Thursday, December 10, 2020

उत्तम सुख आरंभ काल में विष की तरह लेकिन परिणाम में अमृत की तरह होता है - 12.10.2020

     आजकल हम देखते हैं कि अधिकांश मनुष्य सांसारिक भोग विलास को ही सच्चा सुख समझकर भौतिक उन्नति की चेष्टा में लगे रहते हैं। अनैतिक या शास्त्र विरुद्ध तरीकों का इस्तेमाल करते हुए ज्यादा से ज्यादा धन एकत्र करते हुए सुख की प्राप्ति करना ही वह जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझते हैं। लेकिन वह यह नहीं जानते कि विषय इंद्रिय संयोग जनित भौतिक सुख नाशवान, क्षणिक तथा परिणाम में दुख स्वरूप है ।

गीता में तीन तरह के सुख के विषय में आता है। उत्तम या सात्विक सुख में मनुष्य भजन, ध्यान और दूसरों की सेवा या उनके हित के लिए कार्य करता है और जिससे दुखों के अंत को प्राप्त हो जाता है - ऐसा जो सुख है वह आरंभ काल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है। उदाहरण के लिए जब मनुष्य निष्काम भाव से अपना कर्तव्य कर्म लोकहित या दूसरों का हित को ध्यान में रखते हुए करता है तब आरंभ काल में तो उसे यह सब अच्छा नहीं लगता लेकिन परिणाम स्वरूप उसे एक प्रकार की शांति का अनुभव होता है और इससे उसका अंतःकरण अर्थात मन और बुद्धि आदि भी शुद्ध और पवित्र होते रहते हैं। इसी प्रकार एक विद्यार्थी को बाल्यकाल में विद्या का अध्ययन करने पर कष्ट का अनुभव होता है या किसी परीक्षा को उत्तीर्ण करने के लिए बहुत ही मेहनत करनी होती है अर्थात आरंभ में तो उसे यह सब विष की तरह लगता है लेकिन उसकी मेहनत का परिणाम उसके हित में ही होता है। अतः सात्विक पुरुष कार्य के आरंभ करने से पूर्व ही उसके परिणाम के विषय में विचार करते हैं कि वह उसके एवं दूसरों के हित में होगा या उससे कोई आहित भी हो सकता है। दूसरे प्रकार का राजस सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है वह पहले भोग काल में अमृत के समान होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है। जब मनुष्य अपने मन में आने वाली इच्छा या कामना की पूर्ति के लिए बिना उसके परिणाम पर विचार करके कार्य करता है। जैसे अनैतिक तरीके से धन का संग्रह करते हुए उसका भोग करते हुए अच्छा लगता है लेकिन कुछ समय के पश्चात ऐसा मनुष्य सरकारी कानूनों में फंसकर कष्ट भोगता है। इसी प्रकार कोई मनुष्य अधिक मदिरापान या दूसरे नशे करते हुए शुरू में तो सुख का अनुभव करता है लेकिन परिणाम स्वरुप अनेकों रोगों से ग्रसित हो जाता है। कभी-कभी मनुष्य अपने आहार में ऐसे पदार्थों का सेवन करते हुए सुख का अनुभव करता है जो कि कुछ समय के पश्चात उसके स्वास्थ्य पर विपरीत असर डाल देते हैं अतः उनका परिणाम ठीक नहीं होता। इस प्रकार के सभी सुख जो मनुष्य को भोगते हुए तो अच्छे लगते हैं लेकिन परिणाम में दुख देते हैं, मध्यम श्रेणी के या राजस सुख के अंतर्गत आते हैं। अतः मनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा जो भी विषयों का भोग करता है उनके परिणाम पर उसे भोग करने से पूर्व ही उनपर भली-भांति विचार करना चाहिए। लेकिन आधुनिक समय में अधिकांश मनुष्य केवल वर्तमान में क्षणिक सुख  का ही आनंद लेना चाहते हैं कुछ समय के पश्चात इसके परिणामस्वरूप क्या कष्ट होगा इसका विचार उचित समय पर नहीं करते।

तीसरे प्रकार का सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी मनुष्य को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख  तामस या निम्न श्रेणी का कहा गया है। हम देखते हैं कि कुछ मनुष्य आलस्य के कारण अपना कर्तव्य कर्म टालते रहते हैं और उस आलस्य रुपी सुख का अज्ञान के कारण भोग करने में आनंद लेते हैं। कभी-कभी ऐसे व्यक्ति अपना कर्तव्य कर्म को टालते हुए अपना मन बहलाने के लिए व्यर्थ की क्रियाओं जैसे ताश खेलना या कंप्यूटर पर गेम खेलते रहना, गपशप करते रहना आदि में अपना समय व्यतीत करते हुए सुख का अनुभव करते हैं, जबकि उनका अपना जीविका संबंधी कार्य या नियत कार्य टलता रहता है। सरकार के किसी-किसी विभाग में कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो आलस या प्रमाद का सुख लेते हुए अपना नियत कार्य को टालते रहते हैं कि बाद में कर लेंगे । ऐसा सुख अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है और अज्ञान के कारण उत्पन्न होता है। ऐसे मनुष्यों को यह ज्ञान ही नहीं होता कि हमारे पास एक निश्चित समय है उसको या चो हम आलस्य में समाप्त करते हुए अपना मनुष्य जीवन व्यर्थ कर लें या अपना नियत कर्म ठीक समय पर दूसरों के हित को ध्यान में रखते हुए स्वयं भी आनंद की प्राप्ति करें और दूसरों को भी सुख पहुँचाएँ।

अतः हमें उपरोक्त तीनों प्रकार के सुखों पर भली-भांति विचार करते हुए अपने अंदर भी देखना चाहिए कि हमें कौन सा सुख अच्छा लगता है और कौन सा सुख हमारे हित में है । 

 

डॉ. बी. के. शर्मा
सेवानिवृत्त, निदेशक (योजना)
दिल्ली सरकार

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