Friday, October 16, 2020

जैसा खाएंगे अन्न वैसा रहेगा मन, जानिए क्यों होता है ऐसा? - दिनांक- 16.10.2020

     आहार का सभी प्राणियों के जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान हैहम जैसा आहार लेते हैं उसका वैसा ही प्रभाव हमारे मन और बुद्धि पर पड़ता है। उपनिषद में आता है ‘आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः’, यानी हमारा आहार शुद्ध होगा, तो हमारा अंतःकरण भी शुद्ध होगी। अंतःकरण के अनुरूप ही हमारे विचार होते हैं, बुद्धि होती हैकार्य होते हैं और अंत में हम स्वयं भी वैसे ही बन जाते हैं। एक प्रसिद्ध कहावत भी है, जैसा खाए अन्न, वैसा हो जाए मन। लेकिन आज के आधुनिक एवं व्यस्त समय में अक्सर हम आहार लेने से पहले उसके गुण दोष पर विचार ही नहीं करते, और इसके चलते हम किसी न किसी रोग से भी ग्रसित हो जाते हैं।

गीता में तीन तरह के आहार के विषय में बताया गया है। पहला, जो सात्विक या श्रेष्ठ पुरुष को प्रिय होता है। यह वैसा आहार है जो आयुबुद्धिबलआरोग्यसुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसों से युक्त होता है। ये आहार मन को प्रिय होता है। दूसरा, जो राजस या मध्यम पुरुष को प्रिय होता हैजैसे कड़वेखट्टेलवणयुक्तबहुत गर्मतीखेरूखेदाहकारक। ऐसे आहार चिंता और रोगों को उत्पन्न करने वाले होते हैं। तीसरा, तामसिक आहार जो अधपकारसरहितदुर्गंधयुक्तबासी और उच्छिष्ट है। यह अपवित्र माना जाता है।

भोजन के विषय में विचार करने पर हम पाएंगे कि सात्विक पुरुष खाने से पहले भोजन के पदार्थों के विषय में भली-भांति विचार करता हैं कि ऐसा भोजन लेना चाहिए जिससे मेरी आयु और बल बढ़े, वह रोगी न बन जाए। बुद्धि सात्विक बने। राजस पुरुष कड़वेखट्टेतीखेदाहकारक पदार्थ वाले भोजन को पहले ग्रहण करता है, उसके बाद वह विचार करता है कि इस भोजन से रोग उत्पन्न हो रहे हैंचिंता और दुख बढ़ रहे हैं। लेकिन तामस पुरुष न तो भोजन लेने से पहले सोचता है और न ही बाद में उसके गुण-दोष पर विचार करता है बस उसकी दृष्टि केवल भोजन पर ही रहती है। तामसिक पदार्थ लेने के कारण उसके अंदर आलस्य, निद्रा का बढ़नाहिंसाकर्मों में मन का न लगना आदि अवगुण बढ़ते जाते हैं। सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है और रजोगुण से लोभ और तमोगुण से प्रमाद, मोह और अज्ञान उत्पन्न होते हैं।

गीता में आता है कि दुखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहारविहार करने वाले काकर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। यानी कि हमें न तो ज्यादा और न कम अर्थात अपने शरीर और आयु के अनुसार भोजन करना चाहिए। ऊपर बतायी गयी पांच चीजों, जिसमें सर्वप्रथम आहार का वर्णन आता है, ग्रहण करना चाहिए। उसके पश्चात  विहार (घूमनायोग आदि)कर्तव्य-कर्मसोना और जागना शामिल है, पर उचित ध्यान देना चाहिए।

सभी प्राणियों में मनुष्य जन्म ही विवेक प्रधान है। वह उचितअनुचितनित्यअनित्य आदि का निर्णय ले सकता है। इसलिए अंतःकरण (मन और बुद्धि) की शुद्धि के लिए और शरीर को निरोग बनाए रखने के लिए मनुष्य को भोजन में शामिल पदार्थों को ग्रहण करने से पहले उनके गुण-दोष का भली-भांति विचार कर लेना चाहिए। सात्विक भोजन से हमारा मन और बुद्धि भी पवित्र रहेंगेउचित चिंतन भी होता रहेगा और शरीर निरोग रहने के कारण हमारी कार्य क्षमता भी यथावत बनी रहेगी। 

 धन्यवाद
                           डॉ. बी. के. शर्मा

 

(मेरा यह लेख नवभारत टाइम्स में स्पीकिंग ट्री के अंतर्गत
15 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित हुआ है)

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