Wednesday, September 30, 2020

अध्यात्म क्या है? - दिनांक- 30.09.2020

 व्यवहारिक गीता ज्ञान

परमात्मा, जीव, प्रकृति और संसार इन प्रश्नों पर अधिकांश मनुष्य समय - समय पर अपने जीवन में विचार करते रहते हैं। इनका आपस में क्या संबंध है इस पर भी सभी के मन में स्वाभाविक रूप से विचार आते रहते हैं क्योंकि केवल मनुष्य योनि ही विवेक प्रधान है और वह इन सबके विषय में जानने का सतत् प्रयास करता रहता है। परमात्मा का शुद्ध अंश ही आत्मा है, लेकिन वह अविद्या (अज्ञान) के कारण प्रकृति और उसके कार्यों के साथ अपना संबंध कर लेने के कारण ही जीव बन जाता है और स्वरूप से मुक्त होते हुए भी, बंधन में पड़ जाता है।

गीता के श्लोक 13/21 में भगवान कहते हैं-

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भूक्तङे प्रकृतिजान्गुणान।
कारणं गुणसग्ङोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।

प्रकृति में स्थित ही पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।

प्रकृति और पुरुष दोनों ही अनादि हैं। इनमें पुरुष तो अनादि और अनन्त है तथा प्रकृति अनादि और सान्त है। पुरुष सर्वव्यापी, चेतन, नित्य तथा आन्नदस्वरुप है और प्रकृति विकारवाली होने के कारण जड़, अनित्य और दुखरूप है। यह समस्त जड़वर्ग संसार प्रकृति का ही विकार है। जब पुरुष (आत्मा) अज्ञान के कारण प्रकृति में स्थित हो जाता है अर्थात अपने आपको शरीरमनबुद्धि आदि मान लेता है तब वह त्रिगुणात्मक प्रकृति के साथ संबंध रखने के कारण सुख-दुख एवं जन्म-मृत्यु के बंधन में पड़ जाता है। इस सुख-दुख की निवृत्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक इस चेतन आत्मा का शरीर के साथ अज्ञानजन्य संबंध नहीं छूट जाता। ज्ञान हो जाने के पश्चात मनुष्य का प्रकृति से संबंध छूट जाता है और वह अपने वास्तविक स्वरूप को जानकर उस में स्थित हो जाता है। अर्थात प्रकृति और उसके कार्यों में संबंधित आत्मा ही जीवात्मा है, और प्रकृति के साथ संबंध हो जाने के कारणआना-जाना सा प्रतीत होता रहता है।

पांच महाभूत पृथ्वीजलअग्निवायु और आकाश जिनसे हमारा  स्थूल शरीर बना है और मनबुद्धिअहंकार  अर्थात हमारा अंतःकरण इन आठों को भगवान ने अपरा या जड़ प्रकृति कहा है और दूसरी को जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है जीवरूपा परा अर्थात चेतन प्रकृति कहा है। अर्थात चेतन और जड़ या पुरुष और प्रकृति दोनों ही भिन्न है। जब चेतन स्वयं ही जड़ के साथ संबंध बनाकर बंधन में पड़ता है तब ज्ञान के कारण उसे स्वयं ही अपने आपको जड़ से अलग जानना होगा और मुक्त हो जाएगा।

भगवान ने गीता के श्लोक 7/26 में अर्जुन से कहा कि पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूंपरंतु मुझको कोई भी श्रद्धा – भक्ति रहित पुरुष नहीं जानता।” और श्लोक 29-30 में भगवान कहते हैं कि जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैंवे पुरुष उस ब्रह्म कोसंपूर्ण अध्यात्म कोसंपूर्ण कर्म को जानते हैं। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित (सबका आत्मरूप) मुझे अंतकाल में भी जानते हैं वे युक्तचित्तवाले पुरुष मुझे जानते हैं अर्थात प्राप्त हो जाते हैं।” इस प्रकार भगवान के समग्र रूप को जानकर अर्जुन ने भगवान से आठवें अध्याय के प्रथम दो श्लोकों में जो सात प्रश्न पूछे उनमें एक प्रश्न है किमध्यात्मं” अर्थात अध्यात्म क्या है?

इस प्रश्न के उत्तर में भगवान अध्यात्म के विषय में कहते हैं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते अर्थात अपना स्वरूप या जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जाता है। अर्थात अपने स्वरूप को जानना ही अध्यात्म है। इस प्रकार जो मनुष्य अपने स्वरूप को जानता है और सब कार्य करते हुए भी अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है वही अध्यात्मिक मनुष्य है। शास्त्रों का अध्ययन या उनका श्रवण ही पर्याप्त नहीं हैबल्कि उनके द्वारा सत और असत वस्तु का विवेक हो जाना आवश्यक है। जीवात्मा परमात्मा से भिन्न नहीं हैवह तो परमात्मा का ही अंश है। भगवान गीता के श्लोक 15/में कहते हैं-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इंद्रियों को आकर्षण करता है। मानस में भी आता है - ईश्वर अंश जीव अविनाशीचेतनअमलसहजसुखराशि

गीता के श्लोक 10/20 में भगवान कहते हैं कि मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूं तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ।’’ सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूँ जीवनं सर्वभूतेषु” अर्थात मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मनियों के सदृश्य मुझमें गुँथा हुआ है ऐसा भगवान ने श्लोक 7/में कहा है। यह सब जानना ही अध्यात्म है कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। सृष्टि का आदि और अंत तथा मध्य भी परमात्मा ही है। जीव अज्ञान के कारण और शरीर के साथ संबंध रखने के कारण ही शरीर की उत्पत्ति और विनाश में आत्मा का जन्मना-मरना मानता है। भगवान ने गीता के श्लोक 15में कहा है-

शरीरं यदवाप्रोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्र्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।।

वायु गंध  के स्थान से गंध को जैसे ग्रहण करके ले जाता हैवैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता हैउससे इन मनसहित इंद्रियों को ग्रहण करके फिर जिस  शरीर को प्राप्त होता है-उसमें जाता है।

श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध में भी श्री शुकदेव जी राजा परीक्षित से कहते हैं कि ‘‘जो गृहस्थ घर के काम धंधों में उलझे हुए हैंअपने स्वरूप को नहीं जानतेउनके लिए हजारों बातें कहने सुनने एवं सोचनेकरने की रहती है। उनकी सारी उम्र यूं ही बीत जाती है। उनकी रात नींद आदि में कटती है। और दिन धन की हाय हाय या कुटिम्बियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है। संसार में जिन्हें अपना अत्यंत घनिष्ठ संबंधी कहा जाता है वे शरीरपुत्रस्त्री आदि कुछ नहीं हैअसत हैपरंतु जीव उनके मोह में ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं। जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है उसे तो सर्वात्मासर्वशक्तिमान भगवान श्री कृष्ण की ही लीलाओं का श्रवणकीर्तन और स्मरण करना चाहिए। मनुष्य जन्म का यही - इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो - ज्ञान सेभक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाए की मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे।

कठोपनिषद के द्वितीय अध्याय के तृतीय वल्ली के मंत्र चार में यमराज नचिकेता से कहते हैं कि यदि शरीर का पतन होने से पहले पहले इस मनुष्य शरीर में ही साधक यदि परमात्मा को साक्षात कर सका तब तो ठीक हैनहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है। मुंडकोपनिषद के तृतीय मुंडक के प्रथम खंड के मंत्र 10 में आता है कि विशुद्ध अंतःकरण वाला मनुष्य जिस लोक को मन से चिंतन करता है तथा जिन भोगों की कामना करता है उन-उन लोकों को जीत लेता है और उन भोगों को भी प्राप्त कर लेता है, इसलिए ऐश्वर्य की कामना वाला मनुष्य शरीर से भिन्न आत्मा को जानने वाले महात्मा की सेवा पूजा करे।’’

क्योंकि विशुद्ध अंतःकरणयुक्त विवेकी पुरुष अपने लिए और दूसरों के लिए भी जो-जो कामना करते हैं वह पूर्ण हो जाती है।

भगवान द्वारा दिए गए गीता का उपदेश पूरा हो जाने पर अर्जुन के द्वारा कहे गए अंतिम श्लोक 18/73 में अर्जुन ने कहा कि ‘‘हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूं अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।’’ अर्थात गीता का उपदेश सुनने के पश्चात् अर्जुन को अपने स्वरूप की स्मृति हो गई जिसको वह मोह के कारण युद्ध के प्रारंभ में विस्मृत कर चुका था। यही स्थिति हमारी भी है हम भी अपने स्वरूप को विस्मृत कर चुके हैं क्योंकि अनन्त जन्मों के अनेकों शरीरों में रहते चले आ रहे हैं और अपने को शरीर ही मानने लगे हैं इसी के साथ-साथ अपना भी जन्म और मृत्यु मानते हैं। जबकि हमारा वास्तविक स्वरूप परमात्मा का अंश हैं और सच्चिदानन्द स्वरूप है। इन समस्त जड़ पदार्थों से हमारा कोई संबंध नहीं है। हमारा शरीर माता के गर्भ में बना है, पृथ्वी पर हमारा शरीर घूमता-फिरता है और अंत में पृथ्वी पर ही हमारा यह शरीर लीन हो जाता है। हम इस शरीर से पहले भी थे और इस शरीर के समाप्त होने के बाद भी हम समाप्त नहीं होंगे जब तक हम मुक्त होकर परमात्मा में लीन नहीं हो जाते। अतः हमें अध्यात्म अर्थात अपने वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास करना चाहिए जिससे हमारा जीव भाव या अज्ञान का नाश हो जाए और हम भावी आवागमन के चक्र से छूट जायें। 

धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा

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