Friday, September 18, 2020

अन्तकाल में हुए चिन्तन के अनुसार दूसरे जन्म की प्राप्ति - दिनांक- 18.09.2020

    

व्यवहारिक गीता ज्ञान          

मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, ईश्वर की कृपा से ही यह शरीर हमें अपना उद्धार करने के लिए ही प्राप्त हुआ है। सभी शास्त्रों में मनुष्य शरीर की महिमा बतलायी गयी है। मानस में तो आता है-

बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।

साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।

कालहिं कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।।

बड़े भाग से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रन्थों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। यह साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। इसे पाकर भी जिसने परलोक न बना लिया। वह परलोक में दुख पाता है, सिर पीट-पीट कर पछताता है, तथा अपना दोष न समझकर काल पर, कर्मपर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।

नर तन सम नहिं कवनिउ देही।

जीव चराचर जाचत तेही।।

नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी।

ग्यान विराग भगति सुभ देनी।।

सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर।

होहिं विषय रत मंद मंद तर।

काँच किरिच बदलें ते लेहीं।

कर ते डारि परस मनि देहीं।।

मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते है। यह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है। ऐसे मनुष्य शरीर को प्राप्त करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैंवे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में कांच के टुकड़े ले लेते हैं।

ऐसे दुर्लभमनुष्य शरीर को प्राप्त करके भी जो मनुष्य अपनी इंद्रियों द्वारा केवल विषय भोगों की प्राप्ति में ही लगा रहता है वह अपने आप को अधोगति में ही डालता है।

कठोपनिषद में आता है कि स्वयं प्रकट होने वाले परमात्मा ने समस्त इंद्रियों के द्वार बाहर की ओर जाने वाले ही बनाए हैं इसलिए मनुष्य इंद्रियों के द्वारा प्रायः बाहर की वस्तुओं को ही देखता है अंतरात्मा को नहीं। किसी बुद्धिमान मनुष्य ने ही अमर पद को पाने की इच्छा करके  चक्षु आदि इंद्रियों को बाहर के विषयों की ओर से लौटाकर अंतरात्मा को देखा है। वेदों में सुख के साधन दो बताए गए हैं :-

1)  श्रेय अर्थात कल्याण का कारण और

2)  प्रेय  अर्थात प्रिय लगने वाले भोगों का साधन। भगवान की कृपा से जो मनुष्य श्रेय को अपना लेता है वह दुखों से छूटकर परमात्मा को प्राप्त होकर अपना कल्याण कर लेता है परंतु जो मनुष्य प्रेय अर्थात सांसारिक भोगों के साधन को स्वीकार करता वह परमात्मा की प्राप्ति रूप यथार्थ लाभ से वंचित रह जाता है।

गीता के आठवें अध्याय में अर्जुन द्वारा भगवान से किए गए सात प्रश्नों में से अंतिम प्रश्न था कि युक्तचित वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।” इस पर भगवान गीता के श्लोक 8/5-6 में कहते हैं-

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।

य प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।

जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता हैवह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संशय  नहीं है।

हे कुंतीपुत्र अर्जुन यह मनुष्य अंतकाल में जिस- जिस भी भाव  को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता हैउस-उस  को ही प्राप्त होता हैक्योंकि वह सदा उसी भाव से भासित रहा है।

कठोपनिषद में भी यमराज नचिकेता से कहते है कि जिसका जैसा कर्म होता है और शास्त्रों आदि के श्रवण द्वारा जिसका जैसा अंतिम समय में भाव होता  है उन्हीं के अनुसार जीवात्मा दूसरे शरीर को धारण करता है। इनमें जिनके पुण्य पाप समान होते हैं वह मनुष्य का और जिनके पुण्य कम और पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का शरीर धारण करके उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनके पाप अत्याधिक होते हैंस्थावरभाव को प्राप्त होते हैं अर्थात वृक्षलतातृण  आदि जड़ शरीर में उत्पन्न होते हैं ।

अंतकाल में मनुष्य जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है उस-उस को ही प्राप्त होता है।  इस विषय में श्रीमद्भागवत महापुराण  में दिए गए अजामिल और राजर्षि भरत का शरीर त्याग करते समय आए हुए चिंतन या भाव पर विचार करते हैं। श्री शुकदेव जी राजा परीक्षित से अजामिल के विषय में कहते हैं कि उसने अपने जीवन में अनेकों पाप किए थेचोरी करना और दूसरे प्राणियों को कष्ट पहुंचाना ही उसका कार्य था। उसके छोटे पुत्र का नाम नारायण था। जब अजामिल की मृत्यु का समय आया और उसने अत्यंत भयानक तीन यमदूत देखें तब वह अत्यंत व्याकुल हो गया और उसने ऊंचे स्वर से पुकारा नारायण जो कि उसके छोटे बेटे का नाम था और वह पास में ही था। भगवान के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान नारायण का नाम ले रहा है तब वे वहां आ गए जब यमदूत अजामिल के शरीर से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। तब यमदूतों और भगवान के पार्षदों के बीच संवाद हुआ। यमदूतों ने कहा कि इसका सारा जीवन ही पापमय हैइसने अपने पापों का कोई प्रायश्चित भी नहीं किया है अतः हम इसे यमराज के पास ले जाएंगे वहां यह अपने पापों का दंड भोग कर शुद्ध हो जाएगा। भगवान के पार्षदों ने कहा कि इसने कोटि-कोटि जन्मों की पाप राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया हैक्योंकि इसने विवश होकर ही सही भगवान के नाम का उच्चारण किया है। इसलिए यमदूतों तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है क्योंकि इस ने मरते समय भगवान के नाम का उच्चारण किया है। जैसे जाने या अनजाने में ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाए तो वह भस्म हो ही जाते हैं वैसे ही जानबूझकर या अनजाने में भगवान के नाम लेने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जानकर अनजाने में पी ले तो भी वह अवश्य ही पीने वाले को अमर बना देता है वैसे ही अनजाने में उच्चारण करने पर भी भगवान का नाम अपना फल देकर ही रहता है। इस प्रकार भगवान के पार्षदों ने भागवत धर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया। भगवान के पार्षदों के सत्संग के बाद अजामिल को संसार से वैराग्य हो गया। बाद में हरिद्वार में गंगा तट पर अजामिल ने आत्मचिंतन के द्वारा अपनी बुद्धि को विषयों से पृथक कर लिया और भगवान के पार्षदों के साथ वैकुंठ को चले गए।

अजामिल के विपरीत दूसरा दृष्टांत महाराज भरत का है जो कि बड़े ही भगवद् भक्त और तपस्वी थे । इन्हीं के समय से ही हमारे देश का नाम भारत वर्ष हुआ जो कि पहले अजनाभवर्ष था। एक बार राजर्षि भरत ने नदी के किनारे पर देखा कि हिरणी का एक छोटा बच्चा नदी के प्रवाह में बह रहा है वह उसे लेकर अपने आश्रम पर आ गए। उसका पालन पोषण करते रहने के कारण उनकी उसमें ममता हो गई और उनका अधिकांश समय उस हिरणी के बच्चे के साथ ही व्यतीत होने लगा। जब उनका अंतिम समय आया उस समय भी हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्र के समान शोकातुर हो रहा था और राजर्षि भरत का चित्त  भी  उसी में लग रहा था। इस प्रकार की आसक्ति में ही उनका शरीर भी छूट गया। तदनंतर उन्हें अंतकाल की भावना के अनुसार अन्य साधारण पुरुषों के समान मृग शरीर ही मिला। किंतु उनकी साधना पूरी थी इससे उनकी पूर्व जन्म की स्मृति नष्ट नहीं हुई। इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरत के अंदर वैराग्य भावना जागृत हुई और अंत में उन्होंने समय आने पर मृग शरीर को छोड़ दिया। और अगले जन्म में ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर जड़ भरत के नाम से प्रसिद्ध हुए तथा असंग भाव से गुप्त रूप से विचरते रहे लेकिन उन्हें अपने पूर्वजन्मों की स्मृति बनी रही । इसलिए अंतकाल के भाव के अनुसार अजामिल का उद्धार हो गया और राजर्षि भरत को भी मृग शरीर में आना पड़ा।

अजामिल के दृष्टांत से हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए कि हम अपना पूरा जीवन विषय भोगों और पाप कर्म करने में लगा कर ये सोच लें की मृत्यु के समय भगवान का नाम लेकर मुक्त हो जाऊंगा। भगवान ने गीता के उपरोक्त श्लोक में कहा है कि मनुष्य सदा जिस भाव से या कर्म से अपने जीवन में भासित रहा है, अंतकाल के समय उसी को स्मरण करता हुआ उसी को प्राप्त हो जाता है। गीता के श्लोक 14/14-15 में भगवान ने कहा है कि जब यह मनुष्य सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है तब वह उत्तम कर्म करने वालों के निर्मल दिव्य स्वर्ग आदि लोकों को प्राप्त होता है। रजोगुण के बढ़ने पर मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य कीटपशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है।” अतः हमारे अंदर मौजूद यह गुण ही हमारे वर्तमान शरीर और भविष्य के शरीर की उत्पत्ति के कारण हैं। भागवत में भी भगवान ने कहा है कि जीव को जितनी भी योनियों अथवा गतियां प्राप्त होती हैं वे सब उसके गुणों और कर्मों के अनुसार ही होती हैं। अतः अंतकाल में भी मनुष्य वैसा ही चिंतन करता है जैसे उसके अंदर गुणों की प्रधानता है और उसने कर्म किए हैं। गीता के श्लोक 9/20-21 में भगवान कहते हैं कि ‘‘सकामकर्मों को करने वाले पाप रहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैंऐसे पुरुष पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में आते हैं।’’ और श्लोक 8/15 में भगवान कहते हैं कि परम सिद्धि को प्राप्त महात्मा जन मुझको  प्राप्त हो कर दुखों के घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते।” अर्थात इस शरीर को दुखों का घर और क्षणभंगुर कहा है जिसमें हम सुख खोजते हैं और सदा इस को बनाए रखना चाहते हैं। मनुष्य का अंत काल कब आएगा इसके विषय में कोई भी नहीं जानतायह किसी भी आयु में या किसी भी समय आ सकता है। कभी-कभी कम उम्र केबच्चों या नवयुवकों की भी मृत्यु को हम सभी देखते हैं। अतः मनुष्य को हमेशा तैयार रहना चाहिए कि कोई भी समय उसका अंत समय हो सकता है। इसके लिए ऐसा क्या किया जाए कि हमें उस समय भगवान की स्मृति आ जाए। भगवान ने इस विषय में भी गीता के श्लोक 8/ 7 में हमें बताया है-

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।

इसलिए हे अर्जुन!तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझ में अर्पण किए हुए मन बुद्धि से युक्त होकर तू निसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा।

अर्जुन का कर्तव्य कर्म युद्ध करना था इसलिए भगवान ने कहा कि युद्ध भी मेरा निरंतर स्मरण करता हुआ कर । इसी प्रकार हम भी अपना अपना कर्तव्य कर्म भी करते रहे और उसी के साथ कर्म का आरंभ भगवान को स्मरण करते हुए करें और अंत में भी भगवान के स्मरण के साथ उस कर्म को पूर्ण कर दें। यदि प्रत्येक कर्म के आरंभ और अंत में भगवान का स्मरण करेंगे तब कर्म के मध्य में भी स्मरण न करते हुए भी वही भाव बना रहेगा। जैसे सोनेके पूर्व भगवान का स्मरण करते हुए सो जाएं और जागने पर पहले भगवान का ही स्मरण करके बिस्तर से उठें तब नींद में भी भगवान की स्मृति बनी रहेगी एवं यदि नींद में अंत समय आ गया तब अंतिम चिन्तन भगवान का ही रहेगा। इस प्रकार हम अपने मन द्वारा विषयों को सतत चिंतन न करते हुए अपने मन से बीच-बीच में भगवानका चिंतन करने लगेंगे तब धीरे-धीरे अभ्यास द्वारा हम उसे बढ़ा सकते हैं और कुछ समय के पश्चात वह स्वयं ही होने लगेगा। इसलिए भगवान ने कहा है कि मुझ में अर्पण किए हुए मन बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा। मनुष्य को अपने विवेक द्वारा इस पर विचार करना चाहिए और भगवान द्वारा गीता में बतलाए गए मार्ग पर चलते हुए इस जन्म-मृत्यु के चक्र से स्वयं को मुक्त करने का प्रयत्न करना चाहिए, यही मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य भी है।

धन्यवाद
डॉ. बी. के. शर्मा

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