजा के लिए ही कर्मो का आचरण करों। विषयों में मन को मत फॅंसने दो। इसी में तुम्हारा कल्याण है।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्वजिज्ञासुना  त्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदाः।। ( श्रीमद् भागवत् 2/9/35)

            भगवान कहते हैं कि यह ब्रह्म नही, यह ब्रह्म नहीं - इस प्रकार निषेध की पद्वति से, और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है- इस अन्वय की पद्वति से यही सिद्व होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्व है। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्व जानना चाहते हैं उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है। गीता में भगवान कहते हैं कि
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्नयस्य मत्परः।
बुद्वियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।। (गीता 18/57)

            अपने मन, इन्द्रिय और शरीर को उनके द्वारा किए जाने वाले कर्मो को और संसार की सभी वस्तुओ को केवल भगवान की मानकर उनमें ममता, आसक्ति और कामना का सर्वथा त्याग कर देना तथा मुझमें कुछ भी करने की शक्ति नहीं है केवल भगवान ही मुझे शक्ति प्रदान करके मेरे द्वारा ही  सब कर्म करवा रहे हैं, मैं तो केवल निमित्तमात्र हूं मेरे माध्यम से भगवान इस कर्म को संसार के हित के लिए करा रहे हैं, ऐसा मानकर कर्म करना चाहिए। यदि उस कर्म का परिणाम हमारे हित में हो या अहित में हो, लाभ हो या हानि हो, सब ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार करना चाहिए, इससे विचलित नहीं होना चाहिए।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्रव्तम्।। (गीता 18/62)

            गीता में भगवान कहते है कि हमें परमेश्वर की ही शरण में जाना चाहिए उस परमात्मा की कृपा से ही हम परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होंगे। अतः हमें इस पर विचार करके उस परमतत्व पर ही एकाग्र रहते हुए, सभी सांसारिक दायित्वों को निमित्त मात्र बनकर पूरा करते रहने चाहिए। एक प्रकार से समभाव में स्थित रहने पर एवं जाहे विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए को पूर्ण रूपेण अपना कर पूरी तत्परता, ईमानदारी, कठोर परिश्रम, पूर्ण निष्ठा से ईश्वर द्वारा दिए गये सभी दायित्वों को निभाते हुए ही हम शांति को प्राप्त कर सकते हैं।  

डा. बी.के.शर्मा
11/440, वसुन्धरा

 9811666162

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