Friday, November 20, 2020

सामर्थ्य से ज्यादा की कामना पाप के रास्ते पर ले जाती है - 20.11.202

 

मनुष्य अपने जीवन में जाने या अनजाने या अकारण कुछ अच्चे और कुछ बुरे कर्म कर देता है। इसी का परिणाम है कि वह सुखी-दुखी होता रहता है। जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियां या दुख आने पर मनुष्य कभी-कभी दूसरों को दोषी मानता है, जबकि यह सब पूर्व में किए गए उसी के कर्मों का ही परिणाम है। कोई अन्य इसके लिए उत्तरदायी नहीं है। मनुष्यों के कर्मों का अच्छा-बुरा या मिला हुआ, ऐसे तीन प्रकार के फल उसे अवश्य ही मिलते हैं। यह कर्मों का ही फल है कि कोई अपने जीवन में निर्धन से धनवान हो जाता है और कोई धनवान से निर्धन हो जाता है।

अब प्रश्न उठता है कि जब मनुष्य यह जानता है कि बुरे कर्म का फल उसे बुरा ही मिलेगा, तब वह बुरे कर्म करता ही क्यों है? गीता का उपदेश सुनते हुए अर्जुन के मन में भी ऐसी ही जिज्ञासा उत्पन्न हो गई और उसने भगवान से पूछा हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है अर्थात मनुष्य के अंदर ऐसा कौन है जो उसके न चाहने पर भी उसे बलपूर्वक खींचकर पापकर्म में लगा देता है। और वह स्वयं भी उसमें लग जाता है। इसके उत्तर में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला, यानी भोगों से कभी संतुष्ट न होने वाला और बड़ा पापी है इसे ही तू इस विषय में बैरी जान।

ऐसी कामना जो मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर की है, उसे पूरा करने के लिए मनुष्य रिश्वत लेता है, व्यपार में बेईमानी करता है, दूसरों को धोखा देता है। अगर कोई कामना पूर्ति में बाधा डालता है तब वह उसकी हत्या तक कर डालता है और न जाने कितने गलत तरीकों को अपनाकर जीवन भर बस अपनी कामनाओं की पूर्ति में लगा रहता है। हम जानते हैं कि कामनाओं का कभी अंत ही नहीं होता। एक के पूरा हो जाने के बाद तुरन्त दूसरी कामना पैदा हो जाती है, फिर मनुष्य उसकी पूर्ति में लग जाता है। यही क्रम जीवन भर चलता रहता है। यदि कभी कामना पूरी न हो, तब मनुष्य को क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव आता है और मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम होता है। उसके परिणाम स्वरुप मनुष्य की बुद्धि और विवेक का नाश हो जाता है और कामना की पूर्ति करने के लिए वह पाप का आचरण करने लग जाता है। इसके पश्चात वह कामनाओं के चक्रव्यूह में ऐसा फंस जाता है कि उससे बाहर ही नहीं निकल पाता और पाप के रास्ते पर चलने के कारण अपने आप को अधोगति में डाल देता है।

रामचरितमानस में काम, क्रोध, मद और लोभ को नरक का रास्ता बताया है। शंकरार्चाय द्वारा रचित भजगोविन्दम में भी आता है कि काम, क्रोध, मोह को छोड़कर स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ। सत्यता के पथ का अनुसरण करो। अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो।

इसलिए मनुष्य को शरीर के नाश होने से पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने का सतत् अभ्यास करते रहना चाहिए। इससे उसका वर्तमान जीवन भी सुधर जाएगा। यह अभ्यास पाप या बुरे कर्मों से भी दूर होकर अपनी आत्मा को उन्नति के मार्ग पर ले जाएगा, जो मनुष्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य भी है।

 

    धन्यवाद

डॉ. बी. के. शर्मा
सेवानिवृत्त, निदेशक (योजना)
दिल्ली सरकार

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत 10 नवंबर 2020 को प्रकाशित हुआ है)

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